यह कथन केवल एक विचार नहीं है, बल्कि हमारे लोकतांत्रिक ढांचे का मूल आधार है। कानून ही वह माध्यम है, जिसके द्वारा किसी भी समाज में व्यवस्था, अनुशासन और न्याय सुनिश्चित किया जाता है। विशेष रूप से भारत जैसे विशाल और विविधता से भरे देश में, जहां अनेक धर्म, जातियाँ, भाषाएँ और सांस्कृतिक परंपराएँ एक साथ अस्तित्व में हैं, वहां कानून की भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो जाती है।
यह केवल अपराधों को रोकने का उपकरण नहीं है, बल्कि नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करने, समान अवसर प्रदान करने और सामाजिक असमानताओं को कम करने का माध्यम भी है। जब कानून सबके लिए समान रूप से लागू होता है, तो यह समाज में विश्वास और सुरक्षा की भावना को जन्म देता है।
कानून के बिना समाज अराजकता की ओर बढ़ सकता है, जहां शक्तिशाली व्यक्ति कमजोरों का शोषण कर सकते हैं। इसलिए, एक न्यायपूर्ण, समतामूलक और सशक्त राष्ट्र के निर्माण में कानून की केंद्रीय भूमिका होती है। कानूनों का सम्मान और पालन केवल सरकार की जिम्मेदारी नहीं, बल्कि हर नागरिक का नैतिक कर्तव्य भी है। एक सजग नागरिक ही मजबूत लोकतंत्र की नींव रखता है।
भारत में महिलाओं को लंबे समय तक सामाजिक, मानसिक और शारीरिक उत्पीड़न का सामना करना पड़ा है। दहेज, घरेलू हिंसा, यौन उत्पीड़न, और कार्यस्थल पर असुरक्षा – ये सभी समस्याएँ आज भी महिलाओं के जीवन का हिस्सा बनी हुई हैं। महिलाओं को अक्सर परंपराओं, रीति-रिवाजों और सामाजिक बंधनों के कारण चुप रहने के लिए मजबूर किया जाता है। इसी पृष्ठभूमि में महिलाओं की सुरक्षा के लिए विशेष कानूनों का निर्माण किया गया। इन कानूनों का उद्देश्य महिलाओं को सशक्त बनाना, उन्हें आत्मनिर्भर बनाना और उनके सम्मान की रक्षा करना था, ताकि वे समाज में बराबरी का दर्जा प्राप्त कर सकें।
घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005, एक ऐतिहासिक कदम था जो न केवल शारीरिक बल्कि मानसिक, यौन, भावनात्मक और आर्थिक हिंसा को भी घरेलू हिंसा की परिभाषा में सम्मिलित करता है। इस कानून के तहत महिलाएं पुलिस या न्यायालय से संरक्षण आदेश, राहत आदेश, और रहने की व्यवस्था जैसे अधिकार प्राप्त कर सकती हैं।
केवल पत्नी ही नहीं, बल्कि सास, बहन, मां, या किसी भी महिला को इस कानून के तहत संरक्षण मिल सकता है।
हालांकि, हाल के वर्षों में यह देखा गया है कि कुछ मामलों में महिलाएं इस कानून का दुरुपयोग कर रही हैं। झूठे आरोपों के तहत पुरुषों को फंसाया जाता है, जिससे वे मानसिक और आर्थिक रूप से टूट जाते हैं। कई मामलों में यह पाया गया है कि विवाहित जीवन की अनबन को ‘घरेलू हिंसा’ का रूप देकर पुरुषों और उनके परिवार पर कानूनी कार्यवाही की जाती है।
इस अधिनियम का उद्देश्य कार्यस्थल को महिलाओं के लिए सुरक्षित बनाना है। इसके अंतर्गत नियोक्ताओं को एक आंतरिक शिकायत समिति (ICC) गठित करने की जिम्मेदारी दी गई है।
यह अधिनियम केवल महिलाओं के लिए लागू है। यदि कोई पुरुष कार्यस्थल पर उत्पीड़न का शिकार होता है, तो उसके लिए कोई स्पष्ट कानूनी प्रावधान नहीं है। ऐसे में यह प्रश्न उठता है कि क्या एक समान समाज में कानूनी सुरक्षा केवल एक लिंग तक सीमित होनी चाहिए?
भारत में दहेज प्रथा लंबे समय तक महिलाओं के शोषण का कारण रही है। इस कानून के तहत दहेज लेना और देना दोनों अपराध हैं।
कई बार यह देखा गया है कि महिलाओं के परिवार द्वारा झूठे आरोप लगाकर दहेज के नाम पर पुरुषों को फंसाया जाता है। ऐसे मामलों में पुलिस बिना जांच किए गिरफ्तारी कर लेती है, जिससे निर्दोष पुरुषों की सामाजिक छवि धूमिल हो जाती है।
इस धारा के अंतर्गत पति या ससुराल के किसी सदस्य द्वारा महिला पर की गई क्रूरता को अपराध माना जाता है। इसमें गैर-जमानती और संज्ञेय अपराध की श्रेणी आती है।
सुप्रीम कोर्ट ने कई बार कहा है कि इस धारा का दुरुपयोग बढ़ता जा रहा है। कई महिलाएं इसे 'हथियार' की तरह इस्तेमाल करती हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इस पर दिशा-निर्देश जारी करते हुए कहा कि गिरफ्तार करने से पहले प्रारंभिक जांच आवश्यक है।
यह कानून महिलाओं को यौन अपराधों से सुरक्षा देने के लिए बनाया गया है। इसमें सहमति के महत्व को विशेष रूप से स्वीकार किया गया है। यह सुनिश्चित करता है कि किसी भी प्रकार की जबरदस्ती, शारीरिक या मानसिक शोषण को सख्ती से दंडित किया जाए। यह महिलाओं को न्याय दिलाने का सशक्त माध्यम है।
आज कई पुरुषों के खिलाफ झूठे बलात्कार के मामले दर्ज किए जा रहे हैं, खासकर तब जब कोई संबंध समाप्त होता है या किसी व्यक्तिगत कारण से प्रतिशोध लिया जाता है। एक बार जब आरोपी का नाम उजागर होता है, तो समाज उसे अपराधी की तरह देखता है, भले ही वह निर्दोष हो।
यह अधिनियम कार्यरत महिलाओं को गर्भावस्था के दौरान 26 सप्ताह की सवेतन छुट्टी प्रदान करता है। इसका उद्देश्य महिलाओं को करियर और मातृत्व के बीच संतुलन देना है।
अब समय आ गया है कि ‘पितृत्व अवकाश’ (Paternity Leave) जैसे विचारों को भी कानूनी रूप दिया जाए, ताकि पुरुष भी पिता बनने की जिम्मेदारी को समान रूप से निभा सकें।
इस कानून का उद्देश्य मीडिया और विज्ञापन में महिलाओं की गरिमा को बनाए रखना है। यदि किसी भी माध्यम से महिला की छवि को अपमानित किया जाता है, तो वह दंडनीय है।
आज भारत में पुरुषों को घरेलू हिंसा, झूठे आरोपों और मानसिक उत्पीड़न से बचाने के लिए कोई विशेष कानून नहीं है। कानूनों का झुकाव यदि केवल एक पक्ष की ओर हो, तो दूसरे पक्ष के अधिकारों की अनदेखी होती है।
NCRB (2022) के अनुसार, हर साल हज़ारों पुरुष आत्महत्या करते हैं, जिनमें से कई घरेलू विवाद या झूठे केसों के कारण होते हैं।
कई पुरुष कार्यस्थल पर उत्पीड़न के शिकार होते हैं, लेकिन उनके लिए कोई ‘ICC’ जैसी संस्था नहीं होती।
कोई भी कानून तभी न्यायपूर्ण कहलाता है, जब वह हर नागरिक को समान अवसर और संरक्षण प्रदान करे। आज आवश्यकता इस बात की है कि लिंग के आधार पर नहीं, बल्कि स्थिति और साक्ष्य के आधार पर न्याय हो।
कानून महिलाओं की सुरक्षा के लिए हैं – और होने भी चाहिए। लेकिन इनका समान रूप से निष्पक्ष उपयोग आवश्यक है। यदि पुरुष किसी गलत आरोप का शिकार हो, तो उसे भी वैसी ही कानूनी राहत और समाजिक सहानुभूति मिलनी चाहिए जैसी एक महिला को मिलती है।
महिलाओं की सुरक्षा के लिए बनाए गए कानून हमारी सामाजिक उन्नति के प्रतीक हैं। लेकिन यदि उनका दुरुपयोग करके पुरुषों को उत्पीड़ित किया जाए, तो यही कानून अन्याय का रूप ले लेते हैं। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में, कानूनों को इस प्रकार संतुलित करना होगा कि हर व्यक्ति – चाहे वह महिला हो या पुरुष – खुद को सुरक्षित और सम्मानित महसूस कर सके।
महिलाओं की सुरक्षा हेतु बनाए गए कानून जरूरी हैं, लेकिन उनके दुरुपयोग को रोकने की प्रणाली भी जरूरी है।
पुरुषों को घरेलू हिंसा और कार्यस्थल उत्पीड़न से बचाने के लिए स्वतंत्र कानूनी प्रावधान होने चाहिए।
कानून का मूल उद्देश्य है न्याय, जो लिंग आधारित न होकर परिस्थिति आधारित होना चाहिए।
एक न्यायपूर्ण और सशक्त समाज की नींव वही होती है, जहां कानून सबके लिए समान रूप से काम करें – चाहे वह महिला हो या पुरुष। भारत में महिलाओं की सुरक्षा के लिए बनाए गए विशेष कानून निश्चित रूप से समय की आवश्यकता थे और उन्होंने अनेक महिलाओं को न्याय दिलाने में मदद की है। लेकिन समय के साथ इन कानूनों के कुछ दुरुपयोग के उदाहरण भी सामने आए हैं, जिससे पुरुषों को मानसिक, सामाजिक और कानूनी रूप से भारी नुकसान उठाना पड़ा है। इसलिए अब आवश्यकता है एक संतुलित, लिंग-निरपेक्ष और साक्ष्य-आधारित कानूनी ढांचे की, जो सभी नागरिकों को समान अधिकार, सम्मान और सुरक्षा प्रदान करे। कानून का उद्देश्य किसी एक वर्ग को शक्ति देना नहीं, बल्कि पूरे समाज में संतुलन और न्याय स्थापित करना होना चाहिए।
क्या आप मानते हैं कि वर्तमान कानूनों में पुरुषों की सुरक्षा को नजरअंदाज किया गया है?
क्या झूठे केसों के लिए अलग से सख्त सज़ा का प्रावधान होना चाहिए?
क्या ‘पितृत्व अवकाश’ को भी कानूनी रूप से अनिवार्य किया जाना चाहिए?
क्या अब समय आ गया है कि कानून लिंग नहीं, परिस्थिति देखकर निर्णय लें?