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मन की इच्छाओं का घोड़ा,बहुत तेज दौड़ता है।
सन्तोष धन की चाबुक से,मन वशीभूत हो सकता है।
स्वर्ण,रजत,हीरे-पन्ने की,आकांक्षा मन करता है।
लालच पलड़ा हल्का लगता,चाहे धन कितना बरसता है।
सन्तोष धन ही सच्चा धन है,और धन धूल समान है।
संन्तोष ना करे विद्या पाने में,यह धन श्रेष्ठ महान है।
स्वर्ग-पताल का राज्य मिले,चाहे पृथ्वी पति बन जाए,
सच्ची शान्ति तभी मन पाता,जब सन्तोष धन अपनाए।
प्रसिद्धि,पैसा,पदवी,नाम,जितना मिले कम लगता है।
आज मिला,कल ज्यादा पाऊँ,धैर्य कभी ना धरता है।
सोने की लंका रावण की,मन्दोदरी सी रानी थी।
छद्मवेष धर सीता हर लाया,लालचवश की नादानी थी।
प्रह्लाद सा पुत्र पाकर भी,हिरण कश्यप खुश ना रहता था।
प्रभु से ऊँची पदवी का दर्प, निज को नारायण समझता था।
मीरा की भक्ति की लगन,राणा जी समझ ना पाए थे।
पति का प्यार न दे पाए,विष मीरा को पिलाए थे।

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