नहीं करती शोर अभी थोड़ी गुमशुम है,
मेरी कलम तो निर्मल जल की भांति,
उसमें कहा जोश है,
बस देख समाज की बुराइयों को,
लिखना चाहती उस ओर,
जहां शासन आंखों मैं पट्टी बांध बैठा,
हो रहा जिस कारण हर जगह अन्याय है,
नहीं करती शोर अभी थोड़ी गुमशुम है,
मेरी कलम तो शांत पानी का झरना है,
उसमें कहां आता अभी उफान है,
बस कभी कभी मन मैं उठते विचार,
उसको लिखने की देते प्रेरणा है,
और लिख कर देती अपनी भावना व्यक्त,
उसमें क्या मेरी कलम का दोष है,
नहीं करती शोर अभी थोड़ी गुमशुम है,
मेरी कलम तो धुंधली धुंध जैसी,
जिसमें कहां दिखती प्रकाश की किरण है,
वो तो बस करती रहती प्रयास,
कभी तो पढेगा उसके विचारों को ये समाज,
कभी तो उसकी कलम लाएगी क्रांति,
कभी तो जागरूक होगा ये समाज,
नहीं करती शोर अभी थोड़ी गुमशुम है,
मेरी कलम तो शांत समुद्र तट का किनारा है,
जिस पर चलना होता बड़ा आसान है,
पर देख अन्याय नहीं रूकती उसकी कलम,
क्योंकि उसके अंदर उमड़ता रहता विचारों का झरना है,
जो कभी तो उफान में बदलेगा,
कभी तो शांत पानी का झरना तूफान लाएगा,
इस प्रयास में उसकी कलम नहीं रूकती,
और लिखती रहती अपने मन की व्यथा।

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