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विचारों की आँधी जब मन को, झँकझोर जाती है।
कलम खुद-ब-खुद लिखने को,मजबूर हो जाती है ।
आगे क्या लिखूँ? सोचना कहाँ? भाव यूँ ही व्यक्त किए जाती हूँ।
मर्म ह्रदय की मानसिकता,मैं उतार कर खुश हो जाती हूँ।
दीपक तले अँधेरे जैसे,खुद ऊपर से चमकती हूँ।
अपने भाव पढ़कर मैं,आनन्द विभोर हो उठती हूँ।
कल और आज के जीवन में,अन्तर बहुत ही पाती हूँ।
अंन्तर्मन से सतयुग में रहती,कलयुग में बहती जाती हूँ।
(एक वक्त ऐसा भी था)
मिट्टी का घरौंदा मेरा,गोबर से लिपवाया था।
छोटी सी खिड़की पर ,खस-खस का पर्दा लगाया था।
घास फूस की छत थी मेरी, बाँसों से सजवाया था।
बारिश की रिमझिम बून्दों से,घर मेरा सिंचवाया था।
सूरज की किरणों से मैंने,घर को रोशन पाया था।
चाँद की चँद्रिका से मैंने,शीतलता को पाया था।
फूलों की महक से मैंने,घर सुगन्धित पाया था।
वायु के झोंकों ने मुझको,लोरी गाकर सुलाया था ।
(आज जमाना बदल गया)
आज यह सब स्वप्न हमारे,पक्का घर बन्द है द्वारे।
सहोदर भाई से प्रेम नहीं,रहते हैं सब न्यारे न्यारे ।
नाता जुड़ गया मोबाइल से,उत्तर देता सब गूगल है।
व्हाट्सएप,फेसबुक,इन्स्टाग्राम देख, पहुँच गए सब पूगल है।
गैस का बना खाना खाकर,गुब्बारे सा पेट फुलाए हैं।
सूर्य, शशि,वायु,और वर्षा,घर में नहीं घुस पाए हैं।
नकली ताप,नकली ठण्डक इन सब से बन गया नाता है।
प्रकृति की ऐसी तैसी,पत्थरों से जुड़ गया नाता है।

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