File Photo: MAMATA BANERJEE

फाइटर एवं बेदाग छवि वाली ममता बनर्जी ने देश की राजनीति में जो मुकाम हासिल की हैं उसके लिए दीदी को लंबा संघर्ष करना पड़ा है. 05 जनवरी, 1955 को कोलकाता के प्रोमिलेश्वर बनर्जी और गायत्री देवी के घर जन्मी ममता ने कांग्रेस के साथ जुड़कर राजनीति कि शुरुआत की थी. साल 1970 में एक वर्कर के तौर पर कांग्रेस से जुड़ी और धीरे-धीरे सत्ता की सीढ़ी चढ़ते हुए साल 1976 में वह महिला कांग्रेस की महासचिव चुनी गयी. फिर साल 1984 में जादवपुर संसदीय क्षेत्र से दिग्गज माकपा नेता सोमनाथ चटर्जी को हराकर सबसे कम उम्र की सांसद बनी. आएये जानते हैं कि भारतीय राजनीति में उनका कैसा रहा राजनीतिक करियर?

कलकत्ता विश्वविद्यालय से इतिहास में स्नातकोत्तर की डिग्री हासिल करने वाली ममता ने जोगेश चंद्र चौधरी कानून महाविद्यालय से कानून की डिग्री भी प्राप्त की है. राजीव गांधी के प्रधानमंत्री रहने के दौरान उनको युवा कांग्रेस का राष्ट्रीय महासचिव बनाया गया. कांग्रेस-विरोधी लहर में वर्ष 1989 में वे लोकसभा चुनाव हार गई थीं.लेकिन ममता ने हताश होने की बजाय अपना पूरा ध्यान बंगाल की राजनीति पर केंद्रित कर लिया. वर्ष 1991 के चुनाव में वे लोकसभा के लिए दोबारा चुनी गईं और केंद्र की तत्कालीन नरसिम्हा राव सरकार में दीदी को मानव संसाधन, युवा कल्याण, खेलकूद और महिला एवं बाल विकास राज्यमंत्री बनाया गया.

दीदी कांग्रेस के प्रथम पंक्ति के नेताओं में गिने जाने लगीं. बतौर मंत्री उन्होंने कई बार अपनी ही सरकार के फैसलों का विरोध किया और आखिरकर साल 1997 में वह कांग्रेस पार्टी से अलग हो गयीं. इसके बाद उन्होंने एक जनवरी, 1998 को कांग्रेस पर माकपा के सामने हथियार डालने का आरोप लगाते हुए अपनी नई पार्टी तृणमूल कांग्रेस बना ली. फिर साल 1998 से 2001 तक वह एनडीए के साथ रहीं. अक्तूबर, 2001 में ममता ने केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की अगुवाई वाली एनडीए सरकार में रेल मंत्री का पद संभाला. निम्न मध्यम वर्गीय परिवार से आने वाली ममता अपनी सादगी के लिए जानी जाती हैं.

लेकिन तहलका कांड की वजह से महज 17 महीने बाद ही इस्तीफ़ा देकर सरकार से अलग हो गईं. उसके बाद उन्होंने कांग्रेस के साथ हाथ मिलाया. जनवरी 2004 में कुछ दिनों के लिए वह फिर केंद्र में कोयला मंत्री बनीं. लेकिन उसी साल हुए लोकसभा चुनाव में एनडीए के हार जाने की वजह से ममता की यह पारी भी छोटी ही रही. फिर साल 2009 में वो एक बार फिर कांग्रेस के साथ जुड़ी और मनमोहन सिंह की सरकार में उन्होंने रेल मंत्री का पदभार संभाला.

दीदी के सियासी सफर को माइलेज देने का काम किया टाटा-सिंगूर और नंदीग्राम की घटना ने. साल 2005 में सिंगूर और नंदीग्राम में किसानों की जमीन के अधिग्रहण का ममता ने पुरजोर विरोध किया और किसानों एवं आम लोगों के बीच मसीहा बनकर उभरीं. इस मुहिम में ममता के साथ मेधा पाटकर, अंरुधती राय, अपर्णा सेन जैसी हस्तियां किसानों के साथ देने के लिए उनके साथ मंच साझा करते नजर आई. बाद में टाटा को झुकते हुए अक्टूबर 2008 में सिंगूर छोड़ना पड़ा. आपको बताते चले कि साल 2012 में टाइम पत्रिका ने ममता दीदी को दुनिया के 100 सबसे प्रभावरशाली लोगों की सूची में भी शामिल किया था.

किसान, मजदूर और आम लोगों का मसिहा बन चुकी ममता दीदी अब बंगाल की राजनीति में सबसे मजबूत दावेदार बनकर उभरीं. फिर आया साल 2011 का बंगाल विधानसभा चुनाव, जिसमें ममता दीदी ने इतिहास रचते हुए 34 साल से बंगाल की सत्ता पर कायम लेफ्ट को बेदखल करके चुनाव में पूर्ण बहुमत हासिल किया और पश्चिम बंगाल की की पहली महिला मुख्यमंत्री बनीं. इस चुनाव में ममता दीदी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस ने 184 सीटें जीतीं. फिर 2016 बंगाल विधानसभा चुनाव में दोबारा जीत का सिलसिला बरकरार रखते हुए 2011 से भी बड़ी जीत दर्जी की. इस चुनाव में दीदी की पार्टी टीएमसी को कुल 294 सीटों में से 211 सीटें मिलीं.

अब बारी थी बंगाल विधानसभा चुनाव 2021 की, जिसमें बीजेपी ने पूरी ताकत झोंक दी थी. खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एवं गृहमंत्री अमित शाह समेत बीजेपी के तमामा दिग्गज नेता बंगाल के चुनावी रण में ताल ठोक रहे थे इसके बावजूद उन्हें मूंह की खानी पड़ी और टीएमसी ने 2016 से भी बड़ी जीत दर्ज की है. इस चुनाव में जहां टीएमसी को 47.94 फीसदी वोट शेयर के साथ 213 सीटें मिलीं. वहीं बीजेपी 38.13 मत प्रतिशत के साथ 77 सीटों पर सिमट कर रह गईं. चुनाव के नतीजे आने के साथ ही स्थिति साफ हो गई कि बंगाल में मोदीगिरी नहीं दीदीगिरी चली हैं और ममता दीदी तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने जा रही हैं.

वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में ममता देश की सबसे मज़बूत इरादे वाली महिला नेताओं में से एक हैं. दीदी ने पॉलिटिक्स की एक अलग स्टाइल को अपनाया है. इस स्टाइल में दीदी का वो विद्रोही अंदाज शामिल है जिसमें ज़िद, टकराव और निडरता हैं. इसी गुण की बदैलत दीदी ने अपने करियर में कई ऐसी चीज़ों को संभव कर दिखाया है जिसकी उससे पहले कल्पना तक नहीं की जा सकती थी. इसमें वाममोर्चा सरकार को अर्श से फ़र्श तक पहुंचाना भी शामिल है.

ममता को आम लोगों से जुड़े मुद्दों पर कहीं भी अनशन करने या पुलिस की मार खाने तक से परहेज़ नहीं रहा. वह आजीवन दूसरों के हक़ की लड़ाई लड़ती रहीं. इसके लिए बड़े से बड़े नेताओं से टकराने से भी उनको परहेज़ नहीं रहा. नफ़ा-नुक़सान की परवाह किए बिना वे आजीवन तमाम फ़ैसले करती रहीं. ज़िद और टकराव की इस संघर्ष ने ही ममता दीदी को क़ामयाबी के शिखर तक पहुंचाया है. 

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