Karpoori Thakur Former Chief Minister of Bihar

भारतीय राजनीति में कबीरपंथी विचारधारा के अन्नय उपासक और सिद्ध साधक पुरूष रहे जननायक कर्पूरी ठाकुर का जन्म 24 जनवरी 1924 को समस्तीपुर के कर्पूरीग्राम में एक निम्नवर्गीय गरीब पिछड़े नाई जाति में हुआ था. उन्होंने शुरूआती शिक्षा-दीक्षा पूरी करने के बाद अभाव में अपनी पढ़ाई लिखाई छोड़ दी और स्वाधीनता आंदोलन में कूद पड़े. उस समय बिहार सभी जन आदोलनों का केन्द्र बिंदु हुआ करता था. 

कर्पूरी जी ने असहयोग आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाते हुए 26 महीने जेल में बिताए. और आजादी के बाद जनसेवा को ही अपना लक्ष्य बनाया. बचपन से ही जयप्रकाश जी, लोहीया जी जैसे समाजवादी धारा के बड़े नेताओं के निकट सम्पर्क में रहने की वजह से कर्पूरी जी का झुकाव समाजवाद की तरफ हो गया. और इसी विचारधारा को उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन का उद्देश्य बना लिया.

कर्पूरी जी पहली बार 1952 में मात्र इकतीस साल की इतनी कम उम्र में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर पहली बार समस्तीपुर के ताजपुर विधान सभा क्षेत्र से विधायक बनें. लेकिन बाद में जब 1964 में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी का गठन हुआ तो आप उसके साथ चले गए. देश के कई राज्यों में 1967 के चुनावों में पहली गैर कांग्रेसी सरकारों का गठन हुआ. और उन गैर कांग्रेसी राज्यों में बिहार भी था.जहां साझा सरकार का गठन हुआ. महामाया प्रसाद के नेतृत्व में पहली बार बिहार में गैर कांग्रेस दल की सरकार बनी थी.और जन क्रांति दल के नेता महामाया प्रसाद मुख्यमंत्री और संसोपा के नेता कर्पूरी ठाकुर शिक्षा समेत कई विभागों के उपमुख्यमंत्री बने थे.

हालांकि ये सरकार कई दलों के समर्थन से बनी थी.इसलिए हर सहयोगी दल की निजी महत्वाकांक्षा और पद लोलुपता की वजह से सरकार में आतंरिक कलह दिनों दिन बढ़ता गया और मात्र एक साल के अंदर ही सरकार गिर गई.उसके बाद कांग्रेस के सतीश प्रसाद सिंह सूबे के मुखिया बने.उस चुनाव में कांग्रेस के बाद सबसे अधिक विधायक संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (संसोपा) के जीत कर विधानसभा में पहुंचे थे.कांग्रेस 128 और संसोपा ने 68 सीटें जीती थी.लेकिन संसोपा ने कांग्रेस पार्टी को सत्ता से दूर रखने के लिए गठबंधन की सरकार का समर्थन किया था.

समाज के एक तबके में दबी जुबान से ही सही लेकिन ये बात हमेशा सामने आती रही हैं कि जननायक कर्पूरी ठाकुर उस समय भी मुख्यमंत्री बनने के प्रबल दावेदार थे.लेकिन सियासी साजिश की वजह से वो मुख्यमंत्री बनते-बनते रह गए.लेकिन जब जब जनता ने उनकी भूमिका विपक्ष के नेता के रूप तय की.तब -तब वो सड़क से संसद तक दबे कुचले,शोषित,वंचित,पीड़ित की मुखर आवाज बनकर उनके अधिकारों के लिए आवाज उठाते रहे और दशकों तक विरोधी दल के नेता रहे.

1970 में बिहार की राजनीति ने फिर करवट बदली और कर्पूरी ठाकुर पहली बार मुख्यमंत्री बनें. वे छह महीनें तक सत्ता में रहें, इस दौरान उन्होंने छात्रों की फीस कम कर दी थी. उर्दू को राज्यभाषा का दर्जा दे दिया था.साथ ही साथ उन खेतों की मालगुजारी खत्म कर दी थी. जिससे किसानों को मुनाफा नहीं होता हो.या जिनके पास 5 एकड़ से कम भूमि हो.छह महीने के इतने छोटे से मुख्यमन्त्रीत्व काल में इतने बड़े -बड़े फैसलों ने कर्पूरी ठाकुर को बिहार के उपेक्षित समाज का जननेता बना दिया.उसके बाद कर्पूरी को राष्ट्रीय फलक पर समाजवाद के सबसे बड़े चेहरे के रुप में जाने जाने लगा.

इंदिरा गांधी ने जब देश को 1975 में आपातकाल की आग में झोका था तो कर्पूरी ठाकुर भूमिगत होकर सरकार के इस अलोकतांत्रिक फैसले का मुखर स्वर से प्रतिकार करते हुए लोकतंत्र के बहाली के गीत गुनगुनाते हुए जेल की रोटियां भी खाई.और देश में जब प्रजातंत्र पुनः अपने जीवंत स्वरूप में लौटा तो 1977 में आम चुनाव हुए.यह आम चुनाव आजाद भारत के बाद का लोकतंत्र के नजरिये से काफी निर्णायक और महत्वपूर्ण चुनाव रहा.

ये वो चुनाव रहा जहां आम जनमानस में सत्ता परिवर्तन के साथ साथ व्यवस्था परिवर्तन की गूंज सुनाई दी.इस चुनाव में इंदिरा गांधी के खिलाफ जनता जनार्दन ने परिवर्तन की वो मशाल जगाई.जिससे लोकतंत्र आपातकाल के धोर अंधेरे को चीरते हुए प्रकाश की तरफ बढ़ चला.जो आज भी सूर्य की तरह प्रकाशमान हैं.जिसका अब कभी अस्त नहीं होगा.

आपतकाल के बाद हुए 1977 के छठे चुनाव में पहली बार देश की सत्ता से कांग्रेस का एकछत्र राज खत्म हुआ और मोरारजी देसाई की अगुवाई में जनता पार्टी की सरकार बनी.और वो इस देश के छठे प्रधानमंत्री बने.इस चुनाव में जनता पार्टी को 298 सीटें मिली थी,और कांग्रेस गठबंधन को 153 सीटें मिली थी..लेकिन कांग्रेस के चोटी के नेता इंदिरा गांधी को अपनी परंपरागत सीट रायबरेली और संजय गांधी को अमेठी से हार का सामना करना पड़ा.

इस ऐतिहासिक चुनाव में कई बड़े-बड़े दिग्गजों की करारी शिकस्त हुई.साथ ही साथ अलग अलग विचारधारा के और उस समय इंदिरा विरोध राजनीति के कई बड़े चेहरें पहली बार देश की सबसे बड़ी पंचायत लोकसभा में दस्तक दिए.उनमें समाजवादी नेता कर्पूरी जी प्रमुख थे.वे समस्तीपुर से जीत दर्ज करके लोकसभा में पहुंचे थे.और तब उन्होंने कहा था कि "संसद के विशेषाधिकार कायम रहें लेकिन जनता के अधिकार भी. 

यदि जनता के अधिकार कुचले जायेंगे तो एक न एक दिन जनता संसद के विशेषाधिकारों को चुनौती देगी".कर्पूरी जी के ये संसदीय आदर्श वाक्य सत्ता के जयकारों के बीच कहीं गुम सी हो गई है.लेकिन उनके इन आवाजों के धमाके की गूंज हजारों बम बारूद से कई गुना गगनभेदी होगी.

24 जून 1977 को दूसरी बार मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने लोकसभा के सदस्य पद से इस्तीफा दे दिया.अविभाजित बिहार की कमान अपने हाथों में लेने के बाद उन्होंने 11 नवंबर 1977 को मुंगेरी लाल समिति की सिफारिशें लागू कर दीं.जिसके चलते पिछड़े वर्ग को सरकारी सेवाओं में 26 फिसदी आरक्षण का लाभ मिलने लगा. एससी-एसटी के अलावा ओबीसी के लिए आरक्षण लागू करने वाला बिहार देश का पहला राज्य बना.

अनुसूचित जाति,जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के अलावा उन्होंने आज से चार दशक पहले ही सवर्ण गरीबों के लिए तीन-तीन फीसदी आरक्षण का प्रावधान किया था.जिसको बाद में कोर्ट ने खत्म कर दिया था.बिहार के आप एक ऐसे नेता रहे जो बिना किसी जातीय समीकरण के बिहार जैसे राज्य के मुख्यमंत्री पद तक पहुंचे.इस मंजिल तक पहुंचने में जाति की दिवार कभी आपके लिए बाधक नहीं बनी....

आज कल राजनीति जहां सुविधाभोगी हो गई हैं. वहीं कर्पूरी जी का समाजिक जीवन ईमानदारी और सादगी की मिसाल पेश करता है.मुख्यमंत्री रहते हुए रोजमर्रा के सब काम जैसे कपड़ा धोना,कपड़े को प्रेश करना,और रिक्शा व बैलगाड़ी से यात्रा करना उनके विलक्षण व्यक्तित्व को दर्शाती हैं. लालबहादुर शास्त्री के बाद आप एक ऐसे राजनेता रहे.जिनके रोम-रोम में शुचिता, पारदर्शिता, प्रमाणिकता, समायी हुई थी. जिससे मैजूदा सियासी नस्लों को सीख लेनी चाहिए. 

उनका संघर्ष, सरलता, सादगी और ईमानदारी हमें इस बात का संदेश देता है कि अगर आदमी के अंदर मजबूत इच्छाशक्ति हो तो कोई भी मुकाम हासिल किया जा सकता है. मैजूदा दौर की राजनीती में जब परिवारवाद इस कदर हावी है कि अब कोई भी राजनैतिक दल इससे अछुती नहीं हैं तो हमें अपने अतीत के सियासत के सुनहरे पन्नों को जरूर पलटना चाहिए.और हमें यह जानना चाहिए कि कर्पूरी जी अपने जीते जी परिवार के किसी भी सदस्य को सियासत में आने की अनुमति नहीं दी. 

वे परिवारवाद के प्रबल विरोधी थे.और कहते थे कि परिवारवाद को प्रश्रय देने से राजनीति का क्षरण होता हैं.और गैर राजनैतिक चेतना वाले लोग शासन सत्ता और सरकार में भागीदार हो जाते हैं.जो जनकल्याणकारी नीतियां कभी नहींऊ बना सकते और ना ही उनको इसकी समझ होती हैं.कर्पूरी जी के निधन के बाद सभी राजनीतिक दलों ने वोट बैंक साधने के मकसद से उनके पुत्र रामनाथ ठाकुर को राजनीति में लेकर आएं, जो वर्तमान समय में राज्यसभा में जदयू संसदीय दल के नेता हैं.

कर्पूरी जी ने अपने जीवन में जाति और वर्ण व्यवस्था का खुब दंश झेला था. अभिजात्य और कुलीन वर्ग के लोग उनके ऊपर जातिवादी और वर्ण आधारित टिप्पणी किया करते थे. लेकिन कर्पूरी अपने ध्येय निष्ठ जीवन से अडीग नहीं हुए,और इन सब बातों से बेपरवाह समाजिक न्याय और समाजिक समरसता के बीच की एक कड़ी का ताना बाना बुनते रहे.जिसने समाजिक संरचना की एक मजबूत आधारशिला तैयार की. 

बिहार के जननायक के संघर्ष के विस्तार को शब्द देने के लिए गौरीशंकर नागदंश के शब्दों में कहें तो, हिंदुस्तान के करोड़ों शोषितों के हक के लिए,लाखों निरीह नंगे बच्चों की कमीज और स्लेट के लिए,आंखों में यंत्रणा का जंगल समेटे भटकती बलात्कारित आदिवासी और हरिजन महिलाओं की अस्मिता की रक्षा के लिए,बेसहारा किसानों की कुदाल और जमीन के लिए,फूस के बूढ़े मकानों पर उम्मीद की छप्पर के लिए,हांफती सांसों वाले हारे हुए लोगों की जीत के लिए,गांधी,लोहिया और अंबेडकर के सफेद हो चुके सपनों को सतरंगा रंग देने के लिए संघर्ष का नाम थे कर्पूरी ठाकुर.

वर्तमान समय की सियासत जब संक्रमण काल से गुजर रही हैं तो कर्पूरी के विचार और दर्शन अपने आप में बेहद प्रांसगिक हो चले हैं.जेपी,लोहिया,कर्पूरी के विचारों की गठरी को माथे पर लेकर चलने वाले उनके सियासी वारिसों से आम आवाम कुछ ईमानदार सवाल पूछना चाहती हैं.जिनका जबाब शायद इन सियासी रहनुमाओं के पास नहीं हैं. क्योंकि सियासत कभी सच बोलने नहीं देती. लेकिन सच्चाई सर्वविदित है.जिसे हमें देखना चाहिए और महसूस करना चाहिए..

कर्पूरी जी समाजवाद की अलख जगाते जगाते इस धरा को 1988 में छोड़ कर अंनत यात्रा पर निकल पड़े.लेकिन उन्होंने जिन विचारों की दीप प्रज्वलित की थी वो ज्योति अंखड रुप से जलती रहेगी.और इस समाज को प्रकाशित करती रहेगीं. कर्पूरी जी सिर्फ विचारों से ही नहीं, कर्मों से भी अनुकरणीय हैं. 

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