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शांत वादियाँ आज क्यों रो रही हैं,
झीलों की लहरें भी कुछ खो रही हैं।
चिनार की शाख़ें उदास खड़ी हैं,
हर साँझ अब सिसकियों में ढली है।

जहाँ बहती थी अमन की नदी,
अब वहाँ ख़ामोशी का है पहरा।
हर दिल में डर, हर गली में सन्नाटा,
जैसे कोई चुपचाप लुटा सवेरा।

फिरक़ों की दीवारें खड़ी हो गईं,
इंसानियत कब की बिछड़ गई कहीं।
ना बचपन की हँसी, ना माँ की लोरी,
हर आँख में एक धुँधली सी कहानी।

सैनिक भी थके हैं, बंदूकें भी बोझिल,
शांति का सपना कब होगा हासिल?
क्या कोई सुनेगा इन पहाड़ों की पुकार,
क्या लौटेगा फिर वही प्यार भरा संसार?

कश्मीर, तू तो था स्वर्ग धरा पर,
अब क्यों बना है तू प्रश्न हर चर्चा पर?
चलो उठें, फिर जोड़ें दिलों को हम,
लाएं बहार, करें नफ़रत को कम।

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