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सुनते थे दो मु मुँह वाले इंसान ,होते हैं जनाब!
पर ,आज तो न जाने कितने ?आवरण में कैद है इंसान की नीयत ,हैसियत, आदत और फितरत!
कितने मुखौटे ओढ़ रखा है इंसान, सुबह मानव, दोपहर दानव ,रात्रि में होता शैतान !
रात्रि की क्या जरूरत है मेरे भाई! मनचला ना माहौल देखता है ना उम्र ,
ना बालरूप नजर आता है ना नाबालिग ।
बस अपने टुच्च स्वार्थ वश अंधा हो जाता है ।
किसी की इज्जत ,किसी की इस्मत, किसी का सतीत्व ,किसी का पतिवृत डुबा के, खुद भी गर्त में डूबता है।।
अपनी कमियों को ढकने इंसान ,
झूठ का आवरण ओढता है ,
कर्म बुरे करता बिन सोचे, बोझा पाप का ढोता है ।
क्या बताऊँ ?
एक चेहरे पर कई चेहरे लगा लेते हैं लोग !
धोखाधड़ी ,मुनाफाखोरी ,जुवा चोरी का प्रभाव !
हे ईश्वर की संतान! क्या अपनी फितरत से बाज आओगे ?
यह माटी की देह, माटी में मिल जानी अपने पाप अनावृत, कर पाओगे?

पाप का घड़ा भरने से पहले ,
अपने कुकर्म आच्छादित कर पाओगे?
मन में फैला अज्ञान अंधियारा,ज्ञान से प्रकाशित करना ‌।
पृथ्वी का वायुमंडल घेरा,उसे अनावरण ना करना।
शरीर रथ, आत्मा रथी,आत्म दर्शन करते रहना,
घर की बात, घर में रहे,मौनव्रत धारण करना।
लाज-शर्म गहना शरीर का,वस्त्रों से आच्छादित करना।
लाख मुसीबतें आ जाये,दुनियाँ से छिपा कर रखना।
मातृगर्भ में पलता है शिशु,ओढ़ झिल्ली का आवरण।
संसार-सागर में,प्रेम प्यार का,करते रहे हम आचरण।
सत्य बात साबित करें, झूठ का करे
निवारण।
सच्ची सेवा देश की, करते रहे हम आमरण।
द्रौपदी के पांच पति,सब की अलग-अलग मति।
दाँव पर दाँव,चाल पर चाल,भूल गये
जीवन की गति।
शकुनी की कुबुद्धि चाल से,भटक गये
पाँडव महारथी।
छद्मवेश रावण ने धर कर, माँ सीता का हरण किया।
सोने की लंका गयी हाथ से, संगी-साथी सब छूट गया।
क्यों मानव ने ?ओढ़ मुखौटा,
कईं रंग छिपायें है।
अन्तर्मन में काली माया,ऊपर सफेदी लगायें हैं।
ऐसा पर्दा डाला रिश्तों में,सब ऊपरी दिखावा है।
अपने-परायों में अपनापन,मात्र एक छलावा है।।

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