भक्ति का शाब्दिक अर्थ है भज सेवायाम् अर्थात भक्तों द्वारा ईश्वर की सेवा। कहते हैं कि भक्ति में यदि शक्ति हो तो असंभव कार्य भी संभव होने लगते हैं, इतनी क्षमता एक भक्ति में होती है। वास्तव में भक्ति केवल शब्द नहीं अपितु प्रेम,विश्वास और समर्पण का सामूहिक भाव है, जिसके द्वारा हम परमानंद की प्राप्ति कर सकते हैं। जिस भक्त की भक्ति में प्रेम, विश्वास,समर्पण और आराध्य के प्रति सम्मान ना हो तो वह भक्ति नहीं हो सकती। भक्ति का उगम करुणा और प्रेमपूर्ण हृदय में ही होता है।ऐसा हृदय जो जीवन के प्रत्येक क्षण में प्रेमपूर्ण रहे,उसी में भक्ति का संचार होता है। आप किसकी भक्ति करते हो इससे अधिक महत्वपूर्ण यह है कि आपकी भक्ति कैसी है।क्योंकि यदि भक्ति सच्ची हो तो उसके अच्छे फल आपको प्राप्त होते हैं, जी हां! उचित पढ़ा आपने सच्ची भक्ति। सच्ची भक्ति के विषय में महर्षि व्यास कहते हैं कि जो भी पूजनीय है उसके प्रति प्रेमभाव होना या पूजनीय जो है उस पर प्रेम करना उसी को भक्ति कहते हैं। उसी प्रकार श्री कृष्ण भी कहते हैं कि अपना सब कुछ किसी को अर्पण कर दें, ऐसे समर्पण को ही सच्ची भक्ति कहते हैं। इन दोनों महात्माओं ने जो विचार व्यक्त किए हैं वह सच्ची भक्ति के अर्थ को दर्शाते हैं। अब प्रश्न यह उठता है कि सच्ची भक्ति क्या एवं कौनसी है? इसीलिए सच्ची भक्ति के अर्थ को विस्तार से समझने हेतु इससे पूर्व आपको यह समझना होगा कि भक्ति दो प्रकार की होती है एक सकाम भक्ति और दूसरी निष्काम भक्ति। इन दोनों भक्तियों में केवल इतना ही अंतर है कि सकाम भक्ति ईश्वर से कुछ चाहती है और निष्काम भक्ति ईश्वर चाहती है। अब इसे हम और विस्तृत रूप से समझते हैं। सर्वप्रथम सकाम भक्ति के विषय में पढ़ें।
इस भक्ति में उदाहरण के तौर पर हम लंकापति रावण को ले सकते हैं।जिन्होंने महादेव की भक्ति तो की परंतु जब स्वार्थ की भावनाओं ने उनके मन को घेर लिया तब परिणाम स्वरूप भगवान राम के हाथों उनका अंत हुआ।उसी प्रकार दूसरा उदाहरण है महिषासुर, जिसने ब्रह्मदेव की भक्ति एवं तपस्या तो की किंतु ब्रह्म की प्राप्ति नहीं की अपितु अमरत्व का चयन किया।परिणाम स्वरूप महिषासुर का वध भी आदिशक्ति के हाथों ही हुआ। इन दोनों उदाहरणों से यह स्पष्ट होता है कि जब भक्ति में स्वार्थ, लोभ तथा अहम् का निर्माण होता है, मन में स्वार्थपूर्ण कामना जागृत होती है, जिस भक्ति का उद्देश्य ईश्वर की प्राप्ति नहीं अपितु भौतिक सुख साधनों की प्राप्ति होती है उसी को सकाम भक्ति कहते हैं। सकाम भक्ति द्वारा ना तो आप देवत्व को जान सकते हैं और ना ही ईश्वर का सान्निध्य प्राप्त कर सकते हैं। सकाम भक्ति एक प्रकार से भक्त और आराध्य के मध्य व्यवहार बन के रह जाती है, जो स्वयं भक्त ही उसे बनाता है । जब भक्त, भक्ति के फलस्वरुप में अपनी इच्छा पूर्ति का अनुरोध भगवान से करता है तब वही भक्ति व्यवहार में परिवर्तित हो जाती है। इस भक्ति में मनुष्य को सुख-साधन की प्राप्ति, कामनाओं की पूर्ति हो भी जाए किंतु उसे कभी भी आत्मिक शांति प्राप्त नहीं हो सकती क्योंकि कामनाओं का कभी अंत नहीं होता वह तो अंतहीन है।सकाम भक्ति में भक्तों का दृष्टिकोण एवं वृत्ति संकुचित बन कर रह जाती है। उसकी विचार करने की क्षमता अपने तक ही सीमित हो जाती है। जनकल्याण के भाव का त्याग कर वह दूसरों के प्रति संवेदनहीन बनता जाता है जब कि भक्ति का उद्देश्य और प्रभाव तो पूर्णत: इससे विपरीत है।
जिस प्रकार सकाम भक्ति में दो भक्तों के उदाहरण हमने पढ़े उसी प्रकार सकाम भक्ति के भक्तों से भिन्न और विपरीत, महान भक्तों के उदाहरण निष्काम भक्ति में देखने को मिलते हैं। जैसे कि भक्त प्रल्हाद, जिसने भगवान नारायण को अपनी भक्तिद्वारा खंबे से प्रकट होने पर विवश किया, वैसे ही रामभक्त पवनपुत्र हनुमान जिसने स्वयं का संपूर्ण जीवन केवल राम के लिए ही समर्पित किया, उसी प्रकार महान भक्तों की श्रृंखला में नंदी भी है जो भगवान शिव के वाहन भी है और भक्त भी। ऐसे ही अनगिनत सच्चे भक्त है जिन्होंने निष्काम भक्ति का उदाहरण समाज के समक्ष प्रस्तुत किया। निष्काम इस शब्द से ही हमें ज्ञात हो जाता है की इसका अर्थ है 'कामनारहित'। जब कार्य में कोई भी स्वार्थ या कामना ना हो और केवल ईश्वर को ही पाने की इच्छा शेष हो उसी को निष्काम भक्ति कहते हैं। इस भक्ति में भक्त भौतिक सुख साधनों की लालसा में लिप्त नहीं रहता, वह अपने भीतर विद्यमान सारी लालसाओं को खींच लेता है और अपना ध्यान ईश्वर पर केंद्रित करता है। वह ईश्वर से स्वयं के लिए ना तो कोई अपेक्षा रखता है और ना ही आशा। उस भक्त की भक्ति का केवल एक ही उद्देश्य होता है और वह है परमानंद की प्राप्ति। ऐसा कहा गया है कि निस्वार्थ भाव से की गई भक्त की भक्ति भगवान के अस्तित्व से अधिक भव्य होती है। ईश्वर भी ऐसी ही भक्ति का भूखा होता है। निष्काम भक्ति में भक्तों को ईश्वर की चिंता होती है, उनकी सेवा में किसी भी प्रकार की कमी ना हो इसका विशेष रुप से ध्यान रखा जाता है।भक्त जब निष्काम भक्ति के चरम सीमा पर होता है तो वह पूर्ण रूप से शुद्ध हो जाता है, उसका दृष्टिकोण, वर्तन एवं विचार व्यापक हो जाते हैं।उसे सृष्टि के कण-कण में ईश्वर की अनुभूति होने लगती है और उसके कार्य भी जनकल्याण का आधार बनते हैं। यदि संक्षेप में कहें तो निष्काम भक्ति से भक्त यथार्थ में मानवतायुक्त मानव बन जाता है।
इन दोनों प्रकार के भक्तियों को पढ़ने के पश्चात यह स्पष्ट हो जाता है कि सच्ची भक्ति निष्काम भक्ति ही है, जो मनुष्य को सही रूप से मोक्ष या मुक्ति की प्राप्ति करवा सकती है। जब मनुष्य की मनस्थिति सुख और दुख में समान हो तो इसका तात्पर्य यह है कि उसकी भक्ति निष्काम भक्ति है। जिस पर अग्रसर होने के पश्चात उसे मोक्ष की प्राप्ति अवश्य होती है । इसीलिए हम सबको अपने मूल उद्देश्य पर ध्यान केंद्रित करना होगा, जीवन में अच्छी शिक्षा लेना, उच्च पद पर काम कर परिवार का पालन पोषन करना यह जीवन का मूल उद्देश्य नहीं। यदि होता तो विचार कीजिए, उद्देश्य की पूर्ति के पश्चात भी परिवार और कमानेवाला व्यक्ति दुखी ना होता, अब भी कुछ पाना है यह इच्छा उसमें शेष ना रहती। इसीलिए आप को समझना होगा कि परिवार का निर्वाह करना, यह जीवन की एक आवश्यकता है किंतु पूरा उद्देश्य नहीं। वास्तव में ईश्वर को जानना, उसे प्राप्त कर लेना,उसमें विश्वास स्थापित करना और बिना किसी अपेक्षा के कर्म कर अंत में उसी में विलीन हो जाना ही प्रत्येक मनुष्य का मूल उद्देश्य है।यह मूल उद्देश्य केवल और केवल निष्काम भक्ति से ही संभव है क्योंकि निष्काम भक्ति को ही वह श्रेष्ठ स्थान प्राप्त हुआ है और निष्काम भक्ति ही सच्ची भक्ति है। आशा करता हूं कि इस लेख की सहायता से आपकी भक्ति को उचित दिशा अवश्य प्राप्त होगी और आपका जीवन सुख और आनंद से परिपूर्ण हो जाएगा।