Dr. Rammanohar Lohia

मैजूदा दौर में जब विपक्ष की वास्तविक भूमिका दिग्भ्रमित और नगण्य सी प्रतीत होती हैं तो मानस पटल पर राम मनोहर लोहिया की स्मृतियों का आ जाना स्वभाविक हैं. अगर लोहिया के जीवन दर्शन को देखें और उनके शाश्वत विचारों का बारिकियों से अध्धयन करें तो हमें यह मालूम होगा कि वह सत्ता के लिए नहीं व्यवस्था परिवर्तन की मुनादी लगाने वाले सजग प्रहरी थे. लोहिया जी भले ही इस दुनिया को असमय ही 57 वर्ष की उम्र में छोड़ कर चले गए हो, लेकिन उन्होंने जो विचारों की मशाल जलाई... उस मशाल की आग सदैव जलती रहेंगी.

महात्मा गांधी, डॉ॰आंबेडकर, लोकनायक जयप्रकाश नारायण के बाद उस कालखंड के भारतीय राजनीति को जिसने सबसे ज्यादा प्रभावित किया और उसे एक नई दिशा दी. उनमें डॉ॰ राम मनोहर लोहिया का नाम बड़े सम्मान और आदर भाव के साथ लिया जाता हैं. उनका जन्म 1910 में उत्तर प्रदेश के अयोध्या जिले में एक मध्यमवर्गीय वैश्य (बनिया) परिवार में हुआ था. उन्हें गांधीवादी विचारधारा उनके पिता हीरालाल जी से विरासत में मिली थी. जिसकी वजह से गांधी जी के विचारों का उनके जीवन में गहरा छाप पड़ा.

लोहिया पहली बार 1918 में अपने पिता जी के साथ अहमदाबाद में कांग्रेस पार्टी के चौतीसवें अधिवेशन में शामिल हुए थे. बनारस से इंटरमीडिएट और कोलकाता से स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद वे उच्च शिक्षा ग्रहण करने के लिए जर्मनी चले गए. जर्मनी से अर्थशास्त्र में डाक्टरेट की उपाधि प्राप्त करके लोहिया स्वदेश लौट आएं और उसके बाद मूल रुप से कांग्रेस का सदस्य बनकर आजादी की लडा़ई में हिस्सा लेने लगे. उन्होंने 1942 में महात्‍मा गांधी के साथ भारत छोडो़ आंदोलन में बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया और 18 बार जेल की यातनाएं सही.

लोहिया कांग्रेस के अंदर ही रहकर उसके समानांतर संगठन बनाने की कवायद में जुटे रहे. जिसके परिणामस्वरूप 1934 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का गठन हुआ. इस संगठन में जेपी, लोहिया, आचार्य नरेन्द्र देव जैसे राष्ट्रवादी विचारक और स्वतन्त्रता सेनानी थे, जिन्होंने इस संगठन के जरिए कांग्रेस का विकल्प बनकर देश को स्वाधीन कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. आगे चलकर जब देश आजाद हुआ तो इन्हीं राजनेताओं के कारण भारत की राष्ट्रीय राजनीति के क्षीतिज पर समाजवादी विचारधारा का उदय हुआ.

वैसे तो लोहिया के समाजवाद के सिद्धांत और विचार अपने आप में महाग्रंथ हैं. लेकिन वह मुख्य रूप से समाजवाद को दो शब्दों में परिभाषित करते थे. उनका स्पष्ट तौर पर मानना था कि समता और सपंन्नता का अनूठा संयोजन ही समाजवाद की मजबूत बुनियाद हैं. अल्हड़ और फक्कड़ स्वभाव वाले लोहिया से कुछ लोगों ने सवाल किया कि आखिर इस मुल्क में समाजवाद में जीता कौन है तो लोहिया का जबाब था- "जाओ मधेपुरा के गावों में एक नेता रहते हैं जो समाजवाद को जीता हैं. उनका नाम भूपेंद्र नारायण मंडल हैं."

जाति प्रथा उन्मूलन और समाजिक समानता के प्रबल पक्षधर लोहिया और संविधान निर्माता डॉ॰भीमराव आंबेडकर के विचारों में काफी हद तक साम्यता थी. उस समय के इन दोनों शीर्ष नेताओं में सोशलिस्ट पार्टी और आंबेडकर के संगठन बैकवर्ड कास्ट फेडरेशन के बीच किसी समझौते की चर्चा चली थी.लेकिन लोहिया के असमय निधन के कारण यह संभव नहीं हो पाया..लोहिया हमेशा कहा करते थे कि" लोग मेरी बात सुनेंगे जरूर लेकिन मेरे मरने के बाद."

1962 में फूलपुर सीट से आम चुनाव में तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू के खिलाफ चुनाव लड़ रहे लोहिया ने उनको पत्र लिखकर कहा था कि “मैं जानता हूँ कि मैं पहाड की चोटी से टकरा रहा हूँ, जिसको दरका पाना नामुमकिन हैं, लेकिन अगर मैं इसे हिला भी दिया तो मैं इसमें अपनी सफलता मानूंगा.

मैं आप को हरा कर 1947 के पहले वाले नेहरू में लाना चाहता हूँ, जो हम सब युवकों का तब एक आदर्श हुआ करता था". लेकिन इस चुनाव का नतीजा नेहरू जी के पक्ष में गया और लोहिया जी को करारी हार का सामना करना पड़ा. 1962 के आम चुनावों में पराजय के बाद लोहिया को लगा कि बिना विपक्षी दलों में एकता स्थापित किए कांग्रेस को चुनौती नहीं दी जा सकती. तब लोहिया ने गैर कांग्रेसवाद का नारा बुलंद किया और भारतीय जनसंघ, सोशलिस्ट पार्टी और स्वतंत्र पार्टी में राजनैतिक समझौता हुआ.

1963 में 4 लोकसभा सीटों पर उपचुनाव में फर्रुखाबाद से डॉक्टर राममनोहर लोहिया ने जीत दर्ज करके संसद भवन में दस्तक देते हुए संसदीय लोकतंत्र का नया इतिहास गढ़ा गया. जब राम मनेाहर लोहिया ने 13 अगस्त,1963 को पहली बार लोकसभा में संसद सदस्य के रूप में प्रवेश किया था तो तबके प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू सहित पूरा सदन सियासी तहजीब की परिपाटी को नीभाते हुए उनके स्वागत में उठ खड़ा हुआ था. वह अभूतपूर्व दृश्य था.. न भूतो न भविष्यति!!!!!

कांग्रेस पार्टी को मात देने के लिए लोहिया ने उस दौर में गंठबंधन की राजनीति का अभिनव प्रयोग किया. जिसका नतीजा यह रहा कि 1967 के आम चुनाव के बाद उत्तर और पूर्वी भारत के नौ राज्यों से कांग्रेस को सत्ता गंवानी पड़ी और इन राज्यों में साझा सरकारों का गठन हुआ.

वो लोहिया ही थे जिन्होंने केरल में गोली कांड में 4 लोगों की मौत के बाद अपनी ही सरकार से इस्तीफे की मांग की थी. उस समय के हुए इतने बड़े सियासी धटनाक्रम को लेकर राजनीतिक समीक्षकों का मानना है कि अगर लोहिया की मृत्यु असमय न हुई होती तो वो एक मिशाल पेश करते कि सरकारें कैसे लोकत्रांत्रिक और सवैंधानिक ढ़ग से चलायी जाती हैं. देश में जब मैजूदा समय में देशभक्ति ट्रेंड बन गया है तो वहीं लोहिया का वो नारा "चार घंटा पेट को एक घंटा देश को" राप्ट्रभक्ति का एक नया दृष्टिकोण पेश करता है.

लोहिया प्रधानमंत्री बनने के सवाल पर कहा करते थे कि ''मैं विविध भारती वाला आदमी नहीं हूं. मेरे अपने सिद्धांत हैं. मैं कभी अगर इन पदों पर आना चाहूंगा तो अपनी शर्तों पर." इसके बाद प्रसिद्ध व्यंगचित्रकार नियतकालिक ने लोहिया के व्यंगचित्र के साथ टिपण्णी करते हुए लिखा था कि-''आज सवेरे लोहिया ने शपथग्रहण की और आज शाम को ही अपना त्यागपत्र भी दे दिया. लोहिया कहा करते है कि मेरे पास कुछ नहीं है सिवा इसके कि इस देश का साधारण आदमी समझता है कि मैं उनका आदमी हूँ.

डॉ॰ लोहिया हमेशा से जातियता, वर्णव्यवस्था, सम्प्रदायिकता, सामाजिक असामनता, भाषावाद, प्रांतवाद, लिंगभेद इत्यादि कुरीतियों के मुखर आलोचक रहें और इसके खात्मे के लिए जीते जी हरसंभव प्रयास करते रहें. लेकिन बदलते वक्त के साथ सच्चाई नहीं बदली. वक्त बदला, दौर बदला लेकिन लोगों के नजरिए में बदलाव की बयार नजर नहीं आईं. कहीं ना कहीं आज भी इस समाज में उन संकीर्ण और संकुचित विचारों की जड़े गहरी हैं.

इस संकीर्णता से ऊपर उठना मैजूदा समय की जरूर भी हैं और मांग भी. साथ ही साथ उन पूरखों की समृद्ध विचारधारा को आगे बढ़ाने और उनके सपनों को साकार करने की जिम्मेदारी भी हैं, जिन्होंने अपना पूरा जीवन समाज में समाजिक समरसता को स्थापित करने के लिए समर्पित कर दिया.लोहिया ने जाति के वर्चस्व को तोड़ने के लिए जाति छोड़ो जनेऊ तोड़ो अभियान चलाया और लाखों लोगों के जनेऊ तुड़वाकर जलवा दिया.लोहिया हमेशा जिसकी जितनी भागीदारी उसकी उतनी हिस्सेदारी की बात किया करते थे..वो कहा करते थे कि मेरे मां बाप ज़रूर मारवाड़ी रहे हैं,पर मैं नहीं रहूंगा.मैं जात पात पर विश्वास नहीं करता. उन्होंने समाज के निचले तबके के लिए आरक्षण की मांग करते हुए एक नारा दिया था ‘संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़े पावें सौ में साठ.' जो नारा आगे चलकर भारत का समाजिक आधार को तैयार किया.

अपने आप को कुजात गांधीवादी की संज्ञा देने वाले लोहिया ने 1962 के आम चुनाव में ग्वालियर संसदीय सीट से राजमाता विजयाराजे सिधिंया के खिलाफ सफाईकर्मी महिला मेहतरानी सुक्खो रानी को खड़ा किया था. जहां एक तरफ इस चुनाव में राजमाता राजे-राजवाड़े, राजशाही ठाट बाट, अभिजात्य वर्ग की प्रतीक थी. वहीं सुक्खो रानी वंचित, शोषित, पीड़ित और बहिष्कृत समाज की प्रतीक बन चुकी थी. पूरे देश में महारानी बनाम मेहतरानी का वह चुनाव सुर्खियों में रहा था. सुक्खो रानी के पक्ष में प्रचार करते हुए तब डॉ॰ लोहिया ने कहा था- "हजारों वर्ष से जमीं जमाई चट्टानें सुक्खो रानी के मुद्दे पर टूटेगी नहीं तो दरकेगी ज़रूर. लोहिया के जीतने पर राजनैतिक परिवर्तन होगा. और सुक्खो रानी के जीतने पर समाजिक बदलाव की बयार बहेगी."

लोहिया ने अपनी छवि कांग्रेस विरोधी राजनेता के तौर पर जरूर गढ़ी हो. लेकिन वो निजी जिंदगी में कभी किसी के विरोधी नहीं रहे. बचपन के दिनों में लोहिया जी नेहरू जी के शागिर्द रहे. लेकिन एक समय ऐसा आया कि जब वे वैचारिक स्तर पर उनके सबसे बड़े कटु आलोचक हो गए. उन्होंने नेबरू की नीतियों का विरोध किया, अव्यवस्था का प्रतिकार किया. समय-समय पर जनमानस के मुद्दे पर शासन सत्ता को आगाह करते रहे और न जाने कितने आंदोलनों कि अगुआई कीं. वो कहा करते थे कि जिस दिन सड़कें सूनी हो जाऐंगी, उस दिन संसद आवारा हो जाएगा. सदन में लोहिया जी देश के सामरिक, आर्थिक, विदेशों मुद्दों पर नेहरू जी को जमकर घेरा करते थे. नेहरू जी और उनके बीच सदन में खूब तीखी नोक-झोंक हुआ करती थी.

एक बार तो लोहिया ने भरे सदन में नेहरू जी को बीमार देश का बीमार प्रधानमंत्री बताकर उनके ऊपर फब्तियां कसा था. 6 सितंबर 1963 को लोहिया ने लोकसभा में तीन आना बनाम 15 आना के मुद्दे पर बहस छेड़ी थी. और कहां था कि जहां इस देश में 27 करोड़ गरीब लोगों कि प्रतिदिन की आमदनी महज 3 आना हैं. वहीं इस देश के प्रधानमंत्री का दैनिक खर्च पच्चीस हजार रुपया कैसे हैं? सरकार और योजना आयोग के द्धारा प्रस्तुत की गई प्रति व्यक्ति 15 आना आय के रिपोर्ट पर लोहिया ने संसद में अविश्वास प्रस्ताव लाया था. और सदन में चर्चा करते हुए कहा था कि यह आंकड़े गलत हैं इन्हें सुधार लिया जाए. भारत की साठ फीसद जनता की अभी भी प्रति व्यक्ति आय महज तीन आने रोजाना है. तत्कालीन नेहरू सरकार समेत सदन के हर नेता लोहिया के इस ऐतिहासिक भाषण के बाद निरुत्तर हो गए थे. जिसके बाद संसद में नेहरू मंत्रिमंडल के समक्ष इस विषय पर काफी बौद्धिक चर्चा हुई. जिसे सदन में अब तक का सबसे स्वस्थ बहस माना जाता है.

नेहरू को लेकर लोहिया कहा करते थे कि यदि बाबू मेरा सपना थे तो नेहरू हमारे अभिलाषा. इंदिरा गांधी के साथ उनकी सियासी तल्खियां जगजाहिर थी. लेकिन व्यक्तिगत आग्रह-दुराग्रह से ऊपर उठ कर, उन्होंने उनके ऊपर भी तंज कसते हुए गूगीं गुड़िया कहा था. एक बार जब पंडित नेहरू के सरकार के दौरान लोहिया जेल से बाहर निकल कर लौटे तो पत्रकारों ने उनसे उनका हालचाल पूछा तो लोहिया ने इंदिरा गांधी पर तंज कसते हुए कहा कि बाप(नेहरू) जेल भेजता हैं और बेटी(इंदिरा गांधी) जेल में रसीले आम भेजती हैं.

हिंदी कि अनिवार्यता को लेकर केंद्र सरकार ने 1963 में संसद में राजभाषा कानून पारित किया. इसके बाद 1965 में अंग्रेजी के साथ-साथ हिंदी भाषा का भी इस्तेमाल राजकाज में किया जाना लगा. आज जिस भी विश्वविद्यालय में भारतीय भाषाएं पढ़ाई जा रही हैं या जो भी यूपीएससी या अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं में हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में जो प्रश्न छपती हैं उसकी शुरुआती लड़ाई लड़ने वालों में लोहिया प्रमुख थे.

सत्ता और शासन को लेकर लोहिया के बड़े स्पष्ट विचार थे. वे कहा करते थे कि सत्ता सदैव जड़ता की ओर बढ़ती है और निरंतर निहित स्वार्थों और भष्ट्राचारों को पनपाती हैं. इसलिए तावे पर रोटी पलटती रहनी चाहिए. यानी सत्ता परिवर्तन होते रहना चाहिए. निरकुंश और जालिम सरकार को हटाने के लिए ज़िंदा क़ौम पांच साल इंतज़ार नहीं करता...

हमारे देश में अलग-अलग क्षेत्रों में विशिष्ट योगदान देने के लिए समय-समय पर महान बिभूतियों को देश के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से नवाजा जाता रहा हैं. लेकिन इस देश कि बिडम्बना देखिए कि समाजवाद के महान पुरोधाओं जैसे आचार्य नरेंद्र देव, राममोहर लोहिया, चन्द्रशेखर, किशन पटनायक, कर्पूरी ठाकुर, जॉर्ज फर्नांडिस जो इस सम्मान के असल हकदार थे. उन्हें अभी तक ये सम्मान मिल जाना चाहिए था. लेकिन अफसोस की बात ये है कि न जाने कितनी सरकारें आयी और चली गईं. लेकिन किसी सरकार ने इतना बड़ा साहसिक और ऐतिहासिक फैसला लेने की हिम्मत नहीं दिखाई. जो भारत जैसे लोकत्रांत्रिक सरकारों के ऊपर बदनुमा दाग हैं.

मुझे उम्मीद हैं कि भारत सरकर बहुप्रतीक्षित जन आंकाक्षाओं का सम्मान करते इन महान शख्सियतों को भारत रत्न से अलंकृत करेंगी. और राष्ट्रनायकों को सम्मानित करके कृतज्ञ राष्ट्र भारत स्वयं में गौरवान्वित होगा.

लोहिया ने अपने जीवन के इस छोटे से कालखंड में न जाने कितने नेताओं की नर्सरी लगाई. और उन वैचारिक बीज का बीजारोपण किया. वो बिज आज विशालकाय वटवृक्ष बनकर देश और प्रदेश के कई शीर्ष पदों पर काबीज हैं. लेकिन सिद्धांतों, वसूलों, आदर्शों की तीलांजली देकर, आज बिखरा हुआ विपक्ष का स्वरूप देखकर एक बार जेहन में ये सवाल बरबस उठ ही जाता हैं कि मैजूदा एकीकृत शासन व्यवस्था में दूसरा लोहिया कौन? 

लोहिया जी के वैचारिक ध्वजवाहक तो बहुतेरे हैं, लेकिन उनके जैसे ज़िंदा कौम का नेता कोई नहीं! उनके बारे में क्या भूलूं क्या याद करूं!! सत्ता जनित विकृतियां जिन्हें छू न सकी ऐसे थे हम सब के लोहिया!! आपकी जीवंत स्मृतियां हमेशा-हमेशा के लिए अमर और अविनाशी रहेगीं और लोकतंत्र को एक नई राह दिखाती रहेंगी.

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