The leader of social change Vishwanath Pratap Singh

राजमहलों के वैभव और राजसी ढाट-बाट के बीच पला बढ़ा वो राजकुमार जिसने अपने सियासी बाजीगरी के हर दाव पेंच से अपनी छवि सामाजिक न्याय के मसीहा के तौर पर गढ़ते हुए राजनैतिक विमर्श के मुद्दें को एक ऐसा नया आयाम दिया. जिसकी चर्चा समाज और सियासत के चौपालों में हमेशा होती रहती हैं. वे राजनेता कोई और नहीं देश के पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह थे. उनका जन्म 25 जून 1931 को इलाहाबाद में स्थित डैया रियासत में हुआ था. उनके पिता का नाम राजा बहादुर भगवती प्रसाद सिंह था और उनकी तीन पत्नियां थी.पहली पत्नी से तीन बेटे थे. उनमें संतबख्श सिंह,हर बक्श सिंह,राजेन्द्र बक्श सिंह थे और तीसरी पत्नी से चन्द्रशेखर प्रताप सिंह और विश्वनाथ प्रताप सिंह पैदा हुए थे. लेकिन इन पाचों भाईयों में इतना अगाध प्यार और अपनत्व था कि ये सहदोर भाई जैसे लगते थे. इन सब भाईयों में संतबख्श सिंह एक ऐसे भाई थे, जिनका विश्वनाथ प्रताप सिंह के ऊपर गहरा प्रभाव पड़ा. वहीं संतबख्श सिंह 1967 और 1971 में दो बार कांग्रेस के टिकट पर फतेहपुर संसदीय सीट से सासंद भी निर्वाचित हुए थे.

इलाहाबाद में एक और रियासत हुआ करती थी माण्डा. माण्डा और डैया ये दोनों रियासत पहले कभी एक ही वंश गहरवार राजवंश के अधीन हुआ करता थी.लेकिन कई पीढ़ियों पहले उनमें बंटवारा हो गया था.माण्डा के राजा राम गोपाल सिंह का कोई पुत्र नहीं था तो उन्होंने पड़ोसी रियासत डैया के राजकुमार विश्वनाथ प्रताप सिंह को पांच साल की उम्र में दत्तक पुत्र के रुप में चुना लिया था.और जब माण्डा नरेश का निधन हुआ तो वीपी सिंह इस राजपरिवार के उत्तराधिकारी बने और लोग इन्हें प्यार से राजा साहब कहकर पुकारते थे.

अपनी प्रारम्भिक पढ़ाई-लिखाई पूरा करने के बाद वीपी सिंह ने इलाहाबाद और पूना विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा ग्रहण की.आप 1947-48 में उदय प्रताप सिंह कालेज (यूपी कालेज) वाराणसी के छात्रसंघ अध्यक्ष और आगे चलकर इलाहाबाद विश्वविद्यालय के उपाध्यक्ष भी रहे.शिक्षा दीक्षा पूरी करने के बाद आप अपने गांव को लौटे आएं और इलाहाबाद के कोरांव इलाके में अपने पिता जी के नाम पर वर्ष 1965 में गोपाल सिंह इंटर कालेज की स्थापना की.उस विद्यालय की बुनियाद रखने के लिए वीपी सिंह ने काफी मेहनत की थी. और खुद ईंट तक ढ़ोया था. जब विद्यालय बन कर तैयार हुआ तो इसका शिलान्यास आचार्य विनोबा भावे ने किया था.उसके बाद यहां सुचारू रूप से पढ़ाई-लिखाई संचालित होने लगा. वीपी सिंह ना तो इस विद्यालय के प्रबंधक बने और ना ही प्रधानाचार्य बने.उन्होंने बस एक शिक्षक की भूमिका में बच्चों को लम्बे समय तक पढ़ाया.जो उस समय काफी सुर्खियां बनी थी. जिसकी खबर बीबीसी लंदन ने भी चलाया था.उसके बाद उन्होंने गृह जिले में शिक्षा को बढ़ावा देने के उद्देश्य से पांच विद्यालयों की और स्थापना की थी जहां सबके लिए शिक्षा सुलभ और सस्ती हो सके..

समाजिक कार्यों में अभिरुचि रखने वाले वीपी सिंह ने आचार्य विनोबा भावे के भूदान आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया.और यमुना पार और फूलपुर की खेती योग्य अपनी 30 हजार बीघा जमीन दान कर दी.तब विनोबा जी ने वीपी सिंह से कहा कि हम तो छठा हिस्सा लेते हैं,बाकी जमीन आप वापस ले लिजिए.लेकिन वे नहीं माने और कहा कि दी हुई जमीन हम वापस नहीं लेगें.

इलहाबाद और आसपास के इलाकों में वीपी सिंह की लोकप्रियता को देखते हुए इंदिरा गांधी ने उनको कांग्रेस पार्टी में शामिल होने के लिए संदेश भेजा. लेकिन उन्होंने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. उसके बाद इंदिरा जी ने लालबहादुर शास्त्री को वीपी सिंह के पास भेजा. उस समय शास्त्री जी हवाई जहाज से इलहाबाद आए और वीपी सिंह को दिल्ली लेकर चले गए और वहीं उनको कांग्रेस पार्टी की प्राथमिक सदस्यता ग्रहण कराई गई. वीपी सिंह अपने राजनैतिक जीवन के आरम्भिक दिनों में इंदिरा गांधी,लाल बहादुर शास्त्री,हेमवती नंदन बहुगुणा के काफी करीब आएं और 1969 में पहली बार उत्तर प्रदेश विधानसभा के सदस्य बने. 

1971 के आम चुनाव में फूलपुर से सांसद चुने गए.और इंदिरा गांधी सरकार में वाणिज्य उपमंत्री बने.उसके बाद 1977 में देश को जब आपातकाल के आग में झोकां गया.उस समय वीपी सिंह ने इंदिरा गांधी के नेतृत्व में आस्था और विश्वास जताते हुए कांग्रेस पार्टी के साथ जुड़े रहे.लेकिन जब आपातकाल हटने के बाद 1977 में आम चुनाव हुए तो कांग्रेस पार्टी की करारी हार हुई और जनता पार्टी की सरकार बनी.यह सरकार आंतरिक कलह और दोहरी सदस्यता के मुद्दे पर ज्यादे दिन तक नहीं चल सकी और गिर गई.उसके बाद इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी ने ऐतिहासिक वापसी करते हुए 1980 में सरकार का गठन किया. उस आम चुनाव के साथ-साथ यूपी में विधानसभा के भी चुनाव हुए थे. जहाँ कांग्रेस पार्टी ने बड़ी जीत दर्ज की थी. वीपी सिंह जिन्होंने इलहाबाद से लोकसभा का चुनाव जीता था. उन्हें केन्द्र की राजनीति से राज्य की राजनीति में प्रदेश का मुख्यमंत्री बना कर भेजा गया और उन्होंने अविभाजित उत्तर प्रदेश के 12 वें मुख्यमंत्री के रुप में कमान संभाली. 

उनके मुख्यमन्त्रीत्व काल में डाकुओं का बड़ा आतंक था.वीपी सिंह ने वादा किया था कि डाकुओं को खत्म नहीं कर पाए तो इस्तीफा दे दूंगा. उन्होंने पुलिस को आदेश दिया इन डाकुओं को पकड़ो या मार दो.उसके बाद उत्तरप्रदेश पुलिस पूरी तरह से सक्रिय हो गई.एक-एक डाकू को चुन चुनकर ढूंढा जाता,गिरफ्तार किया जाता और अगर कोई डाकू हमला करता तो उसे गोली मार दी जाती थी.एक तरह से राजा साहब ने डाकुओं के अंदर कानून का डर बहुत अंदर तक बिठा दिया था.डाकुओं के विरुद्ध इतने बड़े पैमाने पर पुलिस अभियान में दस्यु-उन्मूलन की आड़ में निर्दोष नागरिकों पर अत्याचार होने के आरोप भी लगे.मुलायम सिंह यादव ने इसी बात को आधार बनाकर राज्य में अपनी राजनीति को ख़ूब चमकाया और वे वीपी सिंह के प्रबल राजनीतिक विरोधी बनकर उभरे.उन्होंने वीपी सिंह पर आरोप लगाया कि वे अपने भाई की हत्या का प्रतिशोध निर्दोषों से ले रहे हैं.

दरअसल, 1982 में वीपी सिंह के सगे भाई न्यायाधीश चन्द्रशेखर सिंह जो कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश हुआ करते थे.वो अपने पुत्र अजीत सिंह के साथ इलाहाबाद-बादां मार्ग पर बरगढ़ शंकरगढ़ के जगलों में शिकार खेलने गए.जहां डाकुओं इन दोनों पिता पुत्र की हत्या कर दी.इस नृशंस हत्या के बाद वीपी सिंह अंदर से पूरी तरह से टूट चुके थे और उनके ऊपर इसको लेकर तमाम तरह के सवाल खड़े होने लगे.उसके बाद उन्होंने मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया.वीपी सिंह के इस त्यागपत्र की तुलना भारत के महान सपूत श्री लाल बहादुर शास्त्री के त्यागपत्र से की जाती हैं. शास्त्री जी ने एक रेल दुर्घटना का नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए रेल मंत्री के पद से दिए गए त्यागपत्र दे दिया था. नौतिक आधार पर इस्तीफे देने की वजह से वीपी सिंह ने जनता में अपनी एक निष्ठावान और पदलोलुपता से मुक्त त्यागी राजनेता की छवि बनाने में सफल रहे थे. मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के बाद वीपी सिंह वापस केन्द्र की राजनीति में सक्रिय हो गए और इंदिरा गांधी की सरकार में देश के वाणिज्य मंत्री और राज्यसभा के सासंद बने.

1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उनके बेटे राजीव गांधी प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में बैठे. सरकार में वित्त मंत्रालय और रक्षा मंत्रालय का कार्यभार संभालने वाले वीपी सिंह ही राजीव गांधी के कट्टर आलोचन बनकर उभरे. वित्त मंत्री रहते हुए वीपी सिंह ने टैक्स चोरी करने वालों के खिलाफ काफी कड़े कदम उठाए. इससे देशभर में हंगामा मच गया. खासकर उद्योगपति धीरूभाई अंबानी और प्रख्यात अभिनेता अमिताभ बच्चन के यहां पड़वाए गए छापों से वे अपनी ही सरकार में खलनायक कहे जाने लगे. चूंकि धीरूभाई अंबानी जहां कांग्रेस सरकार को आर्थिक सहायता देने वालों में से एक थे. वहीं अमिताभ बच्चन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के मित्र थे. वित्त मंत्री रहते हुए वीपी सिंह ने लाइसेंस राज,टैक्स चोरी,धन की हेरा-फेरी से जुड़े कई मामलों में काफी कड़े फैसले लिए.

सोने की तस्करी को रोकने के लिए किया गया उनका प्रयास काफी चर्चित रहा है. इसके लिए सबसे पहले तो उन्होंने सोने पर टैक्स कम कर दिया.दूसरा पुलिस के जरिए तस्करों को पकड़ने के लिए अनोखा तरीका ईजाद किया.इसके तहत सोने के तस्करों को पकड़ने वाली पुलिस टीम को बरामद किए गए माल का एक हिस्सा देने की व्यवस्था थी.इस तरीके से देश में सोने की तस्करी पर काफी हद तक लगाम लगी.वहीं बतौर वित्त मंत्री वीपी सिंह ने अपने मंत्रालय के ही एक विंग प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) को कार्रवाई करने के असीमित अधिकार दिए. इन कार्रवाइयों के कारण वीपी सिंह को वित्त मंत्री के पद से हटाकर रक्षा मंत्री बना दिया गया.रक्षा मंत्रालय में उन्होंने देश के साथ हुए रक्षा सौदों की जांच शुरू करवाई,जिसमें चर्चित बोफोर्स घोटाला सामने आया.इस घोटाले को उजागर करने के बाद वे कांग्रेस में नहीं रह सके.वे सरकार से हटा दिए गए,जिसके बाद उन्होंने कांग्रेस पार्टी और लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया.

बोफोर्स कांड उजागर होने के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की काफी किरकिरी हुई.उन पर भ्रष्टाचार के तमाम आरोप लगे.इस दौरान सियासी घटनाक्रम बदलता रहा.1989 में देश में आम चुनावों की घोषणा हो गई.वीपी सिंह ने कांग्रेस विरोधी दलों के साथ हाथ मिलाया.और जनता दल का गठन किया.जनता दल को चुनाव में बहुमत मिला और वीपी सिंह के नेतृत्व में सरकार बनी.

इस चुनाव में कांग्रेस पार्टी की करारी हार हुई.कांग्रेस के इस भारी भरकम और ऐतिहासिक हार की वजह बोफोर्स घोटाला रहा.जिसे जन जन तक पहुंचाने में वीपी सिंह की जोरदार मुहिम चलाई थी.इस चुनाव में कांग्रेस को 197 सीटें और जनता दल को 143 सीटें,बीजेपी को 85 सीटें और सीपीएम को 33 सीटें मिलीं.बीजेपी और वामपंथी दलों के सहयोग से जनता दल के पास सरकार बनाने के लिए नंबर तो आ गए लेकिन सबसे बड़ा सवाल यही था कि प्रधानमंत्री बनेगा कौन.क्योंकि प्रधानमंत्री पद की रेस में खुद वीपी सिंह के अलावा देवीलाल और चंद्रशेखर भी थे.सभी दलों ने तय किया कि इस चुनाव के नायक वीपी सिंह बन के उभरे हैं तो उन्हें ही पीएम बनना चाहिए.लेकिन चंद्रशेखर को ये बात मंजूर नहीं थी.उन्होंने वीपी सिंह को चुनौती दी कि मैं जनता दल के संसदीय दल का चुनाव लड़ूंगा.चंद्रशेखर की चुनौती के बाद वीपी सिंह ने पीएम पद की दावेदारी से हटते हुए कहा कि वो तभी पीएम बनेंगे जब सर्वसम्मति से नेता उन्हें चुना जाऐगा.

उसके बाद संसद भवन के केन्द्रीय कक्ष में संसदीय दल के चुनाव अधिकारी मधु दंडवते के देखरेख में बैठक शुरू हुआ.इस बैठक में वीपी सिंह ने प्रधानमंत्री पद के लिए देवीलाल के नाम का प्रस्ताव रखा.चन्द्रशेखर ने भी देवीलाल के नाम पर सहमति जता दी. लेकिन ऐन वक्त पर देवीलाल मंच पर आएं और सासदों को धन्यवाद देते हुए कहा कि देश वीपी सिंह को प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहता है मैं उनके पक्ष में अपना नाम वापस लेता हूं. बस फिर क्या था ये सुनते ही चंद्रशेखर आग बबूला हो उठे. चंद्रशेखर को पहले से इस खेल के बारे में बिल्कुल भी खबर नहीं थी. उन्होंने वीपी सिंह को चुने जाने के बाद सिर्फ इतना कहा कि अगर अपनी ओर से उन्होंने ये प्रस्ताव रखा है तो मैं उसका विरोध नहीं करता हूं लेकिन मेरा अपना रिजर्वेशन है. ये कहकर वो वहां से वॉकआउट कर गए. इस तरह वीपी सिंह को प्रधानमंत्री पद के लिए चुना गया और देवीलाल को देश का उप प्रधानमंत्री. 

वीपी सिंह ने अपने प्रधानमंत्रीत्व काल में कई ऐसे फैसले लिए जिसे समाज के एक खास तबके ने ऐतिहासिक माना तो कुछ तबकों ने विवादित. प्रधानमंत्री बनने के साथ ही उन्होंने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू कर दिया.आयोग की सिफारिशों के मुताबिक पिछड़े वर्ग के लिए 27 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था की गई, जो समाजिक परिवर्तन की दिशा में एक बड़ा क्रांतिकारी कदम था. तब वीपी सिंह ने बदलाव का बिगुल फूंकते कहा था, ‘हमने मंडल रूपी बच्चे को मां के पेट से बाहर निकाल दिया है. अब कोई माई का लाल इसे मां के पेट में नहीं डाल सकता.' सामाजिक बदलाव की दिशा में ये क्रांतिकारी कदम साबित हुआ. अब तक सत्ता की राजनीति से वंचित पिछड़ा तबका राजनीति में मुखर होकर सामने आया. सत्ता में भागीदारी से पिछड़ों में आत्मस्वाभिमान और सम्मान की नई भावना जगी. इसी दौर में बिहार में लालू प्रसाद यादव जैसे नेताओं का उदय हुआ. लालू, नीतीश, शरद यादव जैसे नेताओं की राजनीति ने राष्ट्रीय स्तर पर छाप छोड़ी.

इस फैसले ने देश की सियासत का रुख ही बदल कर रख दिया.सवर्ण जातियों के युवा सड़क पर उतर आए और प्रदर्शन करने लगे.आरक्षण विरोधी आंदोलन के अगुआ रहे युवा राजीव गोस्वामी ने आत्मदाह कर लिया. वीपी सिंह के इस फैसले का उनके ही सरकार के अंदर से विरोध शुरु हो गया. बीजू पटनायक जो ओडिशा के तत्कालीन मुख्यमंत्री थे. उन्होंने भी इसका प्रतिकार किया. बीजू पटनायक के अलावा वीपी सिंह के करीबियों में यशवंत सिन्हा और हरमोहन धवन ने भी अपनी ही पार्टी के प्रधानमंत्री के फैसले का सार्वजनिक तौर पर आलोचना करते हुए जातीय हिंसा को बढ़ावा देने का आरोप मढ़ दिया. मंडल आयोग को लागू करने को लेकर राजनीतिक टीप्पणीकारों का कहना है कि वीपी सिंह ने ये कदम देवीलाल के बढ़ते कद को रोकने के लिए उठाया था..

दरअसल, मोरारजी देसाई के नेतृत्व में बनी पहली गैर कांग्रेसी सरकार ने 20 दिसंबर 1978 को संविधान के अनुच्छेद 340 के तहत 6 सदस्यीय पिछड़ा वर्ग आयोग बनाने की घोषणा की.इस आयोग के अध्यक्ष बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और तत्कालीन सांसद वीपी मंडल बनाए गए.इस आयोग ने 12 दिसंबर,1980 को 392 पन्नों की अपनी रिपोर्ट तैयार करके 31 दिसंबर 1980 को तत्कालीन गृहमंत्री ज्ञानी जैल सिंह को सौंपी दी.उसके बाद 30 अप्रैल 1982 को राष्ट्रपति के अनुमोदन के बाद आयोग की रिपोर्ट को सदन के पटल पर रखा गया.लेकिन इसके बाद इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया गया.न ही इंदिरा गांधी की सरकार ने इसे लागू किया न ही राजीव गांधी की सरकार ने.लेकिन जनतादल ने अपने घोषणापत्र के मुताबिक मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू किया और पिछड़े समाज के लोगों के अंदर नई समाजिक और राजनैतिक चेतना को जागृत किया.इसी दौर में बिहार में लालू प्रसाद यादव,शरद यादव,रामविलास पासवान,नीतीश कुमार,देवेन्द्र यादव,मुलायम सिंह यादव जैसे नेताओं का राष्ट्रीय राजनीतिक फलक पर उदय हुआ.

व्यक्तिगत तौर पर वीपी सिंह बेहद कुटिल स्वभाव के थे.लेकिन पीएम के रूप में उनकी छवि एक कमजोर और राजनैतिक दूरदर्शिता के अभाव से ग्रस्त व्यक्ति की थी.उनकी इन्हीं खामियों ने कश्मीर में आतंकवादियों के हौसले बुलंद कर रखे थे.वीपी सिंह सरकार में बतौर गृहमंत्री रहते हुए मोहम्मद सईद का पहला संकट शपथ ग्रहण करने के महज छह दिन बाद आया.8 दिसंबर 1989 को उनकी छोटी बेटी रूबिया जो उस वक्त मेडिकल इंटर्न थी.वो अपनी ड्यूटी पूरी करने के बाद बस में सवार होकर अपने घर के लिए जा रही थी.बस जैसे ही श्रीनगर के चानपूरा चौक के पास पहुंची वैसे ही तीन आतंकियों ने बंदूक की नोक पर बस रुकवा दी.और रूबिया सईद को नीचे उतारकर नीले रंग की मारुति कार में बैठा कर अगवा कर लिया.घटना के दो घंटे बाद ही जेकेएलएफ (जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट)जावेद मीर ने एक स्थानीय अखबार को फोन करके भारत के गृहमंत्री की बेटी के अपहरण की जिम्मेदारी ली.

इस खबर के सामने आने के बाद पूरे देश में कोहराम मच गया.दिल्ली से श्रीनगर तक पुलिस से लेकर इंटेलिजेंस की बैठकों का दौर शुरू हो गया.आतंकियों ने रूबिया को छोड़ने के बदले में 7 आतंकियों की रिहाई की मांग की.मध्यस्ता के लिए कई माध्यम खोले गए.इस पूरी कवायद में 5 दिन बीत गए और 13 दिसंबर 1989 को सरकार और अपहरणकर्ताओं के बीच समझौता हुआ.समझौते के तहत उस दिन शाम 5 बजे 5 आतंकियों को रिहा किया गया.उससे कुछ ही घंटे बाद लगभग साढ़े सात बजे रूबिया को सोनवर स्थित जस्टिस मोतीलाल भट्ट के घर सुरक्षित पहुंचाया गया.रूबिया को उसी रात विशेष विमान से दिल्ली लाया गया.एयरपोर्ट पर मुफ्ती मोहम्मद सईद और उनकी दूसरी बेटी महबूबा मुफ्ती मौजूद थे.उन्होंने रुबिया को गले से लगा लिया.इस दौरान मुफ्ती मोहम्मद सईद ने कहा था कि एक पिता के रूप में मैं खुश हूं लेकिन एक देश के गृहमंत्री के रूप में यहीं कहना चाहूंगा कि ऐसा नहीं होना चाहिए था.इस घटना के बाद उस वक्त वीपी सिंह सरकार को काफी आलोचना झेलनी पड़ा था.

वीपी सिंह ने बीजेपी के बाहरी समर्थन से सरकार चलाने के बावजूद सांप्रदायिकता से कभी समझौता नहीं किया.मंडल कमीशन के जवाब में जब बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी ने रथयात्रा निकाली तो वीपी सिंह की पार्टी के ही मुख्यमंत्री लालू प्रसाद ने रथ को बिहार के समस्तीपुर में रोक दिया और आडवाणी को गिरफ्तार कर लिया.इसके चंद दिनों बाद ही बीजेपी ने केंद्र सरकार से समर्थन वापस ले लिया और वीपी सिंह सरकार 10 नवंबर 1990 को गिर गई.प्रधानमंत्री पद से हटने के बाद वीपी सिंह धीरे-धीरे सक्रिय राजनीति से अलग होने लगे.उनको कई बीमारीयों ने अपने गिरफ्त में ले लिया.लेकिन वो हमेशा विपक्ष की राजनीति से जुड़े रहे, और गाहे-बगाहे किसानों के मुद्दे पर आंदोलन करते रहे.दिल्ली में झुग्गीवासियों को उजाड़े जाने के खिलाफ वे धरना-प्रदर्शनों में शामिल होते रहे.सांप्रदायिक हिंसा के सवाल पर उपवास करते रहे.जिनका उनके स्वास्थ्य पर गहरा असर पड़ा और वो रक्त कैंसर से पीड़ित हो गए.अपने जीवन के अंतिम कालखंड में वो कविताएं लिखते पेंटिंग्स बनाते और एकांकी जीवन जीना पंसद करते थे.

लेकिन आखिरकार 27 नवंबर 2008 को जीदंगी की जंग वो हार कर इस दूनीया को अलविदा कह गए.....समाजिक न्याय के इस महायोद्धा ने अपने एक साल के प्रधानमंत्रीत्व कार्यकाल के दौरान कई ऐतिहासिक फैसले भी लिए..वीपी सिंह ने बतौर प्रधानमंत्री संसद के सेंट्रल हॉल में भीम राव आंबेडकर की तस्वीर लगवाई और उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया..जिसे कृतज्ञ राष्ट्र भारत हमेशा याद रखेगा और इस राष्ट्र नायक के प्रति हमेशा गौरव बोध का भाव रखेगा..

Discus