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बात बड़ी पुरानी है,
लेकिन ये असल में मेरी ही कहानी है.
सोचा आज आप सबके साथ इसको साझा करनी है
क्यूंकि सच में आपको भी लगेगा कहीं न कहीं अपनी ही है.
बचपन से लिखने पढ़ने का शौक था
लेकिन अपने जज़्बातों को बयां करना ना आता था…
एक साधारण लेकिन बड़े ही सख़्त परिवार की बेटी थी
जहाँ सपनों पर भी अधिकार न था.
पालन पोषण में पैसे खर्च करते थे,
लेकिन जता देना भी आता था.
बेटा तो वापिस करेगा, बेटी तो दूजे घर को जाएगी !!
काम भर पढ़ा देना है, फिर मेहंदी हाथ में लग जानी है !!
क्या करेगी पढ़ कर इतना, जब पराये घर को जानी है.
पैसे की बात आते ही पापा के तेवर बदल जाते,
वैसे तो कहते की बेटा बेटी बराबर है
लेकिन खर्च करने में बेटी आगे, और बचाने में बेटा कमाल है.
अजीब सी दुविधा में फंस गयी मैं,पढ़ना तो चाहती थी,
लेकिन पैसे खर्च हो जायेंगे, इसलिए चुप हो गयी मैं.
बात बात पर पापा हमेशा मुझे यही सिखाते,
पैसे आज बचाएंगे, तभी तो कल दहेज दे पाएंगे.
मैंने भी ठान लिया, पैसे की अहमियत समझाऊंगी
शादी नहीं, पढ़ कर दोगुने पैसे देकर जाउंगी.
आज भी पापा के तेवर बदले हुए ही हैं,
बेटी ने दहेज के पैसे तो बचाये ही,
उन पैसों को सही जगह इस्तेमाल भी कराये.
आज उन्हीं पैसों से सेवाश्रम चलता है,
लाखों की दुआओं का असर परिवार की खुशियों में दिखता है.
पापा की परी हूँ मैं, ये उन्होंने इस समाज को बताया !!
लेकिन मैं पापा की छवि हूँ, ये मैंने दुनिया को दिखलाया.
शुक्रिया पापा, जो आपने मुझे मौका दिया,
एक नहीं, दो नहीं बल्कि अनगिनत मुश्किलों से लड़ना सिखाया.
आज उन्हीं के नक़्शे कदम पर चल कर,
फ़तेह हासिल कर लिया, और दुनिया की दकियानूसी सोच को
कहीं पीछे मिट्टी में डाल दिया.

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