पूर्व जन्म की कथा निराली, मीरा माधवी रूप में आई थी।
कृष्ण सखा नारायण के संग, माधवी सखी ब्याही थी।

सासू माँ के डर से माधवी, कृष्ण से ना मिल पाई थी।
नव जन्म ले मीरा रूप में, कृष्ण प्रियतमा बना आई थी।

कृष्ण प्रेम रंग में रंगी थी मीरा, नहीं जानती दुनियादारी।
जोधपुर के राठौङ रतन सिंह की कन्या, सुंदर,सुकोमल,सुकुमारी।

बालपन में छवि मन में बसाई, कृष्ण की बनी सुहागन थी।
माँ की बताई कृष्णमूर्ति की, मीरा बन बैठी दुल्हन थी।

पति को समर्पित होती नारी, मीरा के पति गिरधर गोपाला।
आठ बरस की बाली उमर में, मीरा बनी जैसे बृजबाला।

मेवाड़ महाराणा सांगा के पुत्र भोजराज, उन संग मीरा ब्याही थी,
फूट-फूट कर रो मीरा दहेज में, कृष्णमूर्ति संग लायी थी।

साँवरिया भक्ति में लीन मीरा, कुलदेवी को पूज न पाती थी।
सास, ननंद और देवर के, मन को न मीरा भाती थी।

निज मंदिर में मीराबाई, नृत्य कर कृष्णा को रिझाँती थी।
अपने प्रियतम में लीन मगन हो, भक्ति रस के गीत गाती थी।

बहन के ताने सुन राणा ने , मीरा मंदिर पट तोड़ दिया।
परमानन्द मगन मीरा को, कृष्णा प्रकट करो, हुकुम दिया।

नैनचोर यह खड़ा सामने, दिल मेरा चुराया है।
साधना में लीन,बेसुध मीरा को ,राणा ने गले लगाया है।

मीरा को रिझाँने एक दिन, श्याम रंग लगा राणा सुसज्जित हुए।
मनमोहन सम सज कर, मीरा समक्ष प्रस्तुत हुए।

मीरा थी श्याम मतवाली, ध्यान न उसका भ्रमित हुआ।
रंग की गर्मी से राणा अंग, लाल चकत्तों से चित्रित हुआ।

भक्ति की शक्ति देख राणा ने, रानी मीरा को माफ किया।
बाधा ना आए कृष्ण भक्ति में, न्याय कर इन्साफ किया।

बदकिस्मती मीरा के राणा, बीच मंझधार शहीद हुए।
राणा के सम्बन्धी राजगद्दी हेतु, मीरा का तिरस्कार किए।

राणा जी की मृत्यु बाद, मीरा नहीं हुई सती।
मेरे तो गिरधर गोपाल, साँचा मेरा वही पति।

मीरा के देवर राणा विक्रमादित्य, चित्तौड़ गद्दी पर आसीन हुए।
प्रहलाद पिता हिरण कश्यप जैसे, मीरा पर अत्याचार किए।

काँटों की सेज बनी फूलों सी, बिषधर फूल माला बना।
विष का प्याला पीया मीरा ने, सरस सुधा रस अमृत बना।

सांसारिक सुख का मोह नही, पतिव्रता थी मनमोहन की।
पारिवारिक नातों से ना नाता, बन गई मीरा जोगन थी।

राजकुल की कुलवधू, सत्संग में चली जाती थी।
धार्मिक उत्सवों में नाचती मीरा, राणा को नहीं सुहाती थी।

राजगद्दी की चाह नही, कृष्ण प्रेमानन्द से आनन्दित थी।
साधु समाज मण्डली बीच मीरा, नाचती हो निस्पन्दित थी।

कुल मर्यादा सोच विक्रमादित्य ने, साधु मण्डली बीच, दिया तीर मार।
कौन सी मीरा को लगेगा? एक मीरा की हुई हजार।

चित्तौड़गढ़ में चैन नहीं, मीरा बढी मेड़ता ओर।
सन्तोष नहीं पाया मीरा ने, पहुँची जन्मे जहाँ नन्द किशोर।

गुरु रविदास की बन शिष्या, भक्ति की महिमा गाती थी।
कृष्ण सेवा में हो रत, नित नये पद, प्रभु को सुनाती थी।

गीत काव्य के उत्तम नमूने, मीराबाई के हैं पद।
विरहानुभूति, हृदय व्यथा, प्रेम तन्मयता से है रत। 

मरुस्थल की महारानी, भक्तिकालीन कवियत्री बनी।
ब्रज भाषा, हिन्दी, गुजराती, पंजाबी राजस्थानी में गुनी।

मीरा निकली मेवाड़ से, उपद्रव कईं होने लगे।
राणा जी के आदेश से, अनुचर मीरा को बुलाने भागे।

एक तारा उठा लिया मीरा ने, स्तुति कृष्ण की करने लगी।
आँखों में प्रेम की अश्रु धारा, भावना में बहने लगी।

एक ज्योति निकली शरीर से, कृष्णमूर्ति में समा गई।
माधवी से बन मीरा, भक्ति पद के गीत गा गई।

मेड़ता राठौड़ वंश में जन्मी, सिसोदिया वंश चित्तौड़ में ब्याही थी।
वृन्दावन में गुरु बनाया, द्वारिका में, कृष्णमूर्ति में समाई थी।

जीवन के अन्तिम पड़ाव में, चाहत मेरी यह जागी।
प्रभु ध्यान में हो मगन, मीरासी बनू मैं बैरागी।

चाहत मेरी है यही, मीरा सा मन मेरा हो जाए।
कृष्ण प्रियतम, कृष्ण सखा, मार्गदर्शक कृष्ण बन जाए।

सामर्थ्यवान, अविजित प्रेमी, मनमोहन राह दिखा पाए।
सब छोड़-छाड़ संसार प्यार, गिरधर मेे लीन मन हो जाए।

मैं भी नाचू गली गली, भाव विभोर की ओढ चादर।
गागर में सागर भर जाए या भरे सागर में गागर

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