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नवनिर्माण की और
कदम बढे कुछ ऐसे जोशीले , एक नवनिर्माण की ऐसी नीव रखे
1) प्रथम सर्ग ( ग़ुलामी से आज़ादी का सफर )
जो कट गए सर वेदना से चिल्लाते,
स्मारकों से अमर बलिदानी रोदान करते,
विचलित वो देख हिंदुस्तान को देख घबराते,
भारत मां के फटे साड़ी को देख खुद को कोसते।

व्याकुल में कलम से लिखते थरथराता,
स्याही नही जैसे कोई में रक्त से कविता लिखता,
आवाज़ कानों में मुझसे एक गान लिखने को कहती,
जो सुप्त है विलास ने उनके कानों में आह्वान करने को कहती।

माटी के वीर सपूत कर्मभूमि पे मिट गए ,
हँसते -हँसते बिन वेदना सूली चढ़ गए ,
कैसे कलम से लिखते शोर ऐसे कोई शेर की गर्जन ,
भगत सिंह ऐसे ही कोई उसे नहीं कहते।

कैसे यह मूर्छित विलास में यह नौजवान ,
नशो में जोश नहीं आँख में ज्वाला नहीं ,
छाती पे बाल नहीं जिस्म पे प्राण नहीं ,
अब जो इतिहास बने उसमे में कोई अभिमान नहीं।

महज एक चिंगारी से जो मशाल जले ,
पल भर में जो ग़ुलामी फूँक गए ,
आज भी रख्त के छींटे जो छोर गए ,
केसरिया एक करने में घर-बार जो भूल गए।

शत -शत नमन ऐसे वीरो को ,
जो चढ़ गए सूली बिन सोचे गर्दन के मोल ,
रंग दे बसंती तो सुना होगा ,
पर तुमने भगत सिंह के माँ को रोते नहीं देखा होगा।

अब भी दाग लगे उन लहू के,
अब भी चीखती जलियांवाला बाग़ से लाशें ,
चुन नहीं पाए न देख पाए परिजन वह लाशें ,
मूक थे जुबां और शांत बैठे थे सारे नारे।

याद है तुम्हे वह साल १८५७ की जब चिंगारी फुखी ,
मंगल पांडेय की वह आहुति , देश भर में एक आग उठी ,
रणभूमि अंग्रेज़ो के लहू से रंग दिया उस झांसी के तलवार में ,
तिलक लग गयी थी उस आज़ादी के राह पे।

मशाल उठी ऐसी की जय हिन्द की एक लहर चली ,
रजकण जो नौजवान थे , उनकी हृदये में आग लगी ,
न शीट लगी न ताप , जहा देखो बस इन्क़िलाब इन्क़िलाब ,
कितने ने मोर्चा निकला लड़ने के लिए वीरो का समूह बना।

न विलास की भूख , न जवानी के ऐशो आराम ,
मूँछ पे ताव रखते , पगड़ी वह हमेसा केसरिया लगते ,
एक तरफ अहिँसा चली , तो एक तरफ़ युद्ध की रणरीति बना ,
मार के अंग्रेज़ ख़ुशी ख़ुशी सिंह , राज गुरु , सहदेव सूली चढ़े।

अपने भारतीय सेना का गठन हुआ , सुभाष च्नद्र बोश का आगमन हुआ ,
सिपाही लग गए तैयारी में , एक जोश बीन जाने अपने गर्दन का मोल ,
न पूछा इन्होने क्या है कीमत , बस जाने आज़ादी पाना एक लक्ष्य ,
क्या वह पल था , जब हर कोई कुर्बानी को तैयार था।

तब गाँधी का युग आया , अहिंसा का एक दौर आया ,
लाठी और चश्मे से जिसने एक सुनहरा तौफा दिया ,
कितने सत्याग्रह तो कितने विद्रोह के नारे लगाए ,
जिस और वह जाते उस और एक अलग भीड़ चली। 

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