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आईएएस का चरित्र, आईएएस मतलब व्यक्तिगत परिपेक्ष्य में नहीं लेकिन एक पेशेवर संस्थान के रुप में, इतना अचल और स्थिर है जितना शायद ही किसी पेशे या व्यवसाय का हो। यह मेरा निजी विचार है की मै किस चीज़ को किस नजरिए से देखती हूं। अब उसकी आलोचना या प्रशंसा, यह तो पढ़ने और सुनने वाले पर निर्भर करती है।

बहराल, भारतीय सिविल सेवा को, 19वीं शताब्दी में आधिकारिक तौर पर इंपीरियल सिविल सर्विस के रूप में जाना जाता था। 1858 और 1957 के बीच की अवधि में ब्रिटिश शासन के दौरान ,ब्रिटिश भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की यह कुलीन उच्च सिविल सेवा थी। अगर अंग्रेजो से समरूपता और उससे मिले रुतबे को हटा दे तो उस वक्त आज़ाद भारत का सपना लिए किसी भी भारतीय के अंदर इसकी कोई खास दिलचस्पी नहीं थी। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने भी आईसीएस क्लियर किया था पर ज्वॉइन नही करा था।उनका कहना था कि देश और सरकार कि सेवा दोनो अलग अलग बाते है।

भारत जैसे विशाल महाप्रांत के व्यवसाय और प्रशाशन के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी सुचारू ढंग से काम कर रही थी। 1853 तक, ईस्ट इंडिया कंपनी के निदेशकों द्वारा अनुबंधित सिविल सेवकों की नियुक्ति ,नॉमिनेशन से होती थी। 1853 में ब्रिटिश संसद द्वारा इस नामांकन प्रणाली को समाप्त कर दिया गया और यह फैसला लिया गया कि कोई भी ब्रिटिश नागरिक इसका हिस्सा बन सकता हैं ,बशर्ते उसे प्रतियोगी परीक्षाओं के माध्यम से चयनित होना होगा। सेवा में प्रवेश के लिए परीक्षा पहले प्रत्येक वर्ष के अगस्त के महीने में केवल लंदन में आयोजित की जाती थी। रोचक बात है कि सभी उम्मीदवारों को एक अनिवार्य घुड़सवारी परीक्षा भी उत्तीर्ण करनी होती थी।

क्योंकि 1922 से पहले ब्रिटिश इम्पीरियल सर्विसेज सिर्फ ब्रिटेन में होती थी तो ज़ाहिर है उसमे शिरकत करने वाले भारतीयों कि संख्या कम ही होती थी। लंदन में रह कर परिक्षा पास करना किसी आम साधारण भारतीय परिवार कि औकात के बाहर था। फिर भी 1864 में पहले भारतीय श्री सत्येन्द्रनाथ टैगोर, श्री रवींद्रनाथ टैगोर के भाई सफल हुए।

ज़ाहिर है एक वक्त पर आईएएस बनने की मंशा अंग्रेज सरकार के सानिध्य और छत्रोछाया में रह कर ख़ुद का 'विलायती' विकास ही था। वरना इतने जुल्म और आंदोलन के बावजूद भी अंग्रेज़ राज कि सेवा का क्या औचित्य था? स्वाभाविक है यह परंपरा अभी भी चली आ रही है। पहले अंग्रेज के करीब, फिर समाज में ध्रुवीकरण कि मिसाल कायम करते हुए मध्यम वर्गीय परिवार के लिए रुतबा, पैसा, मान के लिए यह बढ़िया साधन बना। अगर आज बाबूगिरी अपने घमंड, अहंकार और ख़ुदपसंदी के मिजाज़ में है तो उसका ज़िम्मेदार समाज और परिवार है जिसने ख़ुद न्यूनता के भाव को सर आंखों पर रखा है।

हाल के दिनों में आईएएस द्वारा जो व्यवहार प्रदर्शित किया है. वो उसी घमंड, अहंकार और ख़ुदपसंदी के मिजाज़ को दर्शाता है जो बर्दाश्त के लायक नहीं है। चाहे वो छत्तीसगढ़ के सूरजपुर में डीएम रणबीर शर्मा के 'थप्पड़ कांड' हो या फिर पिछले महीने वेस्ट त्रिपुरा के डीएम शैलेश यादव का व्यवहार। लॉकडाउन का पालन कराने निकले डीएम शैलेश यादव ने एक शादी समारोह में जमकर उत्पात मचाया और दूल्हा, दुलहन, पंडित, मेहमानों समेत वहां मौजूद हर शख्स से बदसलूकी की थी। बताइए एक आईएस जो जनता और सरकार के बीच मीडिएटर के रूप में कार्य करते हुए दैनिक मामलों का संचालन करता है। वो इस तरह के घटिया कामों को अंजाम देंगा तो फिर इस प्रतिष्ठित सेवा का गरिमा ही क्या रह जाएंगा?

हुजूर! अब समय आ गया है कि आप कॉलोनियल(औपनिवेशिक) मानसिकता से बाहर आएं। आप अपनी जिम्मेदारी समझे। आपको सिविल सर्वेंट के रुप में नियुक्त इसलिए किया जाता है कि आप लोगों की सेवा करें न कि उनपर धौंस जमाये। भारतीय मानकों और चरित्रों को पहचानें! याद रखें कि आप देश की सरकार के सार्वजनिक क्रियान्वयन और प्रशासनिक व्यवस्थाओं के लिए जवाबदेह हैं। आपकी ओछी हरकत से यह व्यवस्था बनने की बजाय बिगड़ती है।

आईसीएस का क्या योगदान है ब्रिटिश शासन के प्रसार का उसका उधारण है यह; "If you take that steel frame out of the fabric, it would collapse. There is one institution we will not cripple, there is one institution we will not deprive of its functions or of its privileges; and that is the institution which built up the British Raj – the British Civil Service of India."(David Lloyd George, then Prime Minister of United Kingdom)

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