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एक औरत ही औरत को क्यों नहीं समझ पाती....
एक औरत ही औरत को क्यों समझ नहीं पाती है
क्यों जब सास बनती है तो वो एक माँ नही बन पाती है
और जब बहु बनती है तो वो बेटी नही बन पाती है
क्यों वो अपने ही अस्तित्व को नकारती है
एक औरत ही औरत को क्यों समझ नही पाती है
ये कैसी विडम्बना है वो पुत्र मोह में अंधी हो जाती है
और फिर खुद में ही हज़ार कमियाँ ढूढ़ने लग जाती है
क्यों किसी दूसरे के चरित्र का मज़ाक बनाती है
एक औरत ही औरत को क्यों समझ नही पाती है
समाज से अपनी पहचान के लिए लड़े जाती है
पर जब दुनिया मे किसी को लाने की बारी आती है
क्यों वो बेटी से पहले बेटे को जन्म दिलवाना चाहती है
एक औरत ही औरत को क्यों समझ नही पाती है
एक तरफ जहां वो अपनापन दिखाती है
और फिर किसी की अच्छी मित्र बन जाती है
क्यों फिर उसी की खुशियां सहन नही कर पाती है
एक औरत ही औरत को क्यों समझ नही पाती है
जब वो खुद को सुधारेगी दुनिया उसे स्वीकारेगी
और वो जब मन से अपने अस्तित्व को अपनायेगी
तब हर कवि की ये बात भी मिथ्या कहलाएगी
एक औरत ही औरत को क्यों समझ नही पाती है।

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