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"मैं" क्या है? एक अहम् भावना! जो चमक-दमक हमारे अन्दर हैं, वह हमारे माता-पिता व परमपिता परमेश्वर की ही देन है।

मैंने यह किया,मैं यह कर सकता हूँ, मैंने अपनी बुद्धि से आज यह प्राप्त किया, यह भावनाएँ हमारे अहम् को बढ़ावा देती है और हम से जब कोई और ऊपर उठता है तो यह भावना हमारे लिए दुखदाई हो जाती है,

और हमारे मन में हीन भावना पैदा करने का सबसे बड़ा कारण बन जाती है।

मैं कैसा हूँ?, कैसा दिख रहा हूँ? यह हर व्यक्ति के मन में रहता है।वह अपनी सुन्दरता जैसी भी हो उसे दिखाने का प्रयास हर वक्त करता रहता है ।मैं बड़ा बनू, मुझे सब कोई पहचाने,शादी में या भीड़ में लोग मुझे ही देखे ,यह भावना ही इतना सम्मान ना मिलने पर मन में मलीनता पैदा कर देती है।

हमें कोई देखे या ना देखे पर यह पक्की बात है कि ईश्वर हमारी हर क्रिया हर पल देखता है ।अपनी सुन्दरता उसे दिखाने की जरूरत ही नहीं है कारण हम उसकी सन्तान हैं।

सन्तान अपने माता पिता को सबसे ज्यादा प्यारी और सुन्दर लगती है। बच्चा चाहे कैसा भी हो पर अपने माँ-बाप का लाडला होता है ।हर माँ- बाप अपने बच्चे की तरक्की से ही खुश रहते हैं।

हम जितना ऊपर उठेंगे,भगवान भी हम से उतना ही खुश होंगे। हम जितना उनका नाम जपेंगे उतना ही वह हमारे पास आएँगे।

भगवान के लिये किये किसी भी काम में एक कदम हम बढाएँगे ,प्रभु दस कदम सामने आकर हम को गले लगायेंगे।

हमें अपने अन्दर अहम् भावना पैदा ना करके सेवा भावना जगानी चाहिए।

हम तीर्थ करने जाते हैं,मन्दिर जाते हैं, सब जगह रुपया देकर(ईश्वर दर्शन में भी यही होता है) मैंने दर्शन बड़े आराम से किये। मैंने टिकट का मनमाना रुपया दिया।

मैं और अहम् एक दूसरे के पूरक है जो पैदा करते हैं ईर्ष्या एवम् क्रोध के साथ हीन भावना को।

हमे ईर्ष्या-द्वेष करने चाहिए पर किससे ?अरे जो भगवान को सच्चे मन से चाहे, किसी लाचार की सेवा करे,किसी के कष्ट में काम आये।

ऐसे में यह सोचना चाहिए कि वह हमसे इतना आगे क्यों बढ़ गया ?

हमें भी और सेवा करनी चाहिए पर आज के इस कलयुग में जहाँ हलचल मची हुई है, यह सब बहुत मुश्किल है।ठगी की दुनियाँ,ठगने वाले लोग!

हम किस पर भरोसा करें? किस पर नहीं?समझ नहीं आता। हम चाहते हैं कि ऐसा युग आए कि पहले जैसे सब एक दूसरे पर भरोसा करे।पूरा गाँव अपना हो। पूरा शहर अपना हो। पड़ोसी भाई भाई जैसा हो। भाई- भाई में प्यार हो। स्वर्ग सी धरती बन जाए और खत्म हो जाए आपसी वैमनस्य!

अहम् की भावना में कभी-कभी इँसान किसी को नीचा दिखा,स्वयं ऊपर चढ़े, इससे बुरी कोई बात नहीं होती।इससे हम अपने आप को अधोगति के दलदल में फँसा,स्वयं के लिए नरक का द्वार खोल लेते हैं।

ना मालूम किस जन्म का पाप-पुण्य कब काम आये। अतः कर्म हमेशा अच्छे करे।

सत्कर्म व दुष्कर्म करने में आपका पढ़ा लिखा होना जरूरी नहीं है बल्कि मन के भाव जरूरी है ।भाव अच्छे होंगे तो इँसान बुरा कर्म कभी कर ही नहीं सकता।

प्राय: लोग बेटी,बहू में या बहू-बहू में भेद करते हैं।यह भेदभाव दुष्कर्म की पहली सीढी है।अरे !एक नौकर व काम करने वाली बाई भी इँसान है, उन्हें भी हमें सद्भाव से देखना चाहिए तो घर में बहू ,बेटी,बहन व भाभी में भेदभाव कैसा? हो सकता है कोई आपके प्रतिकूल हो कोई अनुकूल,पर है तो इँसान ही। आपका जिसे बनेगा उससे तो निभाओगे,जिससे ना बने उसे दुत्कारोगे,तो हो गई ना इँसानियत की उपेक्षा!

आप जिसे देखना ही पसंद नहीं करते,उससे फिर अपेक्षा कैसी?

भेदभाव की भावना दुर्गति का सोपान है।

ऐसा माना जाता है कि मोह-माया हमलोगों के कल्याण में बाधक है,पर हम अपने बच्चों से प्यार नहीं करेंगे तो क्या कोई दूसरा करेगा? कभी नहीं। इसका मतलब यह नहीं है कि हम दूसरे बच्चे को नीचा दिखा कर अहम् भावना से अपने बच्चे को ऊँचा दिखाए। ऐसा करने से यह होगा कि, अपना बच्चा ही जीवन में सीधी चाल भूल जाएगा ।बाद में हाथ लगेगा पछतावा।

धन अर्जित करना भी जरूरी है।निष्कर्म इँसान किस काम का?

हमारे पास पैसा नहीं होगा तो जिंदगी काटना दूभर हो जाएगा। जीवन चलाने के लिए जरूरी है पैसा,पर पैसा प्राप्त करने के लिए हमें किसी दूसरे को नुकसान नहीं पहुचाना है। हम अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए दूसरे को दु:ख पहुँचाए,तो हमारा जीवन धिक्कार है।हमें उतना ही लाभ अर्जित करना चाहिए,जितनी जरूरत है।

क्रोध करना बुरी बात है। उसे छोड़ना बहुत मुश्किल भी है,छोड़ना जरूरी भी है। इससे दूर भागना है तो हमें अपने आपको प्रभु के ध्यान में लगना होगा। प्रभु के नाम की धुन लग जाएगी तो समय ही नहीं मिलेगा क्रोध करने का व जिंदगी को डुबोने का ।धीरे-धीरे अभ्यास करते करते मानसिक शान्ति मिलेगी, ज्ञान बढ़ेगा तो हम अहम् की भावना को स्वयं ही भूल जाएँगे।

हमारा जीवन "मैं"के दर्प से जब ऊँचा उठेगा तभी सँवरेगा।

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