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अहम का अस्तित्व,
कितना गहरा,
कितना छिछला,
कितना छलका,
कितना बरसा,
अहम् करने वाला कभी,
समझ नहीं यह पाता।
औंधे मुँह जब गिरता,
मुँह का निवाला निकल आता।
ऊँचाइयों को छूना,
गुनाह नहीं, समझदारी है।
समझदारी में गर्व की बू ,
गर्त में गिरने की किलकारी है।
मैंने बड़े-बड़े
दर्प करने वालों को परखा,
नाम क्या लिखूँ?
किस-किस का लिखूँ?
मान लो
अहम् की सीढ़ी पर मैंने,
स्वयं का पाँव रख दिया,
दुनियादारी को भूलकर,
स्वत: को ही चुन लिया।
नाते रिश्ते तोड़ गर्व से,
आगे बढ़ी मैं जैसे,
हर कदम गगनचुम्बी सफलता,
अहँकार में डूबी ऐसे।
तेज हवा का झोंका आया,
तूफान की भाँति झँकझोर दिया,
गर्व की डाली टूटी ऐसी,
धम्म से धरा पर गिरा दिया।
डूबी कश्ती के जैसे,
मैं सम्भल नहीं पायी,
जब होश सम्भाला मैंने,
साथी सब पीछे छोड़ आयी।
काश!अपनों का अपनापन,
उस समय समझ जाती।
जीवन की पगडन्डी में,
लाठी रूप उन्हें पाती।
एकाकी जीया नहीं जाता,
चूक हो गयी मुझ से,
माफी माँगना चाहूँ,
पर माँगू किस मुँह से?
मन रूपी दर्पण के भीतर,
झाँक नहीं मैं पाती हूँ,
अपनों के अपनापन बिन,
प्यार कहीं नहीं पाती हूँ ।
सोचती हूँ अब आगे,
कृष्ण की मीरा बन जाऊँ।
मैं भी नाचूँ गली-गली,
गिरधर-गोपाल के गुण गाऊँ।
अहम् रूपी राणा को भूल,
नत मस्तक मैं हो जाऊँ।
भौंरा पीता पराग फूलों का,
मैं भी भक्ति रस पी पाऊँ।
वृन्दावन की राधा सी,
प्रेम परिणीता बन जाऊँ,
माधव के उद्धव भक्त सी,
प्रेम भक्ति रस में गोते खाऊँ।

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