आज लिख रही एक कहानी,
ना कहती दादी ना कहती नानी।
श्रीमद् भागवत की यह कथा,
जीवन की मिटाती हर व्यथा।
एक दिन अर्जुन पौत्र परीक्षित, कृष्ण प्रपौत्र से मिलने आए।
चरणों में गिर गया ब्रजनाभ, हर्षित मन, परीक्षित के दर्शन पाए।
परीक्षित को देख ब्रजनाभ, मन में हुआ अति प्रसन्न।
पिता तुल्य आप हो मेरे, क्षत्रियोंचित्त शूरवीरता से संपन्न।
दोनों के पिता और पितामह, एक दूजे के उपकारी।
गर्भ में रक्षा की परीक्षित की, कृष्ण का वह आभारी।
द्वारिका डूब जाने से अर्जुन, ब्रजनाभ को लाये हस्तिनापुर।
यदुवंशियों के एकमात्र वंशज को, बिठाया मथुरा के सिंहासन पर।
धर्मराज युधिष्ठिर ने अनिरुद्धनंदन का, मथुरा मण्डल में किया राज्याभिषेक।
हिमालय पर चले पाँचो पाँडव-द्रौपदी, परीक्षित का हस्तिनापुर में कर अभिषेक।
अभिमन्यु पुत्र परीक्षित, अनिरुद्ध पुत्र बजनाभ।
अर्जुन पौत्र,कृष्ण प्रपौत्र, दोनों मिल बसाये ब्रज धाम।
कृष्ण पुत्र साम्ब गर्भवती बन, परीक्षा लेने गया मुनियों के पास।
ध्यान धर ऋषियों ने बताया, पेट का मूसल करेगा सर्वनाश।
मूसल देख यदुवंशी, घबराकर द्वारिका आ गए।
कुरुक्षेत्र में चूरा चूरा कर, मूसल को फेंकवा दिए।
प्रभु इच्छा से मूसल का चूरा, तृणवत रूप हो गया।
छोटा सा एक तिनका, शिकारी के हाथ लग गया।
शापित यदुवंशियों का, तृण युद्ध से हो गया था नाश।
ब्रजनाभ एक यदुवंशी, निर्जन वन में कर रहा निवास।
जरा नामक बहेलिया ने, चलाया तीर समझ हिरण।
श्रीकृष्ण ध्यान मग्न बैठे, तीर ने बीन्ध दिया चरण।
मथुरा मण्डल राज्य पर, ब्रजनाभ हुआ अभिषिक्त।
राज्य खाली था बिन राजा, जनता ने कर दिया था रिक्त।
नन्द गोपों के पुरोहित शाण्डिल्य ऋषि, आये परीक्षित का सुन संदेश।
स्वागत किया ब्रजनाभ ने, आसन पर बिठा किया अभिषेक।
निर्जन ब्रजभूमि का रहस्य, बताये शाण्डिल्य ऋषीवर।
कृष्ण की माया छिपी है, डाल-डाल और पात पर ।
परब्रह्म स्वरूप ब्रज धाम में, कृष्ण करते हैं निवास।
सत, रज, तम तीनों गुणों में, है यहाँ कृष्ण का वास।
मथुरा मण्डल के कण-कण में,
मथुरा मण्डल के वन-वन में ,
मथुरा मण्डल के घर-घर में,
मथुरा मण्डल की गली-गली में,
मथुरा मण्डल के घाट घाट पर,
मथुरा मण्डल के पात-पात पर,
व्यापक है यह ब्रज सारा, ब्रज का मतलब व्याप्ति।
ग्वाल, बाल, गोपियाँ, गायें, लीला विहार कर, सुख की करते प्राप्ति।
भगवान कृष्ण की आत्मा राधिका, राधा रमण कहलाए आत्माराम। कामना शब्द का अर्थ अभिलाषा, सांसारिक काम का नहीं है नाम ।
लीला के दो रूप बताए, व्यावहारिक और वास्तविक।
स्वर्ग पृथ्वी पर व्यावहारिक लीला, ब्रज मण्डल में है वास्तविक।
अन्तरंग प्रेमियों संग प्रभु, धरा धाम में आते हैं।
छोड़ जाते प्रभु धरा धाम को, भक्त ह्रदय में समा जाते हैं।
अन्तरंग पार्षद भक्तों का, कभी नहीं होता वियोग ।
अभिलाषाय पूर्ण करते प्रभु, हृदय मण्डल पर सजा संयोग ।
अन्तरंग लीला कृत भक्तजन, हृदय में प्रवेश पाना चाहते।
सच्चा प्रेम देख दिलों में, प्रभु प्रेम रस उन पर बरसाते।
देवता रूपी भक्तजन, ब्रज भूमि में आए, प्रभु के साथ।
ऐसे भक्तों को हरि, द्वारिका ले गए अपने साथ।
ब्राह्मण शाप से उत्पन्न मुसल को, निमित्त बनाये हैं भगवन।
यदु कुल में अवतीर्ण देवताओं को, बैकुण्ठ ले गए भगवन।
व्यवहारिक लीला में स्थित भक्तजन नित्य लीला दर्शन नहीं कर पाते।
निर्जन बन सा लगता यह प्रदेश, वास्तविक लीला न देख पाते।
यह मथुरा मण्डल भूमि सच्चिदानंदमयी, हे ब्रजनाभ!तुम इसका करो सेवन।
हर स्थल की पहचान करो, हो जाएँगे उद्धव दर्शन।
शाण्डिल्यमुनि चले निज आश्रम, कर रहे मन में प्रभु स्मरण।
परीक्षित और ब्रजनाभ यह सुन, मन में हुए अति प्रसन्न।
राजा परीक्षित ने इंद्रप्रस्थ के, धनी लोगों को निमन्त्रण दिया।
एक से बढ़कर एक सेठ सब, मथुरा में निवास का निश्चय किया।
लीला स्थलों का पता लगा ब्रजनाभ ने, स्थानों का नामकरण किया।
भगवद्विग्रह, कुंज बगीचे, शिव आदि देवों को स्थापित किया।
शुभ कर्मों द्वारा ब्रजनाभ ने, कृष्ण भक्ति का प्रचार किया।
भगवत लीला, कीर्तन में संलग्न प्रजा ने,परमानन्द को प्राप्त किया।
कृष्ण वियोग में प्रभु की रानियों ने, पटरानी कालिन्दी से प्रश्न किया? व्यथित,विरहाग्नि से हम जलती, कैसे शीतलत आपने प्राप्त किया?
बहन समान सब रानियों को, द्रवित देख यमुना ने उत्तर दिया।
कृष्ण आत्माराम, राधा आत्मा, दासी मैं, सेवा से मन प्रसन्न किया।
राधा ही कृष्ण, कृष्ण ही राधा, सब रानियाँ राधे की अंशी है।
नित्य संयोग प्राप्त करती ये, प्रेम प्रभु की बंशी है।
कृष्ण चरणों के नख रूपी चँद्रमा की, सेवारत रह कहलाती चँद्रावली।
स्वरूप दूजा ना धारण करती, राधा की प्यारी सखी चँद्रावली ।
अभीष्ट अर्थ की सिद्धि मिली, बनी हम भी राधा की दासियाँ।
उद्धव दर्शन की लालसा लिए,यमुना को बोली रानियाँ।
परमधाम जाने के पहले माधव ने, उद्धव को भेजा बद्रिकाश्रम ।
गोवर्धन निकट गोपी विरहस्थली, अप्रत्यक्ष रूप में उद्धव करते भ्रमण।
भगवद् गुणगान से, उद्धव जी देंगे दर्शन ।
भगवत मण्डली एकत्रित कर के, श्री कृष्ण के करो कीर्तन ।
वीणा, मृदँग, वेणु,बाजों संग, मनाओ कृष्ण के उत्सव ।
ब्रजनाभ, परीक्षित के कीर्तन से, कीर्तन मण्डली में प्रगटे उद्धव।
तृण,गुलाम, लताओं के झुंड से, उद्धव आए सुन कीर्तन।
श्यामवर्ण, गले गुँज माला, पीताम्बर धारी दिए दर्शन।
बोले उद्धव परीक्षित से, तुम हो कृष्ण भक्ति में परिपूर्ण ।
कृष्ण पत्नियो संग ब्रजनाभ का, मथुरा में आना हुआ है संपूर्ण।
गोवर्धन, दीर्घपुर, मथुरा, महावन, नन्द गाँव, बरसाना,वृन्दावन।
पर्वत, घाटी, सरोवर, कुण्ड, लीला किये जहाँ भगवन ।
प्रेमी गोप, गोपियों, गायों संग, जहाँ प्रभु करते विचरण।
लीला विग्रह की कर स्थापना, ब्रजनाभ ने किया नामकरण।
तन रूपी वृन्दावन में, राधा कृष्ण रूपी दो नयन ।
हृदय रूपी ब्रज में विराजे, यशोदा के लाला नंद-नंदन ।
ब्रज के कण-कण में कृष्ण, कृष्ण ही पुरुषार्थ है।
कृष्ण ही काया, कृष्ण ही माया, कृष्ण पूर्ण परमार्थ है।
कृष्ण ही दिवस, कृष्ण ही रात्रि, कृष्ण स्वप्न शयन है।
कृष्ण ही काल, कृष्ण ही कला, कृष्ण मास अयन है।
कृष्ण ही प्रेम, कृष्ण ही प्रीति, राधे कृष्ण अनुराग है।
कृष्ण ही कली, कृष्ण ही भ्रमर, कृष्ण ही पराग है।
कृष्ण ही भोग, कृष्ण ही त्याग, कृष्ण ही तत्व ज्ञान है ।
कृष्ण ही भक्ति, कृष्ण ही शक्ति, कृष्ण ही विज्ञान है ।
कृष्ण ही स्वर्ग, कृष्ण ही मोक्ष, कृष्ण ही परम साध्य है।
कृष्ण ही ब्रह्म, कृष्ण ही जीवन, कृष्ण ही आराध्य है।
कृष्ण ठुमकत, कृष्ण नाचत, कृष्ण श्याम और भोर है ।
कृष्ण बुद्धि, कृष्ण ही मन, कृष्ण परम विभोर है।
परीक्षित और शाण्डिल्य सहयोग से, ब्रज मण्डल की हुई स्थापना।
अंतिम यदुवंशी ब्रजनाभ ने, हर हृदय में रखी कृष्ण भावना।
ब्रज भूमि सा और कोई, भूमि खण्ड पृथ्वी पर नहीं।
अद्भुत लीला किये जहाँ कृष्ण, दूजा कोई धाम नहीं।
निराकार प्रभु साकार रूप में, नर रूप में बने नंद-नंदन।
बाल सुलभ लीलायें कर, कहलाए यशोदा नंदन।
माखन खाऐ,मटकी फोड़ी, गोपियों संग रचाये रास ।
खेल-खेल में बलराम कृष्ण ने, कंस मामा का किया है नाश।
ब्रह्म ज्ञानी उद्धव का ब्रज में, ज्ञान हो गया लुप्त ।
कृष्ण चले गए धरा धाम से, उद्धव रहे लता बन गुप्त।
ज्ञान दीप जलाने उद्धव, आए वृन्दावन ब्रज धाम।
भूल गए निज को प्रेम वश, लता पता मैं देखे श्याम।
ब्रज सूना कृष्ण लीला बिन, ब्रजवासी मृत समान बिन कृष्ण।
इच्छा है मेरी वास करे, हृदय मण्डल के माँही कृष्ण।
ब्रजनाभ नाम से मथुरा मण्डल, कहलाया ब्रजमण्डल धाम।
रास रचाये राधे कृष्ण, गोप गोपियाँ और बलराम।