चार मई 2020 को जब ‘कोरोना’ वायरस के कारण लॉकडाउन के बाद राज्य सरकारों ने तय किया कि मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारे की अपेक्षा मदिरालय खोले जाने चाहिए तो दिल्ली में सुबह से ही लोगों की ज़बरदस्त भीड़ इन शराबखानों की दहलीज़ पर उमड़ आई। लोग पैंतालीस दिन तक बिना शराब पीए जिंदा रह सकते थे किन्तु सरकारें बिना शराब बेचे हाँफने लगी थीं। कवि हरिवंश राय बच्चन की पंक्तियाँ ज़हन में उभरती हैं - “बैर कराते मंदिर-मस्जिद, मेल कराती मधुशाला”। दरअसल सांइस, टेक्नोलॉजी और कोरोना के इस युग में चीजें अब कुछ वर्षों में अप्रासंगिक नहीं होतीं बल्कि लगभग हर-हफ्ते, हर दिन अपना रूप आकार बदल रही है।

जब 22 मार्च को भारत में कोरोना से लड़ाई के लिए तुरंत सम्पूर्ण लॉकडाउन अतिआवश्यक था - जान बचाने को ही प्राथमिकता थी - ‘जान है जहान है’ - का नारा वातावरण में तैर रहा था, दुनिया भर में मोदी सरकार द्वारा भारत में कोरोना वायरस के विरुद्ध उठाए गए सख़्त कदमों की सराहना हो रही थी, किन्तु कुछ दिन बाद ही इसके अगले चरण में, हमारा लक्ष्य बदल गया था। ‘जान भी जहान भी’ और मई आते-आते देश को रैड, ओरेंज, ग्रीन ज़ोन मे बाँट दिया गया है। रेड ज़ोन में स्थित दिल्ली, जैसे शहर में जब 24 मार्च को 29 केस थे तो शहर पर मंडराते मौत के साए के डर से घरों में दुबकने के लिए पुलिस द्वारा डंडे बजाए जा रहे थे जबकि अब जब आसमान पर मंडराते कोरोना के काले गिद्धों की संख्या कई सौ गुणा बढ़ गयी है तब केजरीवाल सरकार द्वारा निर्णय लिया जा रहा है कि ‘हमें कोरोना के साथ रहना सीखना है’ इसलिए घरों में दुबकने की बजाय बाज़ार और दफ़्तरों मे काम करना जरूरी है।

दरअसल चीन के वुहान शहर से निकले इस कोरोना वायरस से उपजी परिस्थितियों ने दुनिया की आर्थिक, सामाजिक, मेडिकल, विज्ञान और तकनीकी विकास की स्थिति को बुरी तरह से झकझोर दिया है। किसी अंधेरी, गहरी गुफा से बाहर निकलने के लिए हाथ-पैर मारती मानव-जाति फिलहाल असहाय नज़र आती है। विश्व के अधिकांश हिस्सों में स्कूल- कॉलेज बंद हैं, फैक्ट्रियों में काम-काज ठप्प है, मजदूर यहाँ-वहाँ फँसे हैं। सारे हवाई जहाज ज़मीदोज़ हैं। रेल, बस, मैट्रो बंद हैं। सायरन बजाती पुलिस और एम्बुलैंस की गाड़ियाँ-सड़कों पर दौड़ रही हैं। मनुष्य की मनुष्य से सामाजिक दूरी (सोशल डिस्टेंसिंग) आज के जीवन का नया सत्य है। सरकारें आर्थिक संकट की भयंकर चुनौतियों से गुज़र रही हैं। युवा अपने भविष्य के सपनों के टूटकर बिखर जाने से हतप्रभ है। इतिहास इसे ‘कोरोना काल’ के रूप में दर्ज कर रहा है। इस कराहते काल-खंड की दुर्दशा पर चीन की भूमिका को लेकर विश्व-स्तर पर अनेक प्रश्न खड़े हो रहे हैं।

यह फिलहाल स्पष्ट नहीं है कि ‘कोरोना वायरस’ चमगादड़ से मनुष्य में आया या लेबोरेट्री से दुर्घटनावश बाहर आया किन्तु यह तय है कि चीन के वुहान में कुख्यात वायरस लेबोरेट्री है और वुहान शहर की जनता पर यह पहले-पहल कहर बनकर टूटा था। नवम्बर के आखिर से इस वायरस की चर्चा वहाँ के वैज्ञानिकों के बीच होने और वहाँ की सरकार द्वारा उसके दबाए जाने की जानकारियाँ सोशल मीडिया पर बिखरी पड़ी हैं। दिसम्बर और जनवरी में वुहान से तड़पती मौत की खबरें आने लगी थीं। फरवरी के आते-आते तो कोरोना के किस्से चीन के पड़ोसी देशों मे दर्ज होने लगे थे। कोरिया, जापान, हाँगकाँग, इटली, स्पेन आदि देशों से आने वाले हवाई यात्रियों से सम्बंधित एडवायजरी दुनिया के एयरपोर्ट पर नज़र आने लगी थी। पूरी दुनिया वुहान शहर की बर्बादी को चीन के हुबई प्रांत तक सीमित मानकर अपनी दिनचर्या में व्यस्त थी। किन्तु चीन ने इस कोरोना वायरस के खतरे - उसके जानलेवा स्वरूप और विश्व अर्थव्यवस्था को तहस-नहस कर देने की उसकी क्षमता को पहचान लिया था। उसने निकट भविष्य की योजना तैयार कर ली थी। अमेरिका की एक खोजी पत्रकारिता से सम्बंधित वेबसाइट (पोलिटो. कॉम) ने डी.एच.एस. (डिपार्टमेंट ऑफ होमलैंड सिक्योरिटी) के हवाले से एक रिपोर्ट की चर्चा की है। डी.एच.एस. सुरक्षा मामलों से जुड़ी एक तरह की खुफिया एजेंसी है। इस रिपोर्ट के अनुसार चीन ने कोरोना महामारी के विश्वव्यापी संभावित खतरे और उसके नुकसान को पहचान लिया था तभी तो जब जापान ओलम्पिक की तैयारी कर रहा था, यूरोप अपनी अर्थव्यवस्था को तेज़ करने की कोशिश में था, भारत-अमेरिका में नमस्ते ट्रम्प चल रहा था, दिल्ली ब्।। आन्दोलन से भड़के दंगे से निपट रही थी, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा आदि देशों की जनता अपने भविष्य के सपने संजोने में लगी थी - चीन ‘कोरोना युद्ध’ से निपटने की तैयारी कर रहा था। दुनिया के देश वुहान त्रासदी के चलते चीन की हर प्रभावी मदद करने को तत्पर थे, चीन ने सभी प्रमुख देशों से पी.पी.ई. (पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्वीपमेंट) इकट्ठे करने शुरु कर दिए थे। पी.पी.ई. में मुख्यतः मेडिकल किट, मास्क, सेनेटाइज़र, दस्ताने, थर्मामीटर, मेडिकल डेªस आदि शामिल थे। अव्वल तो वह इन तमाम चीजों का खुद ही मुख्य उत्पादक और निर्यातक था तो भी सारी दुनिया से मेडिकल टेस्टिंग किट, पी.पी.ई. आयात करना अब उसका सबसे बड़ा एजेंडा था। दुनिया भर की कम्पनियाँ चीन से पी.पी.ई. किट बनाने के व्यावसायिक ऑर्डर ले रही थीं और उन्हें धड़ाधड़ सप्लाई कर रही थीं। रिपोर्ट के अनुसार जनवरी माह में चीन ने सर्जिकल मास्क खरीदने की रफ़्तार 78 प्रतिशत बढ़ा दी थी। सर्जिकल गाउन 72 प्रतिशत अधिक आयात किए जा रहे थे। ग्लब्स 32 प्रतिशत ज्यादा खरीदे जा रहे थे।

इस अर्थ मे एक तरफ तो चीन ने कोरोना से निपटने के लिए तमाम मेडिकल इक्वीपमैंट का आयात अपने यहाँ बढ़ा दिया था और दूसरी ओर चूँकि चीन स्वयं दुनिया को च्च्म् किट सप्लाई करने वाला सबसे बड़ा निर्यातक देश है इसलिए उसने उपरोक्त वस्तुओं का अपने यहाँ से निर्यात एक झटके में घटा दिया था। मास्क 48 प्रतिशत, सर्जिकल गाउन 71 प्रतिशत, ग्लब्स 48 प्रतिशत, वेंटीलेटर 45 प्रतिशत, इक्यूबेटर किट 56 प्रतिशत, थर्मामीटर 53 प्रतिशत, काॅटन तथा स्वाब 58 प्रतिशत तक का निर्यात कम कर दिया था। इस रूप में एक ओर तो मुख्य उत्पादक और निर्यातक चीन ने मेडिकल किट का आयात बढ़ाया और दूसरी ओर निर्यात घटाया। नतीजा सारी दुनिया से पी.पी.ई. का सामान चीन में इकट्ठा हो गया। जब फरवरी के अंत में कोरोना महामारी ने यूरोप, भारत और अमेरिका आदि देशों पर धावा बोला तो इन देशों के पास पी.पी.ई. किट भी उपलब्ध नहीं थे। मौत से जूझते कोरोना मरीजों को दवा देने वाले दुनिया भर के (कोरोना वॉरियर्स) डॉक्टरों के पास स्वयं के बचाव के लिए मास्क, दस्ताने, सेनिटाइज़र जैसी प्राथमिक सामग्री भी नहीं थी। दुनिया चीन की तरफ देख रही थी। बाद में मीडिया में खबरें आती रही हैं कि इटली ने जो मेडिकल सामग्री चीन को निर्यात की थी उसे ही चीन ने वापिस महँगे दामों पर बेचा। चीन ने जो पी.पी.ई. किट दुनिया को सप्लाई की उनमें भी कई देशों ने, उनकी क्वालिटी और कीमत अधिक होने की शिकायतें दर्ज करायी है।

दुनिया क्यों सोई रही ?

डी.एच.एस. की उपरोक्त रिपोर्ट को अमेरिका के सेक्रेट्री ऑफ स्टेट माइक पोम्पियो ने भी एक खबरिया चैनल से बातचीत करते हुए सन्दर्भित किया है। यह घटनाक्रम अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रम्प के उस विचार को आगे बढ़ाता है कि ‘चीन ने सारी दुनिया से सही समय पर कोरोना की भयावहता सम्बंधी जानकारी छुपायी। उसने हर वह कदम उठाया जिससे कोरोना सम्बंधी जानकारी दुनिया को समय पर न दी जा सके।’ पोम्पियो आगे कहते हैं कि ‘चीनी घटिया लेबोरेट्री चलाने के आदी हैं और दुनिया को संक्रमित करने का भी चीन का इतिहास रहा है। डब्ल्यू.एच.ओ. भी चीन के झाँसे में पड़ा रहा और उसने मार्च 11, 2020 को आकर इसे महामारी घोषित किया। सभी जानते हैं कि डब्ल्यू.एच.ओ. पर अमेरिका की पहली गाज, फंड कट के रूप में पहले ही पड़ चुकी है।

उपरोक्त विश्लेषण इस बात की ताकीद करता है कि चीन आदतन अपनी समस्याओं और उपलब्धियों को दुनिया से छुपाता है। वुहान से उपजी कोरोना महामारी को भी उसने दुनिया के बुरे नागरिक की तरह छुपाया और विश्व के अन्य नागरिकों को समय रहते उसके बचाव खोजने हेतू प्रेरित नहीं किया। विश्व स्तर पर महामारी फैलने से रोकने के लिए ना तो स्वयं आवश्यक कदम नहीं उठाए और न ही दुनिया को चेताया। खुद के यहाँ वुहान में महामारी कंट्रोल करने का जश्न मनाया जबकि विश्व के दूसरे देशों में लगभग उसी समय लाशों के अम्बार लगे थे।

मीडिया और सत्ता क्यों चूक गयी ?

चीन से निकली कोरोना महामारी ने दुनिया के देशों में चीन की विश्वसनीयता को संदेह के घेरे में ला दिया है। चीन लोकतंत्र से अलग कम्यूनिस्ट तंत्र से सत्ता चलाने वाला देश है। समस्त विश्व की कम्पनियाँ सस्ती लेबर के चक्कर में अपना सारा उत्पादन चीन में करती हैं। विश्व बिरादरी की नज़र में चीन ने अपनी विश्वसनीयता खोयी है। जापान, ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी, ब्रिटेन, अमेरिका आदि देश चीन के प्रति खुलकर अपनी नाराज़गी जता चुके हैं। कोरोना वायरस ने दुनिया को एक नए कोल्ड वॉर की ओर धकेल दिया है। आगे की आर्थिक दुनिया वैसे नहीं रहने वाली, जैसी पहले थी।

भविष्य की राह

अभी दुनिया में लगभग हर महत्त्वपूर्ण देश में वैक्सीन बनाने की तैयारी युद्ध स्तर पर चल रही है। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी, यू.के. और अमेरिका में यह तेजी से अगले चरण की ओर है। लगभग यह हर रोज किसी वैक्सीन या दवाई से कोरोना के इलाज की खबरें मीडिया में भरी पड़ी हैं। कोरोना वायरस के मानव-शरीर पर हमले के नए-नए अंदाज सामने आ रहे हैं और हर रोज बीते कल से नयी योजनाएँ कोरोना से लड़ने के लिए अमल में लायी जा रही हैं। शुरुआत में कहा गया कि कोरोना मनुष्य से मनुष्य में नहीं फैलता, फिर कहा गया - मास्क केवल वही लगाए जो या तो बीमार हों या मेडिकल-व्यवसाय से जुड़ा हो। आगे कहा गया कि कोरोना का इलाज ‘लॉकडाउन’ है, सोशल डिस्टेंसिंग है, क्वारंटाइन सेंटर है किन्तु सभी के संज्ञान में है कि फिल वक्त हम इन बातों से बहुत आगे निकल आए हैं। अब दिल्ली के मुख्यमन्त्री की ताज़ातरीन सलाह है कि ‘कोरोना के साथ ही जीना है’ - इसलिए मंदिर-मस्जिद, स्कूल, कॉलेज से पहले शराब की दुकानें खोलने की जल्दी है।

अफ़रातफरी और विरोधाभासों से भरे कोरोना-संकट के इस दौर में अभी दुनिया को चीन से अलग अन्य ज्वलंत प्रश्नों पर भी सोचना है अमेरिका जैसा देश नासा, कम्प्यूटर-क्रांति, टेक्नोलॉजी और अपार डॉलर-भंडार का मालिक होकर भी ‘टॉयलेट-पेपर’ के लिए क्यों तरसता है? दुनिया की सर्वश्रेष्ठ मेडिकल व्यवस्था रखने वाले देश का राष्ट्रपति लाशों के अम्बार के आगे क्यों दबा पड़ा है? जून-2020 में (सी.डी.सी. के हवाले से) 3000 व्यक्ति प्रतिदिन मरने की आशंका ने चुनावी दाव-पेंच में फँसे अमेरिकी राष्ट्रपति का अगला कदम क्या चीन के विरुद्ध फौजी कार्यवाही ही होगा? दुनिया की महाशक्ति रूस के विश्व पटल से गायब होने के क्या कारण हैं? उच्चतम टेक्नोलॉजी से लैस दुनिया का खुफिया तंत्र वुहान की दीवारों को क्यों नहीं भेद सका? दुनिया भर के खोजी मीडिया की घटना-घटने से पहले, खबर देने की शक्ति कहाँ चूक गयी? दुनिया के वैज्ञानिक, महामारी से मानव-शरीर की संरचना के बचाव-तंत्र को विकसित करना क्यों भूल गए और सबसे प्रमुख - प्रकृति के साथ सहचर्य की अपेक्षा उसे शत्रु-भाव से हड़प जाने की प्रवृत्ति, मनुष्य में क्यों बलवती होती चली गयी? भारत की सनातन संस्कृति, खान-पान और वातावरण का महामारी-निषेध में क्या योगदान है। अमेरिका - जिसके बारे में सुनते थे कि आदमी की जान की कीमत सर्वोपरि है, वहाँ आदमी की जान से ज्यादा डॉलर की फ़िक्र क्यों है और जिस भारत में आदमी की जान की कोई कीमत नहीं, वहाँ लाखों-लाख लोगों को अपनी जेब से खाना खिलाने वालों की सेवाभावी भीड़ क्यों है?

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