भगवत गीता में भगवान अर्जुन के माध्यम से हम सब को यह बताना चाहते हैं कि कर्म करना ही मानव का धर्म व जीवन दर्शन है।फल क्या मिलेगा? यह भविष्य की कोख में छिपा हुआ है ।अर्जुन क्षत्रिय है तो युद्ध करना उसके कर्म क्षेत्र में आता है।दादा ,मामा,ताऊ,चाचा,गुरू,साला,सम्बन्धी के मोह में अगर अर्जुन युद्ध नहीं करेगा तो वह कायरता रूपी गर्त में ही गिरेगा। युद्ध का परिणाम जाने बिना अर्जुन को युद्ध करना जरूरी है। भगवान यह समझाते हैं और कहते हैं कि अगर तुम युद्ध नहीं करोगे तो भी यह जितने संबंधी तुम्हारे सामने खड़े हैं, मृत्यु उनको अपने आगोश में भर ही लेगी क्योंकि उनका समयचक्र समाप्त हो चुका है ।अतः तुम युद्ध करो और अपना जीवन सफल करो।
आज के इस द्रुतगति से दौड़ते हुए युग में कर्मों के फलों का इन्तजार करना बड़ा मुश्किल काम हो गया है। अगर कोई दवाई धीरे काम करती है, तो किसी को इन्तजार नहीं होता तो कर्म का फल कब का कब मिलेगा, कौन विचारेगा ?कौन इंतजार करेगा?
पहले अच्छे कर्मों को इसीलिए किया जाता कि अगले जनम की पूँजी जमा कर रहे हैं।मानव को अधिकार मिला है व नित्य नये कर्म करें ।प्रारब्ध पर भरोसा ना करें।
मानव मस्तिष्क का ही परिणाम है कि सतयुग से मानव कलयुग या यूँ कहें पाषाण युग से आज के वर्तमान युग का संचालन बड़ी धूमधाम से कर रहा है।कहाँ एक ही स्थान पर रहने वाले तितर-बितर हो गए।हमारी सभ्यता आगे बढ़ती जा रही है।उन्नति होती जा रही है ।पैसे की कमी नहीं है पर सबसे बड़ी क्षति हो गई है, मानवता की।मानव मानव के मूल्यों को आंकना हीं भूल गया ।
बेटा माँ- बाप को बड़े प्यार से वृद्धाश्रम भेज देता है।भाई बहन जो एक दूसरे पर जान छिङकते,आज के युग में सिर्फ "मैं और मेरा परिवार"मात्र रह गयाऔर पूरा परिवार जाए तेल बेचने।ऐसा क्यों हो रहा है क्योंकि स्वार्थ भावनाओं ने पैर पसार लिए हैं ।पड़ोसी पड़ोसी को नहीं जानता कैसा कमाल है? जहाँ पूरा गाँव अपना होता आज अपना बस "मैं" रह गया है ।
हम चौरासोलाख योनि को पार कर जब मानव जन्म पाते हैं तो विकसित बुद्धि के साथ धरा पर आते हैं । प्रभु हमे स्वच्छ व निर्मल काया और मन देकर संसार में भेजते हैं,पर हम अपने मन और काया को मैला पर लेते हैं ।
जीवन की अवधि का किसी को पता नहीं है ।कौन यहाँ कब तक रह पाएगा? कौन कब किससे बिछड़ जाएगा ?आज है और कल नहीं रह पाएगा।यह विधाता के वश में है। मानव तो विधाता के हाथ की कठपुतली है।
हमें जैसा भी देश-परिवेश मिला है,कर्म हमेशा अच्छे ही करने चाहिए। जैसा बीज बोएँगे फल तो वही प्राप्त होगा।नीम के बीज से आम की फसल होगी, उम्मीद व्यर्थ है।किसी का किसी कारणवश हम भला नहीं कर सकते हैं पर बुरा नहीं करें। किसी का घर जोड़ नहीं सकते तो कम से कम उसके घर में शक की आग का कीड़ा तो ना फैलाएँ।
"धरा को स्वर्ग बनाना"नारा हम सब अपनाले तो शायद शनै:शनै बदलाव जरूर आ सकता है। यह बात लिखनी ही नहीं,जीवन में अपनानी होगी तभी देश,प्रान्त, राष्ट्र का भला हो सकता है। माना आज के महँगाई युग में अपना ही पूरा नहीं होता दूसरे का कोई क्या ही भला करेगा,पर हम एक वृक्ष लगा सकते हैं। कम से कम उसका ऑक्सीजन जीवों का भला करेगा और आगे आने वाली पीढ़ी को भी हमारे लगाए हुए पेड़ से ऑक्सीजन तो मिल सकता है।
शौक के लिये एक कुत्ता पालना रिवाज सा हो गया है। इंसान इंसान को एक समय का खाना नहीं खिला सकता है पर जानवरों को पालना अपनी शान समझता है।माना भगवान ने प्रारब्धवश आपको खूब दिया है।उसे आप ऐसे बर्बाद कर दोगे तो अगले जन्मों का हिसाब बाकी ही रह जाएगा ।
हमें कर्म का फल क्या होगा? उसका विचार किए बिना ही सत्कर्म करते जाना है क्योंकि कर्म करना हमारा अधिकार है। परिणाम ईश्वर के हाथ में है।
परीक्षा में उत्तीर्ण होने के लिए मेहनत करना हमारा कर्तव्य है। हम अपनी तरफ से पूर्ण मेहनत करते हैं।परिणाम हमारे हाथ में नहीं है।कभी अच्छी परीक्षा देकर भी इंसान आगे नहीं बढ़ पाता और कभी कभी आगे बढ़ जाता है ।
भाग्य के भरोसे बुझदिल बैठते हैं।जो भाग्य में है ,मिल जाएगा, यह कोई उत्तर नहीं है ।भाग्य और पुरुषार्थ का का जोड़ा है ।
हमें नित्यप्रति सजग हो ,शुभ कर्म करने हैं।कर्म के फल के लिये आसक्त नहीं होना है।आलसी नहीं परिश्रमी बनना है ,क्योंकि मेहनत का फल मीठा होता है।
धैर्य की आवश्यकता अवश्य है,कारण "धीरे धीरे रे मना,धीरे सब कुछ होय।
माली सींचे सौ घड़ा,ऋतु आए फल होय ।"
यहाँ कर्म का पता है ।किसान कर्म करता है। दिन-रात के परिश्रम के बावजूद, कभी-कभी प्राकृतिक आपदा से अच्छा फल प्राप्त नहीं होता। पर इस भय से किसान कृषिकर्म नही छोङते।
परिणाम में प्रथम आयेगा या कम अंको से पास होगा,विद्यार्थी यह सोच पढ़ाई करना तो नहीं छोड़ सकता।
सन्तान कैसी होगी?उस डर से इंसान सन्तान पैदा नहीं करेगा तो संसार चक्र कैसे चलेगा ?
पृथ्वी अपनी धुरी पर चलती है,सूर्य रोज उदय-अस्त होता है,चाँद अपनी कलाऐं बदलता है ,बादल बारिश करते हैं,नदियाँ बहती रहती हैं,हवायें(कभी शीत-कभी ऊष्ण) चलती है, समुद्र गर्जन करता है ,इंसान जन्मता है और मरता है। सब प्राकृतिक क्रियाएँ हैं ।कोई क्रिया कर्म फल पर निर्भर नहीं है। हमें प्रकृति से यही सीख मिलती है कि कण-कण से कर्म करते जाओ, फल की आशा छोड़ दो ।
जिस कर्म में राग-द्वेष का खिंचाव होगा उसका फल अच्छा कैसे हो सकता है ?हम किसी को जलती आग में कूदा देंगे तो वह अवश्य जलेगा ही,पर किसी जले हुए का इलाज करेंगे तो संभवत: वह ठीक हो जाएगा। माना कभी ज्यादा तकलीफ हो तो, इंसान ठीक ना भी हो ,पर हमने कर्म तो अच्छे ही किये।
भगवान का कथन है," तू सत्कर्म करता जा, फल की आशा छोङ दे।"
अर्जुन पुत्र अभिमन्यु कृष्ण की बहन का बेटा था।वह चाहते तो अवश्य उसे जीवित कर सकते थे, परंतु अभिमन्यु के कर्मों के फल की समाप्ति हो चुकी थी।उसका जीवन उतना ही विधाता ने लिखा तो भगवान भी उसे जीवनदान न दे सके। हम तो फिर भी इंसान हैं!!!