कृषक पुत्र था मोरध्वज,उदारता का प्रतिरूप।
डाकुओं से भिङ गया अकेला,न दूजा कोई समरूप।
रक्षा की ग्राम वासियों की,जनता ने बनाया भूप।
भक्त आत्म बलिदानी राजा,भक्ति का आद्य रूप।
महाभारत युद्ध बाद में एक दिन,कृष्ण अर्जुन बैठे थे पास।
शंका हुई अर्जुन के मन में,प्रभु से करने लगा अरदास।
ना कोई भक्त समान मेरे,यह मुझे विश्वास।
सब जगह फिर फिर देखा, धरती और आकाश।
मोह माया में अन्धा,मैं था बङा अज्ञान।
युद्ध में आप बन सारथी,दिए गीता का मुझे ज्ञान।
संसार में मुझसा न कोई,भक्त है भाग्यवान।
गर्व से सीना फुला कर,अर्जुन बन बैठा नादान।
कृष्ण ने सुनी और समझी,अर्जुन के मन की बात।
दर्प दूर करने अर्जुन का,चल पड़े प्रभु सुप्रभात।
मेरा सखा,संबंधी,बन्धु,घमण्डी ना बन जाए।
यही सोच कृष्ण सखा को, संग अपने ले आए।
एक शेर वन से ले चले,दोनों साधु वेश बनाये।
चले मोरध्वज राजा की नगरी,महल बाहर गुहार लगाये।
भिक्षाम् देही! भिक्षाम् देही! जोर-जोर गर्जाये।
आवाज सुन साधुओं की,राजा नंगे पाँव दौड़े आए।
आतिथ्य स्वीकार करो प्रभु,राजा मन माँही हर्षाये।
बोले साधु भूखा है शेर,पहले शेर तृप्त हो जाये।
कुँवर रतन के आधे अंग से,सिंह की भूख बुझायें।
हम ठहरे साधु,सन्यासी,शाकाहारी भोजन खायें।
कई दिनों से हम तीनों भूखे,राजा भूख मिटाओ।
द्वार हम आए तुम्हारे,राजा भोजन बनवाओ ।
नृपति ने दी आज्ञा रानी को,छप्पन भोग बनाओ।
कुँवर रतन के आधे अंग को,शेर आगे धराओ।
कुँवर रतन को देख राजा-रानी,थर-थर काँपन लागे।
साधु भूखे न जाए घर से,मन में सोचन लागे।
यह देख साधु बोले, क्या हम भूखे चले जाएं ?
भक्त की लेने परीक्षा,प्रभु रौद्र रूप दिखाए।
पुत्र रत्न को बुलाया राजा ने,और मंगाई आरी।
आधा अंग कैसे काँटू लाल का,अश्रु से आँखें भारी।
आधा अंग महल में राखो,आधा शेर को खिलाओ।
यह सुन बोला कुँवर रतन,आधा अंग व्यर्थ ना गँवाओ।
आओ प्रभु आसन विराजो,भोजन है तैयार।
बोले साधु तीन नहीं,आसन बिछाओ चार!
अकेले भोजन नहीं करेंगे,कुँवर बैठेगा साथ।
मृतपुत्र कहाँ से लाऊँ,राजा जोङे दोनो हाथ।
महलों में बैठे कुँवर रतन को,तुम लगाओ पुकार।
रोते-रोते राजा रानी,कर न सके इन्कार।
आ तात!आ तात!आसन तुम्हारा है लगाया ।
दौड़ा दौड़ा आया रतन,राजा रानी अचम्भा पाया।
समझ गए ये साधु नहीं ,प्रभु कृपा को मैंने पाया।
गिरा चरणों में उठाया प्रभु ने,विराट रूप दिखाया।
दर्शन कर राजा रानी ने ,बैकुण्ठ धाम सा सुख पाया।
यह देख अचंभित,लज्जित,अर्जुन ने शीश झुकाया।
अश्रुपूरित नेत्रों से,अर्जुन ने मांगी माफी ।
अभिमान नष्ट हो जाए मेरा, अतः बनाया मुझे आपने साक्षी।
ऐसी परीक्षा न लो भक्तों की,करता हूँ अरदास ।
भक्त शिरोमणि है मोरध्वज,मैं हूँ आपका दास।