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उलझी हुई ख्यालों में वो रहती थी,
हर वक्त उसके मन में एक शिकायत रहती थी,
क्या है मेरी पहचान किस नाम से मेरा अस्तित्व है,
मैं बचपन में पहचानी जाती पिता के नाम से,
और शादी के बाद पति के नाम से जानी जाती हूं,
मां कहती स्त्री का अस्तित्व नहीं होता,
वो तो पति और पिता के नाम से जानी जाती,
वही उसकी असली पहचान होती,
आखिर मेरी पहचान क्या है,
कि मैं किसी की बेटी हूं किसी की बहू हूं,
पर मैं आखिर हूं कौन,
एक लड़की... जिसकी भी कुछ ख्वाहिश है,
उसका भी नाम है वजूद है,
क्यों उसको खुद से ही जुदा कर दिया?
क्यों उसकी पहचान को दबा दिया?
स्त्री कोई सामान नहीं किसी के साथ जुड़ जाए,
उसका भी सम्मान है उसका भी अस्तित्व है,
उसके भी कुछ सपने हैं कुछ अरमान है,
उसका खुद से बातें करना खुद को जानने का अधिकार है,
अपनी जिंदगी को जीने का अधिकार है,
आखिर कब तक टुकडो में बंटती रहेगी,
अरे कुछ पल उसको अपनी पहचान से मिलने दो,
उसका भी एक नाम है उससे उसको पुकारो,
उसका भी वजूद है उसको जानने की कोशिश करो,
बेशक किसी की बेटी हूं बहू हूं,
पर हूं तो मैं भी इंसान मेरा भी नाम है पहचान है,
कि मैं एक लड़की हूं मुझमें भी जान है।

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