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पिछले दिनों पहली बार जब बिएट्रिस वुड के बारे में जाना तो और भी जानने की उत्सुकता हुई। अद्भुत! विस्मित कर देने वाला जीवन। अपनी कालजयी फिल्म टाइटैनिक की नायिका रोज़ के किरदार को आकार देने के लिए जेम्स कैमरन किसी ऐसी 100 वर्षीया महिला की तलाश में थे, जो रोज़ की तरह जीवंत, दृढ़ निश्चयी और साहसी हो, तब किसी ने उन्हें मशहूर अमेरिकी सेरामिक कलाकार बिएट्रिस वुड के बारे में बताया। जब जेम्स उनसे मिले, वह 100 वर्ष की हो चुकी थी और उस वक़्त भी वह दक्षिणी कैलिफ़ोर्निया के अपने स्टूडियो में सेरामिक के मोहक बर्तन बना रही थी। कैमरन को अपनी रोज़ मिल गई थी।

बिएट्रिस वुड अपने उत्कृष्ट सेरामिक के बर्तन, बोहेमियन जीवन शैली और असाधारण लंबे जीवन के लिए जानी जाती हैं। अपने लंबे जीवन के एक-एक दिन को बिंदास जीने वाली बिएट्रिस105 वर्ष के आखिरी दिनों तक रेशम की खूबसूरत रंगों वाली साड़ी पहन सेरामिक के बर्तन बना रही थी।

सैन फ्रांसिस्को के एक कुलीन समृद्ध परिवार में 3 मार्च 1893 को जन्मीं बिएट्रिस घर और मां से बगावत कर फ्रांस जाकर अभिनय और कला की पढ़ाई की। अभिनय इसलिए कि वह खुद अपने पैरों पर खड़ा हो सके और अपनी जिंदगी जी सके। वहां उनकी मुलाकात मशहूर फ्रेंच कलाकार क्लोद मॉने से हुई। अपने वक़्त के सारे नामचीन लोगों से उनकी पहचान हुई।

सारा बनहाट के साथ उन्होंने स्टेज साझा किया। इज़ाडोरा डंकन के लिए उन्होंने कॉस्टयूम रंगे। अन्ना पावलोवा से लोक नृत्य सीखा। थिएटर में काम करते हुए उनकी भेंट फ्रेंच कलाकार मार्सेल ड्यूशैम्प से हुई। मार्सेल ड्यूशैम्प और हेनरी रोश जैसे कलाकारों के साथ उनका रोमांस लंबे समय तक चला और पहली बार दिल भी टूटा।

वे एनी बेसेंट के थियोसोफिकल सोसायटी से जुड़ी। थियोसोफिकल सोसाइटी ने उन्हें दो अन्य लोगों से मिलवाया, जिन्होंने वस्तुतः उन्हें भारत में पेश किया-रुक्मिणी देवी अरुंडेल और जिद्दू कृष्णमूर्ति। कृष्णमूर्ति ने जब उन्हें आदिवासियों वाले चांदी के आभूषण में देखे तो चौंक उठे। बिटो (बिएट्रिस) ने कहा अगर वह युवा होतीं तो आदिवासियों की तरह नाक भी छिदवा लेतीं।

डॉ राधाकृष्णन ने उन्हें देखा तो कहा कि तुम तो बिलकुल जिप्सी की तरह हो। एक अन्य अधिकारी राम सिंह ने कहा- हे भगवान! यह तुमने क्या पहना है ? हमारे यहां तो यह नीची जातियों द्वारा पहनी जाती है। तब बिटो ने कहा, 'यह शर्म की बात है कि आप अपनी इस कला की सुंदरता को नहीं जानते। उस समय एथनिक ज्वैलरी फैशन में नहीं था।

सेरामिक के साथ उनकी शुरूआत अनायास ही हुई। एक बार वे कृष्णमूर्ति से मिलने हॉलैंड गई। इस यात्रा में बिटो ने वहां की मशहूर सेरामिक कला के स्मृतिचिन्ह के तौर पर प्लेटों का एक सेट खरीदा। वापस लौटकर उन्हें लगा कि इसके साथ एक टीपॉट भी होना चाहिए। अब टीपॉट बाजार में तो मिलना नहीं था सो उन्होंने 1933 में हॉलीवुड हाई स्कूल के सेरामिक कोर्स में दाखिला लिया। उन्होंने बस इतना ही सोचा था कि सेरामिक कला सीख कर वे अपने लिए एक टीपॉट बनाएंगी। लेकिन उन्हें जल्दी ही लग गया कि इस तरह टीपॉट बनाना आसान नहीं है। वे जन्मजात शिल्पकार नहीं थीं। लेकिन वह जिद्दी थीं। गलतियां करते, सीखते सीखते उन्होंने इसमें महारत हासिल कर लिया। इसके बाद जो हुआ वह सेरामिक कला का नया इतिहास था।

1960 में मुंबई में उनके सेरामिक बर्तनों की प्रदर्शनी अखिल भारतीय हस्तशिल्प बोर्ड चलाने वाली स्वतंत्रता सेनानी कमलादेवी चट्टोपाध्याय ने लगवाई। लोगों की भीड़ टूट पड़ी और हाथों हाथ उनके तमाम कलाकृतियां बिक गईं। लोगों के प्यार ने उन्हें अभिभूत कर दिया।

भारत के साथ गहरे लगाव का एक और कारण भी था। बिटो यहां के एक शीर्ष वैज्ञानिक के गहरे प्रेम में थीं। लेकिन वह जानती थी कि उनका मिलन संभव नहीं था। लेकिन फिर भी वह उनके साथ कुछ वक़्त बिताने भारत आती रहीं। यद्यपि उस वैज्ञानिक का नाम उन्होंने किसी को भी नहीं बताया।

बिटो का निधन 1998 में 105 वर्ष की उम्र में हुआ। जीवन के आखिरी 25 वर्ष उन्होंने खूब काम किये। उनकी कलाकृतियां हाथों हाथ बिकती थीं। 90 वर्ष की उम्र में उन्होंने पहली किताब लिखी- आई शॉक माइसेल्फ। दूसरी किताब 'थर्टी थर्ड वाइफ ऑफ अ महाराजा: लव अफेयर इन इण्डिया’ थी।

बोहेमियन जीवन शैली के बावजूद उन्हें सच्चे प्यार पर यकीन था। उन्होंने दो बार शादी की, लेकिन पति से प्यार कभी नहीं हुआ। उन्हें सात बार गहरा प्यार हुआ, लेकिन इनमें से किसी भी पुरुष से उन्होंने शादी नहीं की। मार्सेल ने एक बार उन्हें कहा था, प्यार और सेक्स दोनों अलग अलग चीजें हैं। तब सुनकर उन्हें झटका लगा था।

वह एक महान कलाकार और चिंतक ही नहीं मजाकिया भी थी। जब कोई उनसे उनके लंबे जीवन का रहस्य पूछता तो अक्सर हंसते हुए कहती- मैं इसका श्रेय कला की पुस्तकों, चॉकलेट्स और जवान लड़कों को देती हूं।

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