इस बार का पश्चिम बंगाल का चुनावी दंगल सभी राजनीतिक पार्टियों के लिए अस्तित्व की लड़ाई है. जिस पार्टी को भी हार मिलेगी वह उसके आगे की वजूद को तय करने में निर्णायक साबित होगी. सियासी वजूद की इस लड़ाई में अगर हार बड़े अंतर से होती है तो वजूद मिटने का खतरा और भी गहरा होगा. इन्हीं संभावित राजनीतिक समीकरणों के चलते पश्चिम बंगाल का चुनाव इस बार ऐसा होने वाला है जो इससे पहले कभी नहीं हुआ. इसलिए हर पार्टी इस निर्णायक लड़ाई में कमर कस चुकी है और और इसीलिए दांव पर बहुत कुछ लगा हुआ है. ममता बनर्जी के ही शब्दों में कहें तो ‘अभी, नहीं तो कभी’ वाली स्थिति है.
यह चुनाव इसलिए भी और अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि पिछले साल हुए बिहार चुनाव के विपरीत, यह चुनाव विचारधारा की लड़ाई बन चुका है. एक ओर उदारवादी, सेक्युलर, बहुलतावादी विचार को पेश करने वाली दल है तो वहीं दूसरी ओर हिंदु राष्ट्र की विचारधारा को आगे रखने वाली पार्टी उससे डटकर मुकाबला करने को तैयार है. हालांकि ममता बनर्जी ने इसे बंगाली बनाम बाहरी का चुनाव बनाने की कोशिश की है. उन्होंने ऐलान किया है कि यह चुनाव बंगाल की आत्मा को बचाने का चुनाव है. इसके अलावा यह चुनाव दो लोकप्रिय और कुछ हद तक अधिकारवादी नेताओं का मुकाबला भी है. जो भी हारेगा, उसके लिए बहुत बड़ा राजनातिक नुकसान होगा.
अगर हम बंगाल की राजनीतिक इतिहास पर नजर डाले तो तृणमूल कांग्रेस, वामदल और कांग्रेस इन तीनों पार्टियों का दशकों से वहां की राजनीति पर वर्चस्व रहा है, लेकिन पहली बार इन तीनों दलों को कड़ी चुनौती के रूप में बीजेपी का सामना करना पड़ रहा है. अगर तृणमूल कांग्रेस चुनाव हारती है और बड़े अंतर से हारती है, तो पार्टी में बड़े पैमाने पर पार्टी में उठा-पठक होगी. वहीं अगर बीजेपी बड़े अंतर से हारती है, तो इसका असर पूरे देश पर पड़ेगा. इनके अलावा कांग्रेस और वामदलों को मुकाबले में बने रहना अपने वजूद को बचाये रखने के लिए बेहद जरूरी है.
बात आंकड़ों की करें तो पश्चिम बंगाल की 295 सदस्यों वाली मौजूदा विधानसभा में तृणमूल कांग्रेस के 211 विधायक है. 2016 के चुनाव में बीजेपी मात्र 3 सीटें जीत पाई थी जबकि कांग्रेस ने 44 और वामदलों ने 26 सीटों पर जीत हासिल की थी. लेकिन जिस तरीके से लोकसभा चुनाव 2019 में स्थितियां बदली और ये ट्रेंड इस चुनाव में भी कायम रहा तो परिणाम अप्रत्याशित होंगे!
अगर 2019 के लोकसभा चुनाव वाला ट्रेंड बरकरार रहा जिसमें बीजेपी ने 18 सीटें जीती थीं तो उसकी सीटों में अभूतपूर्व बढ़ोत्तरी हो सकती है. 2016 की मात्र तीन सीटों से जितनी भी अधिक सीटें बीजेपी के हिस्से में आती हैं, सारा नुकसान मोटे तौर पर तृणमूल कांग्रेस का ही होगा. सियासी दंगल का मिजाज कांग्रेस-वाम मोर्चा के सेक्युलर फ्रंट और ओवैसी की एआईएमआईएम की सीटें पर भी निर्भर करेगा. और इससे भी अहम की ओवैसी किसे नुकसान पहुंचाएंगे?
परंपरागत रूप से देखें तो अगर मुकाबला त्रिकोणीय होता है तो फायदा बीजेपी होगा और इसका खामियाजा ममता बनर्जी को भुगतना होगा. हालांकि अधिकतर चुनावी विश्लेषकों का मानना है कि तृणमूल और बीजेपी के बीच सीधा फाइट है. वहीं हाल के दिनों में जिस तरह से बीजेपी ने तृणमूल में सेंधमारी की है और ममता के कई मंत्री और विधायकों को अपने पाले में किया है उससे बीजेपी अपने आप को मजबूत स्थिति में दिखा रही है.
बीजेपी के लिए जो लाभ वाली स्थिति बन रही है वह है उसके पास असीमित संसाधन, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जैसा एक हाई प्रोफाइल प्रचारक, अमित साह जैसा रणनीतिकार, कई राज्यों के मुख्यमंत्री, केंद्रीय मंत्रियों की फौज और मीडिया पर उसकी गहरी पकड़. लेकिन जमीनी स्तर पर संगठनात्मक तौर पर बीजेपी मजबूत नहीं है. सियासत के पारखी ये बात कह रहे हैं कि बीजेपी सिर्फ संसाधन के दम पर भीड़ जुटा रही है और केंद्रीय एजेंसियों का इस्तेमाल अपने राजनीतिक फायदे के लिए कर रही है.
वैसे 2016 में जिस तरह से इसने सारदा-नारदा घोटाले का शोर मचाया था लेकिन अब उस पर बीजेपी यू-टर्न ले चुकी हैं, और लोगों को यह दोहरापन नजर भी आ रहा है. क्योंकि उसमें से कई आरोपी नेता अब बीजेपी के साथ है. इसके अलावा राष्ट्रीय स्तर पर भी बीजेपी आर्थिक मोर्चे, किसानों की समस्या, मंहगाई और रोजगार पर बैकफूट पर है. इन मोर्चे पर उसकी नाकामियां किसी से छिपी हुई नहीं है.