श्री राजेंद्र नाथ लाहिड़ी का जन्म 1901 ईसवी के जून महीने में अपने मामा के ग्राम भ्ररेंगा जिला पबना (बंगाल ) में हुआ था. उनका घर इसी जिले के मोहनपुर ग्राम में था. उनके पिता क्षितिज मोहन लाहिड़ी बड़े हीं उदार ,सहृदय और लोकोपकारी व्यक्ति थे. बंग –भंग के समय स्वदेशी आन्दोलन में भी इन्होने बहुत भूमिका निभाई. श्री राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी 1909 में बनारस आये और 1898 में एनी बेसेंट द्वारा स्थापित सेंट्रल हिन्दू कॉलेज की एडमिशन परीक्षा पास कर पढ़ने लगे. इतिहास और अर्थशास्त्र से उनका बड़ा प्रेम था. उन्होंने महामना पंडित मदनमोहन मालवीय जी द्वारा स्थापित काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से एम ए और बी ए किया और एम ए में इतिहास विषय लिया. 

पठन –पाठन की अत्यधिक रूचि और अपने बंगला साहित्य के प्रति प्राकृतिक प्रेम के कारण आपने अपने भाइयों के साथ मिलकर अपनी माता के यादगार में बसंत कुमारी नाम का एक अच्छा सा पारिवारिक पुस्तकालय भी स्थापित कर लिया था. गिरफ़्तारी के समय वे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की बंगला साहित्य परिषद के महामंत्री थे और एम ए प्रथम वर्ष के विद्यार्थी भी थे. आपके लेख बंगला के बंग वाणी और शंख आदि पत्रों में छपा करते थे. बनारस के क्रांतिकारियों के हस्त लिखित पत्र अग्रदूत के प्रवर्तक आप ही थे. आप निरंत्तर कोशिश करते थे कि क्रांतिकारी दल का प्रत्येक सदस्य अपने विचार लेखों के रूप में जरुर लिखे ,यंहा तक की छोटे छोटे लड़कों से भी अग्रदूत के लिए कुछ न कुछ लिखवाया करते थे. 

पढने लिखने में उनकी जैसी प्रवृति थी ,खेल कूद और दौड़ धुप में भी वैसे ही चुस्त और तेज रहें. तैरने ,कूदने और हाकी खेलने में भी बड़े निपुण थे. शुरू से ही बनारस के सेन्ट्रल हेल्थ यूनियन के सदस्य तथा कुछ दिनों तक मंत्री भी रहें. कभी-कभी अपने मित्रों और छोटे लड़कों को ले ,पैदल ही सारनाथ ,मुगलसराय आदि जगहों में जाकर घुमा करते थे. खेलना ,हँसना और लतीफे सुना सुना कर दूसरों को हँसाना उनका स्वाभाविक गुण था. काशी में रहने के कारण मस्तमौला ऐसे थे कि किसी बात की कभी कोई चिन्ता हीं नहीं करते थे. 

लखनऊ जेल में उनके इन मस्ताने स्वाभाव को देखकर बैरिस्टर चौधरी ने एक बार आपसे पूछा, “क्यों जी ,क्या तुम्हे पता है ,कि तुम्हारे विरुद्ध कितने गवाह गुजर चुके ?” जबाब में आपने निश्चिन्तता और सरलता के साथ कहा ,नही जी. सभी आपकी इस वेफ्रिक बातों पर खिल –खिला कर हंस पड़े. वे राजनीतिक क्रांति के साथ सामाजिक और धार्मिक क्रांति के भी जबरदस्त पोषक थे. किसान और मजदुर संगठन और उनके साथ आन्दोलन के पक्षधर थे और इस सम्बन्ध में उन्होंने एक स्कीम भी बनाई थी. सेवा का भाव इतना अधिक था कि, काशी में निराश्रित मरी हुई बूढी स्त्रियों को अपने कंधे पर उठा कर ले जाते और उनका दाह संस्कार कर आते थे.

श्री राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी देश के गिने –चुने होनहार नवयुवको में से एक थे. देश उद्धार के कार्य में उनकी बहुत रूचि थी. उनकी सबसे अधिक उल्लेखनीय विशेषता यह थी कि वे बड़े नीरव कार्यकर्त्ता थे. वर्षो तक वे काम करते रहें किन्तु किसी को पता तक नही हुआ. वे स्वाभाव से बड़े साधू और निर्भीक थे. मृत्यु का तो वे मजाक उड़ाया करते थे. काकोरी केस में गिरफ्तार होने के समय वे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में एम ए कक्षा मे शिक्षा पा रहे थे. काकोरी केस के बाद प्रान्त की खुफिया पुलिस ने श्री लाहिड़ी के नाम वारंट निकाला. काकोरी कांड के बाद बिस्मिल ने लाहिड़ी को बम बनाने का प्रिशिक्षण लेने बंगाल भेज दिया. कलकाता में एक साथी के असावधानी के कारण बम धमाका हो गया, कुल 9 साथियों के साथ श्री लाहिड़ी गिरफ्तार हुए. कलकत्ता के दक्षिणेश्वर बम केस के सम्बन्ध में गिरफ्तार होने के बाद उस मामले में उनको 10 वर्ष के लिए कालेपानी की सजा हो गयी. वह सजा हुई ही थी की काकोरी केस के सम्बन्ध में तलब किये गए. कलकता से वे लखनऊ लाये गए और उन पर काकोरी केस का का मामला चला.

मामले में एक दिन उनसे से कुछ तकरार हो गयी. हवलदार ने श्री लाहिड़ी को हथकड़ियां पहनानी चाही थी. उन्होंने इसका विरोध किया. इसी बात पर कुछ तकरार हो गयी. इसके बाद अदालत में उन्होंने अपने वकील के मार्फ़त इसकी शिकायत करायी तो यह मालूम हुआ कि अदालत ने हथकड़ियाँ पहनाने का कोई आदेश नहीं दिया है.

श्री राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी ने तमाम मुक़दमे में बड़ी शांति से काम लिया. सब अभियुक्तों की भांति इन पर भी तीन धाराएँ लगायी गयी थी. सेशन जज ने इन धाराओं में धरा 121 अ और 120 ब के अनुसार आजन्म कालापानी की औए धारा 396 के अनुसार फांसी की सजा दी. सज़ा के इस हुक्म के बाद वे लखनऊ से बाराबंकी जेल में भेज दिए गए. जेल में वे सदा प्रसन्न-चित और निर्विकार भाव से समय व्यतीत करते थे. इसी बीच कोर्ट और गवर्नर से अपील आदि निष्फल हो जाने के बाद पहली मर्तबा 11 अक्टूबर 1927 को फांसी की तारीख निश्चित हुई. इस तारीख से लगभग 1 सप्ताह पहले 6 अक्टूबर को आपने अपने संबंधियों को एक पत्र लिखा –

“पूरे छ मास तक बाराबंकी और गोंडा जेल की काल कोठरियों में बंद रहने के बाद कल मुझे सुचना मिली है कि एक सप्ताह के भीतर ही फांसी हो जाएगी. अब मै यह अपना कर्तव्य समझता हूँ कि उन सब मित्रों के प्रति अपनी हार्दिक आभार प्रकट करू ,जिन्होंने हम लोगों के लिए हर प्रकार की कोशिश की है. आप लोग मेरा अंतिम नमस्कार स्वीकार कीजिये. हमारे लिए मृत्यु शरीर का परिवर्तन मात्र है. पुराने कपड़े को फेककर नए कपड़े पहन लेना है. मृत्यु आ रही है. मै प्रसन्न-चित और प्रसन्न –वदन से उसका आलिंगन करूँगा. जेल के नियमों के कारण अधिक नहीं लिख सकता. आपको नमस्कार ,सबको नमस्कार. बंदे मातरम.”

किन्तु इस पत्र के बाद वाली फांसी की तारीख टल गयी. इसी बीच में प्रीवी कौंसिल में अपील दायर करने का निश्चय हुआ. इसलिए फांसी की मियाद बढ़ गयी थी. फिर जब प्रीवी कौंसिल ने भी अपील नहीं सुनी और फांसी ही देना निश्चय कर लिया गया ,तब फांसी के तीन दिन पहले 14 दिसम्बर 1927 को श्री राजेंद्र नाथ लाहिड़ी एक और पत्र अपने मित्र के नाम लिखा.

“कल मैंने सुना ,कि प्रीवी कौंसिल ने मेरी अपील ख़ारिज कर दी. आपने हम लोगों की प्राण –रक्षा के लिए बहुत किया, किन्तु यह मालूम पड़ता है ,कि देश की बलि-वेदी हमारे प्राणों की चढ़ने की ही आवश्यकता है. मृत्यु क्या है ? जीवन की दूसरी दिशा के अतिरिक्त और कुछ नहीं. जीवन क्या है ? मृत्यु की दूसरी दिशा के अतिरिक्त और कुछ नहीं. इसलिए मनुष्य मृत्यु से दुःख और भय क्यों माने ? वह तो नितांत स्वाभाविक अवस्था है. उतनी ही स्वाभाविक जितनी ,कि प्रातः कालीन सूर्य का उदय होना. यदि यह सच है ,कि इतिहास पलटा खाया करता है, तो मै समझता हूँ कि मेरी मौत व्यर्थ नहीं जाएगी. सबको मेरा नमस्कार ,अंतिम प्रणाम.”

श्री राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी अपने साथियों से दो दिन पहले ही 17 दिसम्बर को प्रातः काल गोंडा में फांसी पर चढ़ा दिए गए. फांसी के समय उनके भाई बनारस से गोंडा आये थे. 16 दिसम्बर की रात वे बहुत प्रसन्न थे और रात-भर गीता तथा उपनिषद के पाठ करते रहें. फांसी के दिन भी सुबह –सुबह लाहिड़ी व्यायाम कर रहे थे. जेलर ने पूछा, मरने के पहले व्यायाम का क्या प्रयोजन है? श्री लाहिड़ी ने सहज भाव से ऊत्तर दिया, ”जेलर साहब , चूँकि मैं हिन्दू हूँ और पुनर्जनम में मेरी अटूट आस्था है. अतः अगले जन्म में मैं स्वस्थ शरीर के साथ पैदा होना चाहता हूँ ताकि अपने अधूरे कार्यो को पूरा कर देश को स्वतंत्र करा सकूं. इसलिए मैं रोज सुबह व्यायाम करता हूँ. आज मेरे जीवन का सर्वाधिक गौरवशाली दिवस है तो यह क्रम मैं कैसे तोड़ सकता हूँ.”

17 दिसम्बर 1927 की सुबह वे बड़ी प्रसन्नता के साथ श्री राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी ने गोंडा जेल में राष्ट्र के लिए अपने प्राणों को न्योछावर कर दिया.

“हम सरेवार जो वशद शौक घर करते हैं, 

ऊँचा सर कौम का हो नजर ये सर करते हैं,

सूख जाये न कहीं पौधा ये आजादी का,

खून से अपने इसे इसलिए तर करते हैं.”

       लाहिड़ी ....साभार , “बलिदान अंक” से.

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