Image by truthseeker08 from Pixabay 

ज्ञान प्राप्ति सदा समर्पण से होती है! यह हम सब जानते हैं । किंतु समर्पण का वास्तविक अर्थ क्या है?

मनुष्य का मन सदा ही ज्ञान प्राप्ति में विभिन्न बाधाओं को उत्पन्न करता है । कभी विद्यार्थी से ईर्ष्या हो जाती है, कभी पढ़ाई हुए पाठों पर संदेह जन्मता है और कभी गुरु द्वारा दिया दंड हुआ मन को अहंकार से भर देता है...... ना जाने कैसे-कैसे विचार मन को भटकते हैं। और मंनकी इसी अयोग्य स्तिथि के कारण हम ज्ञान प्राप्त नहीं कर पाते।

मनकी योग्य स्थिति केवल समर्पण से निर्मित होती है। समर्पण मनुष्य के अहंकार का नाश करता है। ईर्ष्या, महत्वकांछा आदि भावनाओं से दूर कर हृदय को शांत करता है और मन को एकाग्र करता है। वास्तव में ईश्वर की श्रृष्टि में ना ज्ञान की मर्यादा है ना ज्ञानियों की..... गुरु दत्तात्रेय ने तो गाय और श्वान से भी ज्ञान प्राप्त कर लिया था।

अर्थात विषय ब्रह्मज्ञान का हो या जीवन के ज्ञान का या गुरुकुल में प्राप्त होने वाले ज्ञान का..... उस ज्ञान की प्राप्ति के लिए गुरु से अधिक महत्वपूर्ण हैं गुरु के प्रति हमारा समर्पण.....!

मनुष्य का स्वभाव है कि वह स्वयं को, अपने परिवार को, अपनी संतानों को, अधिकतम सुख प्राप्त हो ऐसी इच्छा रखता है। इसी कारण से हम श्रम और कष्ट से अंतर रखते हैं, विश्राम और सुविधाओं को बढ़ाने का प्रयत्न करते हैं।

स्वयं अपने जीवन का विचार कीजिए.......

क्या यह सत्य नहीं कि हम अपनी संतानों के लिए सदा ही विश्राम और सुविधाओं का आयोजन करते हैं । पर क्या कभी सोचा है? केवल विश्राम से क्या लाभ! केवल सुख और सुविधा जिन्हे प्राप्त हो उनका जीवन कैसा होगा? शरीर जब श्रम करता है तो अधिक स्वस्थ बनता है । बुद्धि भी जब कठिन परिस्थितियों का सामना करती है तो अधिक तेजस्वी बनती है। ये हम सब का अनुभव है, पर हम शायद ये भूल जाते हैं की मन और आत्मा को जब कठिनाइयां प्राप्त होती हैं, तब वह भी अधिक बलवान होती हैं।

अर्थात जब हम अपनी संतानों को श्रम और दुख से दूर रखने का प्रयास करते हैं, क्या वास्तव में उनके सुख का मार्ग बंद नहीं कर देते?

जीवन में आने वाले संघर्षों के लिए जब मनुष्य खुद को योग्य नहीं मानता, जब उसे अपने ही बल पर विश्वास नहीं रहता, तब वह अपने सद्गुणों को त्याग कर दुर्गुणों को अपनाता है ।

जिससे मनुष्य के जीवन में दुर्जनता तब ही जन्म लेती है जब उसके अंदर में आप भी विश्वास नहीं होता।

आत्मविश्वास ही अच्छाई को धारण करता है।

ये आत्मविश्वास है क्या?

जब मनुष्य यह मानता है कि जीवन का संघर्ष उसे दुर्बल बनाता है, तो उसे अपने ऊपर विश्वास नहीं रहता, वह संघर्ष से पार जाने के बदले संघर्ष से छूटने का प्रयास करने लगता है। किंतु वह जब यह सोचता है कि यह सुनकर किसी शक्तिशाली बना दे, जैसे व्यायाम करने से देह की शक्ति बढ़ती है। तो प्रत्येक संघर्ष के साथ उसका उत्साह बढ़ता है।

अर्थात आत्मविश्वास कुछ भी नहीं मन की स्थिति है! जीवन को देखने का दृष्टिकोण मात्र है! और जीवन का दृष्टिकोण तो मनुष्य के अपने बस में होता है ।

मनुष्य उसी को प्रेम कर पाता है जो उसकी आपच्छाएं पूर्ण करता है

और अपेक्षाओं की तो नियति है भंग होना।

क्योंकि अपेक्षा उसके मस्तिष्क में जन्म लेती है और कोई उसकी अपेक्षाओं के बारे में जान ही नहीं पाता

पूर्ण करने की प्रमाणित इच्छा हो फिर भी कोई व्यक्ति किसी की इच्छाओं को पूर्ण नहीं कर पाता। और वहां से शुरू होता है संघर्ष....

सारे संबंध संघर्ष में परिवर्तित हो जाते हैं,

पर मनुष्य अपेक्षा को संबंध का आधार ना बनाएं और स्वीकार करें केवल संबंध का आधार तुम क्या यह जीवन स्वयं ही सुख और शांति से नहीं भर जाएगा

.    .    .

Discus