मेरे सपने, मुझे जीना है.
ज़िन्दगी बहुत कुछ सिखला जाती है,
एक पूरी किताब बन जाती है.
हर दिन एक नया पन्ना लिखा जाता है,
किस्से और कहानियों का ताना बाना सा बन जाता है.
बंद मुट्ठी में जितने सपने लिए हम आते हैं,
खुले आसमान में उन सपनों के पर फ़ैलाते हैं.
फिर कुछ दकियानूसी सोच की वजह से
उन सपनों के पर कुतर दिए जाते हैं.
सपने तो बहुत दिखाए जाते हैं,
पर पूरे करने की उम्मीद दबा दी जाती है.
सवालों के कटघरे में हमेशा हम ही खड़े हुए पाए जाते हैं
जवाब के इंतज़ार में जीवन बिता देते हैं.
दूसरों की उम्मीद बन जाते हैं,
और खुद के ही कैदी बन जाते हैं.
जाओ जीयो अपनी ज़िन्दगी, कहते तो सब हैं,
लेकिन उनके सपने पूरी करने की ज़िम्मेदारी हमें सौंप जाते हैं
पढ़ाया इसलिए की पैसे कमा कर दोगे,
अपनी ख्वाहिशों का गला घोंट,
उनके अरमानों को पूरा करोगे.
माना ज़िन्दगी का चक्र ये है, कर्म करना ज़रूरी है
पर क्या अपनी चाहत कुछ भी नहीं?
अपने सपने, अपनों के लिए त्याग देना
अच्छे बनने की निशानी है?
और उन्ही सपनों को पूरा कर
अपनी ज़िन्दगी को अपने तरीके से जीना,
परिवार के साथ बेईमानी है??
ऐसे सवाल सिर्फ हमारे ही झोली में क्यों?
उन सवालों के जवाब भीख में मिलेंगे, ऐसा क्यों?
इसलिए अब समाज को आईना देखना होगा
बदलाव जो आ रहे हैं न, उनको अपनाना होगा.
हमें अपनी ज़िम्मेदारी का एहसास है,
लेकिन अपनी ख्वाबों की बलि देकर
ज़िम्मेदारी को ढ़ोने का पाप हमसे नहीं होगा.