भारत देश में शूरवीरों एवम् दानवीरों की कमी नहीं है पर कुछ अलौकिक,अनुपम उदाहरण ऐसे हैं, जिन्हें त्याग की गणना में सर्वश्रेष्ठ श्रेणी में रखा जाएगा।

दानवीर कर्ण ने सूर्य द्वारा जन्मजात प्रदत्त कवच-कुण्डल शरीर से चीर कर निकाल दिए। स्वयं लहू लुहान हो गया पर अपनी दानवीरता नहीं छोड़ी।

सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र ने अपना राज पाट, पुत्र ,पत्नी सबका त्याग कर दिया पर अपना सत्य वचन निभाया।

न्याय प्रिय राजा शिवि ने एक कबूतर के लिए अपना माँस काट कर दे दिया। पर अपना वचन निभाया।

तन त्याग कर दूसरों का भला करने वाले महान दानी ऋषि दधिची का त्याग महा त्याग है। उनके त्याग को याद कर मन गर्व महसूस करता है।

लोक कल्याण हेतु महायोगी दधीचि ने बिना कुछ निज स्वार्थ आत्मा को समाधिष्ट कर, शरीर त्याग दिया ।प्राण निकल जाने पर ऋषि की हड्डियों से ब्रह्मा जी ने वज्र बनाया। दुर्जेय ब्राह्मण की हड्डी से बने हुए, विष्णु अविष्ट उस वज्र से इन्द्र ने वृत्रासुर को मारा।

इस प्रकार संसार पर आई विपत्तियों का निवारण दधीचि ऋषि के महान त्याग द्वारा हुआ ।ऐसा महादानी युगों युगों में कोई बिरला ही होता है।

महान ऋषि अथर्व व मां शांति के पुत्र दधीचि ऋषि भगवान शिव के परम उपासक थे।उनकी तपस्या भंग करने देवराज इन्द्र ने कामदेव को भेजा पर असफल कामदेव खाली हाथ लौट आए।इन्द्र को अपने इन्द्रासन पर बड़ा नाज था।इसलिए वह स्वयं सेना लेकर,ऋषि पर आक्रमण करने आए पर समाधिस्थ ऋषि का बाल भी बाँका न कर सके। मुँह की खाकर लौट गए ।

भाद्र मास की शुक्ल अष्टमी को महादानी ऋषि दधीचि की जयंती बड़ी आस्था से मनाई जाती है।

एक बार देव राज इन्द्र अप्सराओं का नृत्य देखने में इतने व्यस्त हो गए कि, देवगुरु बृहस्पति की अवहेलना कर दी। गुरु नाराज हो देव लोक छोड़कर चले गए ।गुरु के बिना अनाथ देवता ब्रह्मा जी के पास गए। ब्रह्मा जी ने उन्हें बहुत डाँटा और कहा कि," गुरु को नाराज करना महा अपराध है।अब जब तक गुरु खुश नहीं होते तब तक "विश्वरूप" को अपना गुरु बना लो। विश्वरूप की माता असुर पुत्री है अत: वह असुरों के लिए पक्षपात कर सकता है।"

तीन सिरों का वरदान प्राप्त विश्वरूप आध्यात्मिक शक्तियों से सम्पन्न साधु थे,इसीलिए देवताओं ने ब्रह्मा जी की आज्ञा मान उन्हें अपना यज्ञ पुरोहित (गुरु) बना लिया ।

देवताओं ने गुरु विश्वरूप से "नारायण कवच" का अनुष्ठान कराया। "नारायण कवच" के कारण देवता विजयी हुए ।स्वर्ग का राज्य फिर से देवताओं का हो गया। इन्द्रासन पर इन्द्र फिर से विराजमान हो गए ।अब इन्द्र राज्य की सुरक्षा के लिए यज्ञ करने लगे। इन्द्र ने देखा कि, प्रत्यक्ष रूप से देवताओं के पक्ष में आहुति दे रहे गुरु,परोक्ष रूप से असुरों के नाम आहुति दे रहे हैं। यह देख इन्द्र महाकुपित हो गए एवं बिना सोचे समझे गुरु विश्वरूप का सिर धङ से अलग कर दिया।

त्वष्टा को जब अपने पुत्र के वध का पता चला तो उन्होंने इन्द्र से बदला लेने हेतु यज्ञ किया। यज्ञ की अग्नि से त्वष्टा को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। जिसका नाम वृत्रासुर रखा गया।वृत्रासुर का एकमात्र लक्ष्य था अपने भाई के हत्यारे इन्द्र का वध करना व उससे प्रतिशोध लेना।

वृत्रासुर ने ब्रह्मा जी की घोर तपस्या करके ऐसा वरदान प्राप्त किया,जिसके अनुसार उस समय तक बने किसी हथियार से वह नहीं मारा जाएगा।ना गीली ना सूखी वस्तु से मारा जाएगा। ना लकड़ी ना धातु से बने अस्त्र-शस्त्र से मारा जाएगा।युद्ध में उसकी शक्तियाँ शत्रु पक्ष से बढ़ती ही जाएगी।

तपस्या करने के उपरान्त वृत्रासुर ने इन्द्र को युद्ध के लिए ललकारा।देवराज इन्द्र बुरी तरह पराजित हो गए।परिणाम स्वरुप इन्द्र अपने ऐरावत हाथी को छोड़ ,युद्ध के मैदान से भाग गए व इन्द्र लोक पर वृत्रासुर का अधिकार हो गया। वृत्रासुर की एक हुँकार सुन, सारे देवता मिल उस पर टूट पड़े पर वृत्रासुर(जो विशाल शरीर का मालिक था) ने देवताओं के सारे हथियार तोङ डाले ।उन हथियारों को चबा चबाकर खा गया।

निज स्वार्थ हिताय देवेन्द्र, गए शंकर के पास।
रक्षा मेरी करो प्रभु, वृत्रासुर करेगा जग नाश।
शंकर व ब्रह्मा जी मिल,गए विष्णु के पास।
दधीचि ऋषि की हड्डियो से,होगा वृत्रासुर का विनाश।

एक खास बात ( त्वष्टा इन्द्र को मारने वाला पुत्र चाहता था पर कर्मकाण्ड का विषय कठिन होता है और भगवान की भक्ति सरल। भक्त की गलती भगवान सम्भाल लेते हैं पर कर्मकाण्डी को दण्ड खुद को भुगतना ही पड़ता है।ऐसा ही कुछ त्वष्टा के साथ हुआ ।उसके मंत्रों का गलत उच्चारण ऐसा हुआ,इन्द्र को मारने वाले पुत्र की जगह इन्द्र से मारा जाए ऐसा मंत्र उच्चारित हो गया।वृत्रासुर का वध करने का जरिया भगवान ने देवताओं को बताया।)

अब सब देवता मिल भगवान के पास गए ।भगवान ने कहा,"दधीचि ऋषि की हड्डियों से अगर वज्र बने तो उसी से वृत्रासुर का संहार होगा ।लेकिन जीवित ऋषि की हड्डी नहीं ले सकते ।उनके शरीर त्याग करने पर ही हड्डियाँ ली जा सकती है।"

मतलब में सिद्ध इन्द्र ऋषि दधीचि के पास हड्डियाँ लेने चला गया। ऋषि को प्रणाम किया और बोला,"महाराज! मुझे आपकी हड्डियाँ चाहिए।"

दधीचि बोले,"हे देवराज इन्द्र! तुमने जीवित प्राणी की हड्डियाँ मांगी,विचार नहीं किया। भगवान भी मांगे तो जीवित प्राणी ना ही करेगा।"

इन्द्र ने कहा," मैं समझता हूँ गुरुवर! यह अनुचित है।पर भगवन ! समस्या विकट है, मैं विवश हूँ। आपकी हड्डियों से बने वज्र से ही देवताओं की जान बच पाएगी ।"

दधीचि ऋषि ने भगवान का ध्यान किया और योग के द्वारा अपना शरीर त्याग किया ।उनकी हड्डियों से इन्द्र ने वज्र बनाया ।

वज्र प्राप्त कर देवता वृत्रासुर से युद्ध करने लगे ।इन्द्र ने अपनी गदा का प्रयोग किया पर उसका प्रहार बेकार गया। वृत्रासुर ने अपने बाएँ हाथ से इन्द्र के एरावत के मस्तक पर प्रहार कर खून निकाल दिया। इन्द्र सहम गया। वृत्रासुर इन्द्र से कहता है कि,"हे इन्द्र!तू वज्र का प्रयोग कर! यह गदा की तरह व्यर्थ नहीं जाएगा क्योंकि वज्र में तीन शक्तियाँ हैं।प्रथम भगवान नारायण की शक्ति,द्वितीय दधीचि ऋषि के त्याग का फल और तृतीय हे इन्द्र!तुम्हारा प्रारब्ध।तू अवश्य विजयी होगा।"

वृत्रासुर आँख बन्दकर भाव समाधि में चला जाता है क्योंकि उसे यह ज्ञान था कि मैं जीत जाऊँगा तो भाई की मृत्यु का बदला ले लूँगा और अगर मर गया तो प्रभु धाम में चला जाऊँगा पर ऋषि दधीचि के त्याग को व्यर्थ नहीं जाने दूँगा।इन्द्र की जीत तो निश्चित है।

भाव समाधि में लीन वृत्रासुर भगवान को कहता है ,"हे प्रभु !मैं जानता हूँ जिसकी विजय होगी उसे स्वर्ग मिलेगा व जिसकी मृत्यु होगी उसे बैकुण्ठ मिलेगा । आप अपने भक्तों को तुच्छ नहीं,महान वस्तु ही देते हैं।अत: मेरी पराजय ही मेरी जीत है ।"

इन्द्र को वृत्रासुर फिर कहता है कि,"हे इन्द्र!तू वज्र का प्रहार कर! दधीचि की तपस्या व महादान व्यर्थ न जाने दे"

इन्द्र ने वज्र का प्रहार किया। वृत्रासुर का सर धङ से अलग हो गया व एक दिव्य ज्योति प्रभु धाम को चली गयी।

ऐसे ऐसे दानी,महादानी व परम भक्तों की व्याख्या जितनी वर्णन करें उतनी कम है। मैं नतमस्तक हो ऋषि दधीचि को प्रणाम कर,वृत्रासुर की भावना को अपना मन अर्पित करती हूँ।

ऋषि दधीचि की तपस्या देख,इन्द्र हुआ परेशान।
कामदेव लज्जित हुआ,झुका ना सका मान।।
संगीत सभा भंग न हो,गुरु बृहस्पति का किया अपमान।
बिन गुरु जीवन ना चले,विश्वरूप को माना गुरु समान।।
प्रजापति त्वष्टा पुत्र विश्वरूप,दानवों का था नाती।
देव यज्ञ में चुपके से,दानव पक्ष में देता आहुति ।।
यह देख देवेन्द्र ने,काट लिया गुरु का सिर।
त्वष्टा ने नष्ट करने इन्द्र को,यज्ञ से प्रगट किया वृत्रासुर।।
महाकाय तन देख कर,नाम रखा वृत्रासुर।
घोर तपस्या कर वृत्रासुर ने,पा लिया असंभव वर।।
काठ,धातु,सूखा,गीला,मार सके न कोय।
बलशाली वृत्रासुर सामने,टिक सके ना कोय।।
हत् प्रभ हो इन्द्रदेव,चले ब्रह्मा जी पास।
ब्रह्मा महेश मिल चले,लक्ष्मी वर के पास।।
दधीचि ऋषि की हड्डियों का, वज्र बनाओ इन्द्र।
आज्ञा मान भाग चले, ऋषि पास में इन्द्र।।
अन्याय किया था इन्द्र ने, ऋषि दधीचि बड़े थे त्यागी।
आत्म ध्यान कर योगाभ्यास से, देह अपनी त्यागी।।
ब्रह्मा जी ने हड्डियों से, वज्र किया तैयार।
वृत्रासुर समाधिष्ट हो,मरने को तैयार।।
धन्य धन्य दधीचि ऋषि,किए देह का त्याग।
परोपकार हेतु मुनि, दिये सर्वस्व त्याग।।

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