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मेरी किस्मत की मेहरबानियां है ,
जो एक चाँद भी आज अकेला मुस्कुराया है ,
जन्नतों की तलाश में भटकता हूँ में ,
वह आराम हमने शहीद होके पाया है ,
दास्ताँ-इ-बयां लिखता हूँ तो कलम से लहू बहता है ,
कविता अधूरी रह जाती है ,
पर आँशु समुन्दर सा बह जाता है ,
कैसे कोई हैवान हो सकता है ,
आबरू लूट औरत का खुद को इंसान कैसे कह सकता है ,
ताजूब है ऐसे ज़िन्दगी जो एक जिलत है ,
खुद को मर्द कहते अभी भी क्यों चीख बंद कमरों से है।

हाहाकार , लूटमार और बलात्कार यह सभी दोज़क के दरवाज़े है ,
मुर्दो के सरकार में चुप्पी साधे और सच आसमान को तकते है ,
ईमानदारी की बस्ती में कुछ आग सा लग गया है ,
बेईमानो के शहर में एक महँगी शराब पिया गया है।

काफी काला आसमान है ,
भला कैसे कोई इस बारिश को रोक पाए ,
टूटे सपने और कटघरे में खड़े माँ को कोई कैसे चुप करा पाए।

इलज़ाम लगा है कपड़े छोटे है ,
फिर उम्र की गलती क्या थी ,
वह तो बच्ची थी ,
सच सामने था फिर क्यों सब की चुप्पी थी।

सलवार , साडी सब पहन के काम किया,
 मर्दो के नज़र ने फिर भी खूब अपमान किया ,
मुँह तकिये में दबाये चुपचाप रोती रही
सब सह के माँ-बाप की दवाई लाती रही।

ज़रा सी बात हुई , लोगो में गुस्सा फुट गया ,
जलती हुई नाउम्मीद मोमबत्ती से फिर एक मोर्चा निकल गया ,
कैसे -कैसे हो गए आज़ादी के बाद हमारे देश के नौजवान ,
बिक रहे , नशा कर रहे , अब मर के रोये हमारे शहीदों के आत्म-सम्मान।

छाले हो गए मेहनत करके,
फिर भी एक आँशु न रोये हमारे किसान ,
लग गया हृदय को घात , जब कोई न दे इन्हे अनाजों के उचित दाम ,
न खबर पूछे , न पूछे हाल ,
खुद फँसी लगाए तब क्यों सब उठाये सवाल .
बेरोज़गारी भूल गए सब अब मुद्दा रंग-मंच है ,
मीडिया की बातें और हाथो में जिओ नेटवर्क है ,
कोई मदद को आगे न आये ,
पर दुख-दर्द सोशल-मीडिया है ,
समझधारी तो है पर नाचता हुआ ,
अब तो बेशर्मी की हद्द है।

में चुप हूँ , डरा हुआ हूँ ,
सच कहूँ में एक कायर इंसान हूँ ,
क्या करू नामर्दो की भीड़ की आदत जो है ,
अपने -अपने परिवार है ,
भला दूसरे की किसको पड़ी है।

एक मंच पे खड़े सभी पढ़ रहे इश्क़ की शायरी ,
बदनाम कर रहे इज़्ज़त जो है एक नारी ,
कहा थे जब लूट रहा था इज़्ज़त और देश ,
चुप्पी बैठ सब ओढ़े शराफत का भेष।

नोच रहे कुछ भेड़िया जिसको हम कहते है नेता ,
झूठी चीज़े जो दिखाए उसे दिखाए उसे कहते है मीडिया ,
जो भटकाए नोजवानो को वह है सोशल मीडिया ,
किसे पड़ी है सच्चाई की गाड़ी तो दिखावे से चली है ,
बेईमानो का बस्ती है और ईमानदारी को फाँसी लगी है।

पढ़ते हो शायरी और कविता एक बेवफाई का ,
बदनाम करते हो एक नारी के इज़्ज़त-मान का ,
तालियां बजती है इश्क़ की शायरिओ पे ,
चुप बैठ हो क्यों अब एक नारी के बलात्कार पे ,
क्या हुआ वक़्त नहीं है इश्क़ से ,
भला नामर्दो को क्या समझा में आएगा कीमत उसके दर्द और 
अश्क का ,
जागना पढ़ेगा और इन्साफ दिलाना पड़ेगा ,
 हां आज के बाद एक माँ-बाप को कटघरे में इंतज़ार 
नहीं करना होगा.

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