उड़ीसा राज्य के समुद्री तट पर स्थित, है पुरी का जगन्नाथ मंदिर।
भगवान विष्णु के चारों धाम में एक, पावन पुरी अति सुंदर।
बद्रीनाथ धाम में स्नान कर, द्वारका धाम में वस्त्र पहनते।
जगन्नाथ धाम में भोजन कर प्रभु, रामेश्वर में विश्राम करते।
जगन्नाथ प्रभु का स्वरूप, अन्य मूर्तियों से है विभिन्न।
सुन रहे थे माँ यशोदा से, बचपन की शैतानियाँ एक दिन।
अपनी ही बातें सुन प्रभु की, आश्चर्य से आँखें हुई बड़ी।
मुँह खुला, बाल तने बलभद्र जी के, सुभद्रा मंत्र मुग्ध खड़ी।
प्रेम भाव में डूबी सुभद्रा, स्तब्ध पिघलने लगी,
बलदाऊ-कृष्ण बीच सुभद्रा, शोभित बड़ी लगी।
कृष्ण लीला श्रवण में, सब हो रहे थे लीन।
पधारे नारद मुनि अचानक, बजाते हुए बीन।
कृष्ण का मोहिनी स्वरूप, नारद मुनि को अति भाया।
सुंदर स्वरूप धारण करो यह, प्रभु भक्तों पर करो छाया।
बात सुन नाराज मुनि की, प्रभु आदर से बोले।
कलयुग में अवतरित होऊँगा, राज अपना खोले।
सात पुरी में एक पुरी, पृथ्वी का बैकुण्ठ जगन्नाथ धाम।
नीलांचल, नीलगिरी, शाक क्षेत्र, श्री क्षेत्र, पुरुषोत्तम क्षेत्र है नाम।
पुरुषोत्तम क्षेत्र में देवी, विमला की पूजा होती।
विभीषण वन्दापना रीति से, जगन्नाथ आराधना होती ।
लक्ष्मीपति विष्णु भगवान, नील माधव रूप में अवतरित हुए ।
सबर जाति के पूज्य देव, कबीलाई रूप धारण किए।
कबीला वासी प्रभु की मूर्तियाँ, काष्ठ से बनाते।
ब्राह्मण पुजारियों सहित प्रभु, सबर जनजाति से पूजे जाते।
ज्येष्ठ पूर्णिमा से आषाढ़ पूर्णिमा तक, सबर जाति की रीति से पूजा होती।
जगन्नाथ जी की सारी पूजा, सबर जाति दैतापति द्वारा होती।
भगवान ब्रह्मा का एक सिर, शिव हथेली से चिपक गया।
उड़ीसा में गिरा हाथ, शिव ब्रह्म रूप में पूजा गया ।
दक्षिण शंख सा पुरी धाम, सोलह किलोमीटर फैला हुआ।
उदर समुद्री सुनहरी रेत जिसका, महोदधि जल से धुला हुआ।
शीश क्षेत्र पश्चिम दिशा में, जिसकी महादेव रक्षा करते।
दूसरे घेरे में शंख के, ब्रह्म कपाल विमोचन विराजते।
शंख के तीसरे व्रत में है, माँ विमला विराजमान।
नाभि स्थल सिंहासन रथ पर, विराजत जगन्नाथ भगवान।
श्री जगन्नाथ प्रभु का महाभोग, माँ लक्ष्मी द्वारा बनाया जाता।
कर्मों के सिद्धांत न बिगड़े, महाभोग को सीमित रखा जाता।
प्रभु को महाभोग पाते देख, नारद मुनि का मन चखने को मचला।
माँ लक्ष्मी के वरदान से एक दिन, शुभ अवसर नारद को मिला।
महा प्रसाद की बात गुप्त रखना है, प्रभु ने नारद जी से कहा।
चंचल मन नारद मुनि का, कैलाश जा, शिव सभा में चुप न रहा।
प्रसाद साथ मे लाये जो मुनि, शिव खाकर ताण्डव करने लगे।
माँ पार्वती प्रसाद न पाने से, क्रोधित होने लगे।
प्रसाद नहीं बचा था शेष, माँ मन ही मन मचलने लगी।
जगन्नाथ धाम चलो प्रभु, शिवजी से कहने लगी।
दोनों जगन्नाथ धाम आए, विष्णु हुए बड़े प्रसन्न।
लक्ष्मी जी द्वारा बना भोग, माता पार्वती को किया अर्पण।
विमला रूप में माँ पार्वती का, जगन्नाथ धाम से जुड़ा नाता।
भगवान जगन्नाथ से पहले भोग, माँ विमला को लगाया जाता।
देवी विमला की मांग पर, महाप्रसाद सार्वजनिक किया गया।
भक्तों के विशुद्ध प्रेम का, प्रभु द्वारा निवारण किया गया।
कर्मा बाई की खाते खिचड़ी, प्रभु दास भक्त के पान।
इन्दी का नीम चूर्ण खा प्रभु,पचाते छप्पन पकवान।
छेना पोड़ा और खाजा जगन्नाथ का, पसंदीदा मीठा व्यंजन।
हर उत्सव में बनाया जाता, घर-घर में अभिव्यंजन।
महाभारत के वन पर्व में, जगन्नाथ मंदिर का इतिहास।
सबर आदि वासी विश्ववसु, नील माधव प्रभु के दास।
भारत पिता, माता सुमति, पुत्र मालवा के राजा इन्द्रद्युम्न।
एक दिन विष्णु भगवान ने, स्वप्न में दिए दर्शन।
नीलांचल पर्वत गुफा में, नील माधव नामक है मेरी मूर्ति।
पुरी में मंदिर बनवाओ, राजा दिखाओ स्फूर्ति।
राजा ने झट से सेवकों को, नीलांचल की खोज में भेजा।
एक था विद्यापति ब्राह्मण, चतुर था उसका भेजा।(दिमाग)
विद्यापति को ज्ञात था, सबर कबीले वाले नील माधव की पूजा करते। विश्ववसु नील माधव उपासक, गुफा में मूर्ति छुपा कर रखते।
चतुर विद्यापति ने मुखिया की, बेटी से कर लिया विवाह।
पत्नी के जरिए उसको, गुफा की मिल गई राह।
बड़ी चतुराई से चुराकर, मूर्ति वह ले आया।
मूर्ति पाकर राजा इन्द्रद्युम्न, मन ही मन हर्षाया।
आराध्य देव की मूर्ति चोरी होने से, विश्ववसु हुआ बहुत उदास।
भक्त दु:ख से दु:खी भगवान, चले गए भक्त के पास।
इन्द्रद्युम्न को आज्ञा दी प्रभु ने, बनाओ पुरी में विशाल मंदिर।
मंदिर बनवा दिया नृपति ने, प्रभु विराजो मंदिर अंदर।
बड़ा एक पेड़ का टुकड़ा, द्वारिका से तैर पुरी आ रहा है।
राजा के सेवको द्वारा, उठाया नहीं जा रहा है।
राजा मन में समझ गया, नील माधव प्रभु की माया।
विश्ववसु भारी भरकम वृक्ष को, झट से मंदिर तक लाया।
लाख यत्न किये नृप ने, लकड़ी से मूर्ति गढने की।
कोई छैनी छू न सका, बात बड़ी थी अड़ने की।
त्रिलोकी के कारीगर विश्वकर्मा, वृद्धवेश धर आये।
नीलमाधव की मूर्ति बनाने को, राजा ने सक्षम पाये।
विश्वकर्मा की शर्त थी यह, इक्कीस दिन में मूर्ति बनाएँगे।
जब तक बनेगी मूर्ति, कोई उन्हें देख नहीं पाएँगे।
आरी, छैनी, हथौड़ी की आवाज़, नित्य प्रति सुनने में आती।
एक दिन दैव योग वश, आवाजें, सुन नही थी पाती।
इन्द्रद्युम्न राजा की रानी, घबरा गई मन ही मन।
बुड्ढा कारीगर मर न गया, कहीं मंदिर के अंदर।
शर्तों,चेतावनियों को भूल, मंदिर खुलने का राजा ने दिया आदेश।
बूढा व्यक्ति गायब हो गया, मूर्तियों का काम पड़ा था शेष।
कृष्ण-बलभद्र की टाँगे न बनी, बने थे छोटे-छोटे हाथ।
जगत नाथ की इच्छा समझ, नृप ने नाम रखा जगन्नाथ।
बहन सुभद्रा की मूर्ति, हाथ-पाँव से थी रिक्त।
तीनों मूर्तियों को मंदिर में, राजा ने किया स्थापित।
विष्णु के अवतार कृष्ण को समर्पित, वैष्णव संप्रदाय का जगन्नाथ मंदिर।
भगवान जगन्नाथ, भ्राता बलभद्र, बहन सुभद्रा अति सुंदर।
स्कन्द पुराण में धरती का बैकुण्ठ, जगन्नाथ मंदिर कहा जाता।
रथ यात्रा में रथ की डोरी खींच, भक्त जन्म बंधन से मुक्ति पाता।
वार्षिक रथ यात्रा का उत्सव, बड़ी धूमधाम से मनाया जाता।
भव्य सुसज्जित तीनों रथों को, नगर में घुमाया जाता।
देश-विदेश से लाखों भक्तजन, रथ यात्रा पर पुरी आते।
मनोकामना पूर्ण हो जाती, प्रभु दर्शन पा जाते।
नगर दृष्टि गोचर करने की इच्छा, सुभद्रा के मन जागी।
कृष्ण बलराम ने तीन रथ सजाये, बहन बड़ी थी सुभागी।
तीनों अलंकृत रथ पर सवार हो, नगर देखने आए।
मौसी गुडींचा घर विश्राम कर, आनंद बहुत मनाये।
लाड लडाया मौसी ने, तबीयत हो गई नासाज।
देखभाल हुई बहुतेरी, किया गया इलाज।
स्वस्थ होकर तीनों भाई बहन, फिर से रथ चढ़ मंदिर आए।
तब से रथ यात्रा का उत्सव, भक्तजन पुरी में मनाए।
आषाढ़ माह में नंदीघोष नामक रथ चढ, प्रभु नगर भ्रमण करते हैं।
राह में रानी गुडींचा मौसी घर, विश्राम प्रभु करते हैं।
बलभद्र आते रथ रक्षित ध्वज चढ, सुभद्रा का रथ दर्पदलन है।
स्वर्ण झाड़ू से गजपति पुरी बुहारते, कहते जिसे छेरापरेरन है।
श्री जगन्नाथ स॔ग देवी लक्ष्मी का, है शाश्वत बंधन जुड़ा हुआ।
मंदिर से निवास नीलांचल तक, है "श्री" शब्द जुड़ा हुआ।
प्राचीन मूर्ति बनी थी नीलम से, नील माधव नाम से प्रचलित।
शंख, चक्र, गदा, पद्म धारी चतुर्भुज, मुगलों द्वारा हुई खंडित।
बनी फिर नीम काष्ठ से मूर्तियाँ, क्षय की प्रतिरोधी।
चंदन लेप से गर्भगृह सुगंधित, फफूंद का अवरोधी।
प्राचीन मूर्तियाँ "कोईली बैकुंठ", मंदिर में दफन है।
दिव्य शक्ति प्राप्त मूर्तियों की मिट्टी, दुश्मन का करती दमन है।
संपूर्ण भारत में जगन्नाथ मंदिर, पुरी का मंदिर है खास।
चमत्कार और रहस्यों के लिए, प्रसिद्ध है यहाँ का इतिहास।
पक्षियों का राजा गरुड़, विष्णु भगवान का वाहन।
जगन्नाथ मंदिर ऊपर न उड़ता, ना पक्षी ना वाहन।
हवा के विपरीत दिशा में, मंदिर ध्वज लहराता।
हर शाम उल्टा चढ़ मानव, शिवचंद्र से सजा नवध्वज लगाता।
दो सौ चौदह फीट ऊँचे गुंबज की, अदृश्य रहती छाया।
शीर्ष पर अष्टधातु निर्मित चक्र, हर दिशा मे सामने, है प्रभु की माया।
दुनियाँ का सबसे बड़ा रसोई घर, काठ बर्तनों से सजता।
सात बर्तन एक पर एक रख,प्रभु का महाप्रसाद बनता।
शीर्ष बर्तन में रखा सामान, सबसे पहले पकता।
सैकड़ो, हजारों चाहे लाखों भक्त हो, प्रसाद कम ना पड़ता।
सागर की आती गर्जन ध्वनि, सिंह द्वार प्रवेश कर, ना सुन पाते।
स्वर्गद्वार में मोक्ष हेतु शव जलते, दुर्गंध मंदिर में न सूंघ पाते।
श्री जगन्नाथ मंदिर की, परछाई नहीं बनती।
सूर्य किरणें मंदिर से टकराती, जमीन तक ना पहुंचती।
समुद्री तट पर हवा समुद्र से, जमीन तक आती है।
पर पुरी में हवा जमीन से, समुद्र की ओर जाती है।
देह त्याग बैकुंठ गए कृष्ण, दिल रहा पुरी में विद्यमान।
साक्षात जगन्नाथ रूप में, दाऊभैया- सुभद्रा बहन स॔ग विराजमान।
काष्ठ मूर्ति का नव कलेवर, बारह साल में एक बार होता।
चहूँ ओर अंधकार करते, ब्रह्म पदार्थ का स्थानांतरण होता।
ब्रह्म पदार्थ की ऊर्जा मानव, खुली आँखों से देख न सकता।
नव मूर्ति में रखते आत्मा, धक-धक सा अनुभव होता।
एकादशी दिन भारत में, चावल खाना है वर्जित।
भगवान जगन्नाथ को त॔दुल, भोग किया जाता है अर्पित।
भगवत प्रेम में लीन ब्रह्मदेव, एकादशी को महाप्रसाद खाए।
चावल का प्रसाद प्राप्त कर, मन को बहु तृप्त पाए।
एकादशी माता ने यह देख, महाप्रसाद का निरादर किया।
विष्णु जी ने बंधक बना, मंदिर में उल्टा लटका दिया।
बाईस सीढी जगन्नाथ मंदिर में, तीसरी यम सीढी कहलाती।
दर्शन कर आते भक्त जन, यम को फल प्राप्ति हो जाती।
मंदिर के सारे मंदिरों का दर्शन कर, भक्त दूसरा रास्ता अपनाते।
दर्शन का फल क्षय ना हो, दूसरे दरवाजे से बाहर आ जाते।
प्रभु ने समुद्र वेग नियंत्रित करने, हनुमान को नियुक्त किया।
दर्शन लालसा हेतु हनुमत स॔ग, समुद्र ने नगर प्रवेश किया।
केसरी नंदन की इस आदत से, प्रभु परेशान हुए।
स्वर्ण बेडी से आबद्ध कर, सागर तट बांध दिए।
बेडी में जकड़े हनुमान का, दर्शन करने भक्त आते।
अंजनी पुत्र के दर्शन कर, मनचाहा फल पाते।
अज्ञातवास में पाँचो पाँडव, जगन्नाथ जी का दर्शन करने आते।
चन्दन यात्रा में प्रभु संग पांडव, नरेंद्र सरोवर जाते।
परम ब्रह्म शाखा रूप में, तुलसीदास जी ने किया है वर्णन।
"बिन पैरों चले" "बिन आँखों देखे" "बिन कान सुने" प्रभु का है विवरण।
राजा इन्द्रद्युम्न हेतु कलयुग में, जगन्नाथ रूप लिए धार।
धरा पर भगवान विष्णु का, है अष्टम अवतार।