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कैसे भटक गया तू अपनी राहों से,
मुकम्मल जुनूं तेरा खुदा की पनाहों से ।
कौन सी बीमारी है तेरे जहन में,
कराता रहा इलाज चारागारों से ।
जिंदगी को खेल समझकर तबाह ना कर
नही यकीन तो पूछ ले इसके दावेदारो से ।
किताबों मे जो कभी मिला ही नही,
सिखा दिया वो किस्मत के मारों से।
भरोसा खुद पर किए बिना क्या जी पाएगा,
हौसला बिक जाएगा तेरा नफरत के बाजारों से ।
शहर में भीड़ है फिर भी तनहा है दिल,
किसको अपनी सुनाएगा क्या सुनेगा इन लाचारों से ।
दुशमनी का डर नही तुझको ए ‘वजह’
डर है तो बस दोस्ती के हथयारों से ।
कैसे भटक गया...!
मुकम्मल..!