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यू.पी के हथरस के छोटे से गांव की रहने वाली डिंपल चौधरी आज एक फोटोग्राफर, लेखिका, महिला इंटरनेशनल बाइक राइडर्स एसोसिएशन की राष्ट्रीय सदस्य होने के साथ-साथ गरीब और बेसहारा बच्चों की देख भाल करने वाली एक रोशनी भी है।

लेकिन मेरी इस कहानी में यही डिंपल मिथिलेश चोधरी अपनी पहचान के अधुरे सफर पर चलती नजर आएंगी। तो चलिये जानते हैं ये सच्ची कहानी उन्हीं की जुबानी।

मैं भले ही दुनिया के लिए 'एक लड़की हूं' पैदा जो लड़की का जिस्म लेकर हुई थी। मुझे पता नहीं था कि लड़का और लड़की में फर्क क्या है। सिर्फ फ़र्क इतना था कि मैं बाकी लड़कियों की तरह नहीं थी। मेरा घराना जाट था। जहां लड़कियों को ऊंची आवाज में बात करना तो दूर नजर उठा कर देखने का तक हक ना था। और मैं जिद्दी, हालातों के साथ समझौते मुझे पसंद नहीं थे। मैं भले ही रोज पिट ती थी। बवाजुद इसके मोहल्ले के बाकी लड़कों के साथ कंचे, क्रिकेट, कबड्डी खेलने चली जाती। मेरी इन आदतों को सबने बचपन की नादानी का नाम दिया था। लेकिन एक शोर मेरे अंदर ज़ोर से चिख रहा था यह कह कर के 'तुम शायद एक लड़की हो?' इस शायद की तलाश बचपन से ही शूरु हुई थी।

वक़्त के साथ मैं बड़ी हो रही थी। दिखती तो लड़की ही थी। एहसास, पसंद, ख्वाहिशें, और नज़र बाकी सब लड़कों की तरह थी। इस दिखने और मेरे महसूस करने के बीच का मेरा ये सफर था। दुनिया की सभी लड़कियां लड़कियों की तरह कपड़े पहनती, उनके खेल खेलती, सजती, संवरती और एक मैं थी के चुपके से भाई के शर्ट पहनती थी। गली के बदमाश लड़कों को पिट के आजया करती थी।

स्कूल के मेरे बाकी दोस्त लड़कियों को देख कर खुश होते, मैं भी वैसे ही महसूस करती थी। मेरे साथ पढ़ने वाली एक लड़की को मैं चाहने लगी थी उसे देख गुदगुदा सा एहसास होता वो ना दिखे तो मैं बेचन हो जाती। उस दिन मैंने खुद से पहला सवाल किया था कि 'क्या मैं ऐसी लड़की हूं जिसे लड़की पसंद है?'

जैसे नदी हर आने तैरने से अपनी गहराई छुपाती है कुछ इस तरह का हाल लेकर मैं ने उससे अपना हाल ए दिल कह दिया। मानो उस दिन मेरी जिंदगी ने मुझे आइना दिखा दिया हो। उसने मुस्कुराते हुए कहा था कि वो एक लड़के को चाहती है। मुझे लगने लगा मैं तो लड़की को चाहती हूं। जो लड़कियां मेरे आस पास थी अब अचानक मुझसे मिलने से डरने लगीं अब सब दूर दिखाइ देने लगी थी। मेरे पैरों तले जमीं खिसक गई। किसी ने दिल पर सौ टन का पत्थर रखा हो इतना दर्द होने लगा था।

उस दिन मेरे साथ दो चीज़ें हुई थी एक- मुझे अब बाकी लड़कों से नफ़रत सी होने लगी। और दूसरी- पहली बार खुदकी पहचान का सवाल दिमाग में एक बहुत बड़े कांटे कि तरह चुभने लगा था।

न मैं पूरी लड़की हूं न पूरा लड़का हूं। फिर मुझे प्यार करेगा कोन? इस खोफ ने जन्म लिया था के मेरी असलीयत जानने पर मुझे कहा जाएगा लड़कों के साथ रह के बिगड गए होगी इलाज करवाएंगे, ठीक होजायेगी। मुझे भी बाकियों की तरह ही ठुकराया गया।और ये मुझे बिल्कुल मंजूर ना था, ये कैसे समाज का हिस्सा हूं मैं सोचने लगी। इसलिए मैं ने खुदको संभाला अपनी पढ़ाई पूरी की।

अब कुछ उभरी चीजें भी मुझे धुंधली नजर आने लगी थी।

जिस तरह ये तकलीफ मेरी नई जिंदगी में मुझे सहनी थी इससे ज्यादा तकलीफ मुझे समाजी जिंदगी में सबके साथ जीने में होने लगी थी। पढाई खत्म होने के बाद मुझे न्यूज रिपोर्टर की जॉब मिली। मैं खुश थी के नए लोग जानने का मोका मिलेगा लेकिन दफ्तर में काम करने वाले मेरे दूसरे साथी इस कश्मकश में थे के ये दिखती तो लड़की है फिर लड़कों की तरह क्यों रहती है। जब मैं कैंटीन में खाना खाने जाया करती कोई मेरे साथ नहीं बैठता था। मेज़, मैं और टिफिन बस इतनी सिमटी सी ज़िंदगी थी। अब मैं इन लोगो को कैसे समझा सकती थी के जैसे वो है वैसी ही मैं भी हूं इन लोगो की ये टेढ़ी नजरें मुझे मेरे अधुरा होने का एहसास शिद्दत से दिलाती रही।

मैं ने ये काम छोड़ दिया और अपने सपनों की तरफ मुड़ना शूरू कर दिया। मैं बंद कमरों में खुदको बैगर कपड़ों के आईने में देखती तो पूरे जिस्म पर काटे दोड़ जाते। मेरा उभरा हुआ सिना बेशक मेरे जिस्म का एक हिस्सा था लेकिन मुझे ये कभी अपना लगा ही नहीं। मुझे खुदको एक लड़का बन के देखना सुकून दिलाता था। मैं ने खुदको जानने और मानने में 20 साल लगा दिए थे। मैं ने उस दिन अपने जिस्म के एक एक हिस्से से बात की थी। 

अब मैं एक gey हूं इस बात का यकीन मैं ने खुदको दिला दिया था। लेकिन मुझे इस समाज के सामने अपनी असल पहचान देखनी थी, मैंने बाइक राइडिंग, फोटोग्राफी और राइटिंग को अपना मुकद्दर चुना। और मेहनत का फल भी मिला। मेरी स्ट्रीट फोटोग्राफी ने विदेशी प्रदर्शनी में भारत का प्रतिनिधित्व भी किया। इस अवसर ने मुझे अपने पैरों पर खड़ा कर दिया था।

अब मैं ने सोच लिया था के मुझे अपने घर वालों से ये सच कह देना चाहिए। लेकिन जब भी मैं मां की आंखें देखती मेरी बातें ज़बान पर आकर रुक जाती।

जिस तरह पत्थर को ज़ख्म देने पर वो कंकर होजाते हैं ये तो फिर भी मेरी मां थी। मैं,मां के सामने चली गई लेकिन मेरी पालकें झुकी हुई थी। मैं ने कहा मां मुझे कुछ कहना है। तुम्हें लगता है कि मैं एक लड़की हूं लेकिन ये सच नहीं है। मैं खुदको लड़कों की तरह महसूस करता हूं। मैं गलत जिस्म में पैदा हुआ हूं। मां क्या तुम्हें याद है 'मैं भाई के कपड़े पहनता था, कैसे लड़कों के साथ खेलता था, और तुम हमेशा मेरी पिटाई करती थी, पहेली बार जब तुमने सलवार सूट पहेनाया था तब मैं कितना रोया था' यह कहते कहते मेरी आंखें बोल पड़ी। आखिर वो बात लब पर आ ही गई जिसे कहना मुझे मेरे एक हाथ में पहाड़ उठाने जितना मुश्किल लग रहा था। मैं ने मां से कहा मैं एक लड़का हूं और मुझे मेरे ब्रेस्ट हटाना है। मां ने झपट के मुझे अपने गले लगा लिया और कहा तुम जैसे भी हो इंसान हो। बहुत दर्द लेकिन प्यार से उन्होंने मुझे अपना लिया था।

लेकिन एक डर ये भी था कि मैं जिस लड़की को अपना सब कुछ निछावर करना चाहता था, वह 'पूरी' लड़की ने मुझसे कहा था कि डिंपल ये सब तो ठीक है लेकिन तुम मुझे मां नहीं बना सकती। मुझे मां बनाना है। उस वक्त में लड़का था लेकिन 'अधूरा'। मैं खामोश इस बात पर एतेबार कर खुदको गुनहेगार सबित कर रहा था। सब कुछ होने के बाद भी आखिर मैं अकेला छूट ही जाऊंगा और ये सच मैं बदल भी नहीं पाऊंगा।

जो लड़के अपनी मर्दानी सबसे अहम समझते हैं वो क्या मेरे एहसास समझेंगे। मेरे लिए तो मेरी जिंदगी में किसी लड़की का होना ही सुकून है और उसकी खुशी मेरा पूरा फ़र्ज़। बवाजुद इसके एक दिन कोई आएगा जो मुझसे ज्यादा मर्द होगा और हालात कुछ और होंगे। मैं रेजा रेजा टूट कर बिखरता रहूंगा।

मुझे तकलीफ इस बात से नहीं है के कोई मुझे छोड़ जाएगा या कोई मुझे ठुकरा देगा ज़ख्म तब गेहरा होगा जब ये सवाल मन में उबरेगा के एक दिन कोई मेरी जिंदगी उसके साथ ले जाएगा और ये सब होगा सिर्फ इसी लिए के मैं "'एक अधुरा लड़का हूं' या  फिर "मैं एक लड़की'' हूं??

मैं एक लड़की...

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