Is China a friend or foe of India

ये शीर्षक सुनने में आपको बड़ा विचित्र लगेगा। वो भी उस दौर में जब भारतीय जनमानस में चीन के प्रति नफ़रत बढ़ती जा रही। भारत के साथ चीन के संबंधों में आजादी के बाद से ही कड़वाहट ने अपना स्थान बना लिया था, जब 1962 में उसने नेहरू जी के शांति के प्रयासों को धता बताते हुए भारत पर हमला कर दिया था। फिर कभी सिक्किम तो कभी डोकलम और आखिरी लेकिन अंतिम नहीं, गलवान घाटी के युद्ध ने इस शत्रुता को और बढ़ावा दे दिया।

ये सब एक कड़वी सच्चाई है जिसे कभी भी भुलाया नहीं जा सकता और भुलाया जाना भी नहीं चाहिए। ये सब वो कारण है जिसके कारण चीन हमारा तात्कालिक किंतु अस्थायी शत्रु है। अब प्रश्न ये कि वो स्थायी मित्र कैसे है? तो इसके लिए कल्पना कीजिए कि कल को चीन भारत पे हमला करके कब्जा कर ले। यद्यपि मैं मानता हूं कि चीन पूरे भारत पे कब्जे की कोई कोशिश नहीं करेगा। लेकिन ऐसा होता है, तब क्या होगा?

क्या चीन हमारे मंदिरों को तोड़ देगा? क्या वो हमारी हिंदू पहचान को मिटा देगा ? क्या वो हमारी संस्कृति का समूल नाश कर देगा?

उत्तर है- नहीं, क्योंकि चीन सांस्कृतिक रूप से भारत से बहुत अलग नहीं हैं। ना ही हमारी और उसकी संस्कृति में सर्प नकुल के जैसा विरोधाभास है। चीन हमारी संस्कृति को कुछ भी प्रभावित नहीं करेगा ऐसा तो सोचना भी सही नहीं हैं, लेकिन वो हमारी संस्कृति को सर्वथा समाप्त नहीं कर सकता क्योंकि वो खुद भी भारत के सांस्कृतिक बीजों से ही बना है। इसमें चीनी कन्युनिष्टो को न जोड़ें क्योंकि उनका कोई स्थायी चरित्र नहीं होता हैं। इसलिए उसका प्रभाव मुख्य से राजनैतिक और भौगोलिक पड़ेगा।

वर्तमान में भी उसकी भारत से शत्रुता का कारण भौगोलिक, आर्थिक और राजनैतिक है न कि सांस्कृतिक। संस्कृति ही वो स्थायी तत्त्व है जो पारस्परिक मित्रता का साधन होता है। बिना सांस्कृतिक मित्रता के मित्रता अस्थायी होती है और शत्रुता स्थायी। यद्यपि राजनीति में कभी भी कोई स्थायी शत्रु और मित्र नहीं होता है किंतु सांस्कृतिक एकता होने पर शत्रु, शत्रुता करते हुए भी उतना हानिप्रद नहीं होता जितना सांस्कृतिक विरोधी मित्रता करते हुए होता है।

ये बात थोड़ा कठिन है बल्कि मैं भी कहते हुए बहुत कठिनाई अनुभव कर रहा हूं इसके लिए कुछ उदाहरण देखते हैं- अमेरिका और बाकी यूरोपियन देश भारत के अस्थायी मित्र हैं और स्थायी शत्रु हैं। इन देशों से मित्रता का प्रभाव है कि भारत में बाजारवाद बढ़ा है, चर्च मजबूत हुए हैं और धर्मांतरण बढ़ा है और इनके द्वारा ही संरक्षित भी है। ये समस्यायें उदाहरण के लिए कही हैं, समस्याएं और भी हैं जिनका असीमित प्रभाव पड़ा है। ये देश राजनैतिक मित्रता का अल्प लाभ देकर भारत को धीरे-धीरे सांस्कृतिक रूप से नष्ट कर रहें हैं।

यही परिणाम मुस्लिम देशों से मित्रता का भी है। आज हम सांस्कृतिक हिंदू, ईसाई और इस्लामिक दोनों ही संस्कृतियों के प्रभाव से पीड़ित हैं लेकिन इनकी छद्म मित्रता के कारण ठीक से कराह भी नहीं सकते। ये सारी बात सांस्कृतिक भारत के रक्षकों और योद्धाओं के लिए विचारणीय है, राजनीति तो स्वार्थ की दासी है उससे कैसा गिला कैसा शिकवा।

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