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वो किसी और का था मुझसे वफ़ा करता भी कैसे
चेहरे पे बिना घुंघट के गली से गुजरता भी कैसे ।

जहर था तेरी ज़फा का थाली में
गले से निवाला उतरता भी कैसे ।

एक आखिरी ख्वाहिश पूरी होने का इंतजार था
उससे सवालात किए बिना मरता भी कैसे ।

मेरी आंखों में खुदको देखके इतराता था वो शख्स
सिर्फ आइने को देखकर खुद संवरता भी कैसे ।

उसने बांध रखा था खुद को सपनो के धागों से
मेरी सादी हसरतों का दामन वो भरता भी कैसे ।

बेड़ियां थी रस्मों की उसके पैरों में हरदम
मेरी ओर रुख करके वो बढ़ता भी कैसे

किसी और की नज़्म पसंद आ गई थी उसे
मेरे लफ्जों का मतलब वो समझता भी कैसे ।

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