यह कविता है एक दृश्य का वर्णन है, जब पांडवों और कौरवों में चौशर का खेल खेला जा रहा था, 
और युधिष्ठिर जो धर्मराज और स्थिर बुद्धि का इंसान माना जाता था,
आज अपने जीवनसंगिनी द्रौपदी को दांव पे लगा के हार चुका था। 

दुर्योधन द्रौपदी के किए गए अपमान को भुला नहीं था, 
और क्योंकि द्रौपदी कौरवों की हो चुकी थी, 
तो दुर्योधन ने दुशासन को हुकुम दिया की द्रौपदी को नग्न कर दुर्योधन के जांग पे
बैठाएं। 

अब दुशाहन द्रौपदी के बालो से खींच के घसीट के बीच राज्यसभा में लाता है
और द्रौपदी कैसे सब वीरों से विनती करती है और अंतिम में श्री कृष्ण के आशीर्वाद
से चीरहरण रुकता है और फिर द्रौपदी संकल्प करती है को वो कौरवों के रक्त से
अपने बाल धोएगी ।

कुछ गलती लगे मेरे कविता में तो निसंकोच टिप्पणी दीजिएगा क्योंकि हो सकता हु
में गलत हूं,
 एक छोटी सी कोशिश आपके सामने प्रस्तुत है।

कैसे जड़ खड़े वीरों की सभा, खुली आंखों से देखे मेरी दशा,
मेरी अवेलना पे मौन रहना , माफी मांगती हाथ जोड़ती द्रौपदी को निर्वस्त्र होना,
दुशासन छीन लाया हाथ लगाया मेरे कलाइयों को,
कुपित मेरे आत्मा कहा है 
परमात्मा,
कैसे मेरे परमेश्वर पांडव जो जुआ खेल मुझे हारे, यह दुर्योधन अट्टहास करता
पीड़ा मुझे हो रही एक औरत की इज्जत लूट रही , कैसी मजबूरी वीरों को रोक रही,
आज तुम्हारे अंग को काट रहे, नग्न करने को मुझे देखो कौरव कैसे उत्सव मना रहे,
मेरे हाथ जोड़ने और चीखे क्यों आज बाधित है,
हथियार लिया और ताकतवर भुजाए 
बेबस है,
मेरे करुणा और इज्जत का मोल अब कैसे बचेगा,
क्या इसी दिन के लिए पांडवों ने
मुझे विवाह रचाया था।

है मेरे प्रिय परमेश्वर , नाम अर्जुन और विश्व कीर्तिमान धनुर्धर,
कैसे तुम्हारे तरकश में अन्याय देख वाण खामोश है,
मुझे स्वयंभर में जीतना वाला 
आज खामोश है,
लज्जित है तुम्हारी ख्याति और वीरता,
जो तुम्हारे सामने दुश्मन तुम्हारे संगिनी को 
घूरता,
शर्म मुझे अब नही क्योंकि में अब वस्तु ही,
मुख तेरा नीच देख अब में और लज्जित 
हूं।

है धर्मराज ,स्थिरबुद्धि आज कैसी कायाकल्प हो गई,
आज एक ज्ञानी व्यक्ति से 
औरत कैसे अपनामित हो गई ,
जो शास्त्र और शस्त्र दोनो में निपुणता बताते थे,
आज उनका सर क्यों सबके सामने 
झुकाते है,
क्या मेरी मोल एक वस्तु के समान ही है,
एक विवाह का मोल बस क्या बिस्तर पर 
है,
इज्जत मेरी तब गई जब आपने मुझे दांव लगाया,
खुद की ख्याति को के अपना 
इतिहास भी कलंकित किया ।

है 100 हाथियों का बल लिए, आज तूफान की जरूरत पे क्यों मोन खड़ा है,
तू चाहे तो पृथ्वी क्या ब्रम्हांड भी तेरे आगे धुआं है,
पर आज कैसे पत्थर दिल पे भारी 
है,
पर्वतों को उखारने वाला और राक्षसों से लड़ने वाला, आज एक मूक बालक सा क्यों
खड़ा है, धिक्कार है ऐसे वीरता जो अभी अस्त है,
में दुर्भागायनी हु कोई भाग्यवादी नही , मोल नही मेरा इसलिए तुमने जुए में खेला।

अचानक से इतना देख के विधुर क्रोधित हो गया और कहा
है भीष्म पितामह है द्रोणाचार्य किन आंखों से आप देख रहे यह पाप,
सर्वनाश को बढ़ता यह दुष्ट दुर्योधन , क्यों मजबूर आप क्या है ऐसा बंधन,
गंगापुत्र आज मेली से लग रही , स्वच्छ और न्याय का पिता आज भ्रमित क्यों है,
द्रोणाचार्य जो सीख देते वीरता का , आज क्यों शीश झुकाए बेबस है ,
ऐसी सभा में एक वधु चीरहरण हो रही , गूंगे बने और धार हथियारों की कम है।

है वयोवृद्ध भीष्म पितामह, वधु में आपके पूरे भरतवंश की,
कैसे आपके तपोबल के आगे इज्जत मूर्छित है,
युधिष्ठिर को मुझे दाव पे लगाने का 
हक कैसे है,
विकर्ण सुन यह बातें उठ खड़ा हुआ, बोला यह गलत है देवी द्रोपदी सही है,
पर कर्ण उसे अबोध बालक संबोधित कर,
उसको बैठा के दुर्योधन का दुशाहश बढ़ा 
दिया।

देख यह पाप विधुर क्रोधित राज्यसभा छोड़ चला गया,
दुर्योधन के इशारे पे दुशासन 
चीरहरण को बढ़ गया,
द्रोपदी वेदना और करुणा से सब को पुकारी,
हार के रो के फिर भी कोई वीर ना आए 
आगे,
अंत में आंखें बंद कर अपने देवीनंदन भाई श्री हरी कृष्ण को पुकारा,
तत्काल छोड़ अपने सारे कर्म आए अधृस्य रूप में देवकीनंदन,
खींचता रहा दुशासन सूर्य उदय से सूर्य अस्त तक,
थक के चूड और हैरत सब द्रौपदी 
का भक्ति देख।

दुर्योधन बोला ऐ द्रोपदी तुम मेरी दासी मेरे जांग पे बैठो,
क्रोधित भीष्म ने चीत्कार भरा
में वचन खाता हूं इस सभासद में दुशासन के सीना चीड़ उसका खून पिएगा,
और दुर्योधन तेरे जांग तोड़ तुझे मृत्यु के नींद सुलायेगा।

दृत्रराष्ट्र ने बोला वधु हमें माफ करो, मांगो अपने पिता से दो वर तो,
एक वर मांगा द्रौपदी ने सभी पांडवों को दासता के मुक्ति हो,
सारे दिव्यशास्त्र और रथ सब पांडवों को अभी वापस हो ,
दृस्त्रास्त ने तथास्तु कह वर पूरा किया ,दुर्योधन चिंतित हुआ।

यह कविता तो चीरहरण, बड़े बड़े वीर आज के दुनिया में भी मूक बैठे है,
वो चीरहरण नही हमारे इतिहास का एक कलंक है,
औरतों के सम्मान में आज भी 
प्रश्न क्यूं है।

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