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आज बैठी जो लिखने मन की बातें,
अजीब सी दुविधा में फंस गई मेरी सांसें।
जो कुछ भी हुआ उसके साथ,
नसीब था उसका
या था किसी और का हाथ।
भली थी वो, जानते थे सब उसे,
फिर क्यों लेटी पड़ी थी लाश के जैसे।

पूरे बदन पर खून की छींटे जो दिख रही थीं,
नग्न शरीर पर उसके, मानो कुछ अलग ही कहानी लिख रही थी।
पूछ रहे थे सब, आँखें उसकी ख़ामोश थी,
दर्द बेपनाह था, जो वो बेचारी झेल रही थी।
क्या हुआ होगा उसके साथ, सवाल सबका था,
मारा, लूटा, काटा उसको, ज़ख्म सब कुछ बयां कर रहा था।

जैसे हर चीज की एक सीमा होती है,
हैवानियत की क्या कोई हद नहीं होती?
समझ से परे हैं ये भेड़िए,
जो एक औरत की कोख से निकल कर,
दूसरे औरत की कोख को उजाड़ देते हैं।
रूह तक कांप उठती है तब,
जब एक मां बच्चे को जन्म देती है,
वो असहनीय पीड़ा, वो बेपनाह दर्द
झेलकर भी, अपने अंश को बाहर लाती है।

और उनमें से कुछ अंश ऐसे हैं,
जो अपनी मां की कोख को ही गंदा कर देते हैं।
जब दूसरे की इज़्ज़त को,
सरे बाज़ार बेपर्दा कर देते हैं।
अरे जाओ हैवानों, माफ़ी नहीं है अब इस गुनाह की
चाहे हो पुलिस या आए अब प्रशासन,
एक ही इलाज है इनका, करेंगे इनको दफ़न।

शक्ति हैं हम, दुर्गा, काली या चामुंडा ही सही
इज़्ज़त है हमारी, बाज़ार में बिकने वाली लाली नहीं
गर देखा जो बुरी नज़र से अब किसी को भी,
कटा गला मिलेगा तोहफ़े में, ये तू मान ले अब बस, बस यही।

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