image Credit: Amit Nain Facebook Wall

कृषि से संबंधित तीन नए बिल को लेकर सरकार पर किसानों का गुस्सा फूट रहा है. इस मसले पर केन्द्र सरकार बैकफुट पर है. यहां तक कि एनडीए कुनबे में दरार भी पड़ चुकी है. आपको बता दें कि एनडीए के सहयोगी रहे अकाली दल इसी वजह से एनडीए से अलग हुई. गौरतलब है कि लोक सभा में कृषि संबंधी तीन बिल पास हुई है. ये 3 बिल है- पहला बिल है: कृषि उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) बिल. दूसरा बिल है: मूल्य आश्वासन और कृषि सेवाओं पर किसान (संरक्षण एवं सशक्तिकरण बिल) और तीसरा बिल है: आवश्यक वस्तु संशोधन बिल.

कृषि कानून को लेकर जहां एक ओर केंद्र सरकार इसके फायदे बताकर अपनी बातों पर अडिग है. सरकार का तर्क है कि इससे कृषि पैदावार को किसान किसी भी राज्य में बेच सकेंगे. पहले किसान अपने राज्य की कृषि उपज बाज़ार समिति(APMC) के मंडियों में ही इसे बेच पाते थे. इससे किसानों को अपनी उपज का बेहतर दाम मिलेगा और कृषि उत्पादों की इलेक्ट्रॉनिक ट्रेडिंग हो पाएगी. वहीं दूसरी ओर किसान संगठन और विपक्ष सरकार पर हमलावर रुख अख्तियार किए हुए हैं.

किसानों का तर्क हैं कि इस बिल से उन्हें मिलने वाले न्यूनतम समर्थन मूल्य(MSP) पर खतरा पैदा हो जाएगा. किसान इस बिल को खेती-बाड़ी, मजदूर-आढ़ती-अनाज व सब्जी मंडियों को जड़ से खत्म करने की ओर सरकार की एक साजिश बता रहे हैं. APMC को खत्म करने से ‘कृषि उपज खरीद व्यवस्था’ पूरी तरह नष्ट हो जाएगी. ऐसे में किसानों को न तो MSP मिलेगा और न ही बाजार भाव के अनुसार फसल की कीमत.

एमएसपी क्या होता है?

न्यूनतम समर्थन मूल्य वो मूल्य होता है, जिस पर सरकार किसानों द्वारा बेचे जाने वाले अनाज की पूरी मात्रा खरीदने के लिए तैयार रहती है. जब बाज़ार में कृषि उत्पादों की कीमत कम होने लगती है, या फिर खरीदार नहीं मिलते तब सरकार किसानों से न्यूनतम समर्थन मूल्य पर फसल खरीद कर उनके हितों की सुरक्षा करती है, और किसी भी साल में निर्धारित फसल के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य क्या होगी, इसकी घोषणा सरकार फसल बोने से पहले करती है. ऐसी घोषणा सरकार द्वारा कृषि लागत एवं मूल्य आयोग की रेकमेन्डेशन पर साल में दो बार रबी और खरीफ के मौसम में करती है.

एपीएमसी न होने से किसानों को क्या नुकसान होगा?

कृषि उपज बाज़ार समिति(एपीएमसी) का एकाधिकार खत्म होने से न्यूनतम समर्थन मूल्य देने का भी कोई मतलब नहीं रह जाएगा, जो सरकार किसानों के हितों की रक्षा के लिए तय करती है. ऐसे में जब किसान तंगहाली में जीवन-बसर करने को मजबूर है, सरकार को मौजूदा प्रणाली को और मजबूत करने की जरूरत है.

अब बात करते है उन तथ्यों की जो किसानों को आशंकित कर रहा है. उन्हें बैचेन कर रहा कि वे सरकार के इस नीति से बेघर न हो जाए. अर्थात् किसानों को ये डर सता रहा है कि औधोगिक समूहों की एंट्री होने से सरकार अपना पल्ला झाड़ रही है और बाद में उन्हें विवश होकर कंपनियों के इशारे पर काम करना होगा. उनका ये डर जायज भी है. यदि हम विगत कुछ सालों से कृषि क्षेत्र में सरकार की रवैये का अध्ययन करे तो ये साफ जाहिर होता है कि उसके कथनी और करनी में कितना अंतर है?

अगस्त 2014 में केंद्र सरकार की ओर से गठित शांता कुमार समिति की रिपोर्ट में इस बात का खुलासा हुआ है कि केवल 6 फ़ीसदी किसान ही MSP पर फ़सल बेच पा रहे हैं यानि 94 फ़ीसदी किसान आज भी खुले बाज़ार में फ़सल बेचने को मजबूर हैं. क्या उन्हें MSP के बराबर या उससे ज़्यादा दाम मिल रहा है? अब सवाल यह है कि जब इन 94 फ़ीसदी को MSP के बराबर या उससे अधिक दाम नहीं मिल रहा तो 100 फ़ीसदी को कैसे मिलेगा? जो लोग कुतर्क कर रहे हैं कि इन क़ानूनों में MSP हटाने का कोई ज़िक्र नहीं है. वैसे लोग जमीनी हककीत से कोसों दूर है. जब सरकार MSP हटाने या इसे अप्रासंगिक करने का इरादा नहीं रखती तो MSP पर ख़रीद की गारंटी का प्रावधान क्यों नहीं कर रही है?

अगर सकरार की मंशा कृषि विपणन में सुधार करने का है तो MSP के दायरे में आने वाले किसानों की संख्या 6 फ़ीसदी से बढ़ाकर 100 फ़ीसदी होनी चाहिए. साल 2003 में वाजपेई सरकार ने जो मॉडल APMC एक्ट बनाया था उसको लागू करवाने की कौशिश की जानी चाहिए. हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि MSP किसानों का सुरक्षा कवच है. हालांकि ये कभी ठीक से लागू नहीं हुआ फिर भी ये किसानों के लिए संजीवनी बूटी के समान है.

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