नन्हे नन्हे कदमों की आहट थी,
छोटी छोटी नन्ही सी कलाइयों में,
बड़े बड़े हथियारों से भरा हुआ बैग,
और वही दूसरी ओर,
चाय की तपरी पर भी कुछ बच्चे थे,
क्या हो गया लोगों को,
जिनके हाथों से मिट्टी की सुगंध आनी चाहिए,
पेंसिल कॉपी किताबों से भरा हुआ बसता होना चाहिए,
गलियों में उनके हंसने खेलने की,
चहकती तितलियों जैसी खिलखिलाहट हो,
उन बच्चों के चेहरों पर मासूमीयत थी,
हाथों में काम का वजन था,
पैरों में मानो जिम्मेदारी की बंदिशें थी,
क्या यह है भावी पीढ़ी और देश का गौरव?
पूछता है सवाल मेरा मन,
क्या इंसानियत मर चुकी है दिलों से,
या इंसान के शरीर में दिल ही नहीं है,
जिन बच्चों की आंखों में सपने होने चाहिए,
आज उनकी आंखों से टपकते आंसू हैं,
जिनके हाथों में खेल खिलोने होने चाहिए,
आज उनके हाथों में औजार है,
जिनके पैर खेल खेल के मिट्टी से सने होने चाहिए,
आज उनके पैरों में बेड़ियां है,
कहता है समाज बच्चे देश का भविष्य है,
पर देख उनको दुकानों पर,
लगता देश का भविष्य डूबा हुआ है।