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अन्तरंगता हो जाए ईश से,पारदर्शिता का फिर मोल कहाँ।
प्रभु बैठे हैं घट माहीं,मूर्ख ढूँढता यहाँ - वहाँ।
सृष्टि संचार करने वाले,माता-पिता और है भगवान।
आदर सत्कार इनका कर,ना बन रे मन मूरख नादान।
मैं और मेरा करते करते,उम्र यूँ ही कट जाती है।
मेरा तेरा धरा रह जाता,आत्मा अकेली जाती है।
बन्द मुट्ठी आता प्राणी,खुली मुट्ठी जाता है।
कर्म घणेरे अच्छे कर ले,वही साथ में जाता है।
अस्सी,नब्बे,चाहे सौ, प्राणी चाहे जीले कितना।
शत प्रतिशत सत्य यही ,एक दिन यहीं सब छोड़ जाना।
सच्ची बात कड़वी लगती,झूठी मन को लुभाती है।
स्वप्न दिखावे की दुनियाँ में,सच्चाई छुप जाती है।
सभ्यता आगे बढ़ती जाती,अपनापन छूटा जाता है।
संयुक्त परिवार में अब सिर्फ,पति-पत्नी का नाता है।
कागज के फूलों जैसे रिश्ते,रह गए व्यवहार में ।
दीखने में है मनमोहक,खुशबू नहीं है प्यार में।
सिर मुंडवा कर आगे बढ़ना,काम दूसरों के आना।
पेंसिल सा जीवन अब कहाँ,सब बुनते अपना ताना-बाना।
धोखा,दिखावा,ढोंग,छलावा,दिन प्रतिदिन बढ़ता जाता है।
सच कहने वाले पर भी,कोई विश्वास नहीं कर पाता है।
कुछ गम ऐसे होते जीवन में,मानव बाँट नहीं सकता ।
ग़म के घूँट पीता रहता,कुछ किसी से नहीं कहता ।
जीवन की डोर कि नहीं है छोर,जीवन जीते जाते हैं।
सच्चा रिश्ता प्रभु से जुड़ जाए,सच्ची शान्ति सुख पाते हैं।