भारत में ज्ञान का भंडार भर,अमृत्व पद पाये सप्त ऋषि।
आकाश के तारामंडल समूह में, चमकते सितारे सप्तर्षि।

वशिष्ठ,विश्वामित्र, कण्व, अत्रि,
गौतम, जमदग्नि, भारद्वाज।
राजपुत्रों की शिक्षा दीक्षा का, गुरु ऋषि संभालते काज।

ब्रह्मा जी के मस्तिष्क से, सप्त ऋषियों की हुई उत्पत्ति।
धार्मिक ग्रंथ पद्म पुराण, विष्णु पुराण में व्याख्या मिलती।

सप्त ऋषियों को शिवजी ने, गुरु बनकर ज्ञान सिखाया।
सृष्टि में बना रहे संतुलन, धर्म मर्यादा का पाठ पढ़ाया।

वेद, पुराण और महाभारत में, सप्त ऋषियों की नामावली।
अगस्त्य, वक्र, कात्यायन, कश्यप, कपिल, याज्ञवल्क्य वंशावली।

वशिष्ठ
सप्त ऋषियों में ऋषि वशिष्ठ,
वैदिक काल में विख्यात।
ईश्वर संग वेदों का दर्शन और ज्ञान हुआ था प्राप्त।

ब्रह्मा के मानस पुत्र वशिष्ठ,सूर्यवंशी राजाओं के करते धार्मिक अनुष्ठान।
राजा दशरथ के पुत्र प्राप्ति हेतु, यज्ञ कर विष्णु का किये आह्वान।

खीर कलश यज्ञ से निकला, कौशल्या-कैकयी को दिए आधा-आधा दशरथ।
आधे मे आधा सुमित्रा पाई, पुत्र हुए राम लक्ष्मण शत्रुघ्न भरत।

राजा दशरथ के कुल गुरु वशिष्ठ, चारों पुत्रों को दी शिक्षा दीक्षा।
विश्वामित्र साथ भेजे राम लक्ष्मण, असुरों से करने यज्ञ रक्षा।

त्रिकालदर्शी वशिष्ठ ऋषि, दक्ष पुत्री अरुन्धती से किया विवाह।
नंदिनी धेनु देख आश्रम वशिष्ठ के, राजा विश्व मित्र को हो गई डाह।

चमत्कारी गऊ से प्रसन्न राजा ने, वशिष्ठ ऋषि से मांगी पयस्विनी।
किसी कीमत में न दे सकता, जीवन मेरा है नंदिनी।

बलात् विश्वमित्र सैनिकों को, डंडे मारते देख वशिष्ठ हुए क्रुध्द।
अतिथि थे राजा गुरुवर के, शाप नहीं दिया, किया स॔ग युद्ध।

सौ पुत्र विश्वामित्र ने मारे, वशिष्ठ ऋषि कर दिए क्षमा।
दशरथ राजगुरु, राम गुरू, वशिष्ठ मानस पुत्र ब्रह्मा।

त्रेता युग के अंत समय, वशिष्ठ चले गए ब्रह्मलोक।
आकाश के सप्त ऋषि समूह में, दिव्य तेज, अलौकिक आलोक।

विश्वामित्र
महाप्रीतापी, तेजस्वी, राजर्षि,वैदिक काल में विख्यात।
ऋग्वेद में गायत्री मंत्र रचना का, विश्वामित्र को हुआ दृष्टांत।

राजा गाधि ने पुत्र विश्वामित्र का, राजतिलक कर किया अभिषेक।
राजकाज की मजबूत डोर से, प्रजा खुश हर्षतिरेक।

चौसर में विजयी पत्नी की हंसी से, विश्वामित्र हुए क्रोधित।
राज्य विस्तार कर नाम कमाने हेतु, प्रजा को किया बोधित।

आत्म समर्पित राजागण, हो गए विश्वामित्र आधीन।
युद्ध कर, कर दिया नतमस्तक, जो न छोड़ें अपनी जमीन।

विजयी हो राज्य लौटे, शिविर लगाए वशिष्ठ मुनि आश्रम पास।
विश्वामित्र की किये आवभगत, नंदिनी गाय थी बड़ी खास।

नंदिनी कामधेनु की चाह, जग गई राजा विश्वामित्र मन।
वशिष्ठ जी ने इनकार किया, धेनु थी संतों का जीवन।

आक्रमण कर दिए विश्वामित्र, वशिष्ठ लड़ने में लाचार।
नंदिनी ने मांगी आज्ञा, योग बल से सैनिक किये तैयार।

विश्वामित्र की हार से, पुत्रों ने वशिष्ठ को करना चाहा खत्म।
कुपित-क्रोधित वशिष्ठ मुनि, राजपुत्रों को कर दिया भस्म।

पुत्र जीवित बचा एक, अभिषेक कर बिठाये राज सिंहासन।
कठोर तपस्या किये शिवजी की, भोलेनाथ हो गए प्रसन्न।

धनुर्विद्या का ज्ञान प्राप्त कर, वशिष्ठ पास पहुंचे विश्वामित्र।
घमासान युद्ध हुआ दोनों का, वशिष्ठ जी ने छोड़े ब्रह्मांड अस्त्र।

ब्रह्मांड अस्त्र की ज्वाला से, सारा संसार हुआ पीङित।
ऋषि मुनि मिल किये प्रार्थना, वशिष्ठ ऋषि हुए द्रवित।

विश्वामित्र ने की तपस्या, अप्सरा मेनका ने तप किया भ॔ग।
विजय हुई कामदेव की, पुत्री शकुन्तला का हुआ जन्म।

अपनी तपस्या के बल पर, त्रिशँकू को भेजा सदेह स्वर्ग।
इंद्र कारण अधर में लटका, विश्वामित्र ने रचा नव स्वर्ग।

राजा दशरथ पुत्र राम लक्ष्मण को, विश्वामित्र लेने आए।
गुरु वशिष्ठ की आज्ञा से, दशरथ ने पुत्रों को भिजवाए।

रक्षा की राक्षसों से संतों की, ऋषि संग गये जनक के द्वार।
स्वयंवर में जीते जानकी, सब ओर हो रही जय जयकार।

अन्न त्याग कंद मूल फल खाकर, विश्वामित्र किये जीवन यापन।
राजर्षि का पद पाए, तपस्या से ब्रह्मा हुए प्रसन्न।

राजर्षि पद से विश्वामित्र को, मन में हुआ अति विषाद।
क्षमा मूर्ति वशिष्ठ ऋषि संग, विश्वामित्र का हुआ विवाद।

काम-क्रोध, लोभ-मोह जीवन में साधना के बाधक।
सर्वस्व त्याग ब्रह्मर्षि पद पाए, योग साधना के बन साधक।

क्षत्रियत्व से ब्रह्मत्व पद पाए, विश्वामित्र सम ना कोई दूजा।
मंत्र दृष्टा ऋषि विश्वामित्र, सप्तर्षि तारों में हुई पूजा।

कण्व ऋषि
सप्तर्षि तारामंडल में शामिल ब्रह्मचारी, तपस्वी कण्व ऋषि।
सोमयज्ञ के व्यवस्थापक, त्रेता युग के प्राचीन महर्षि।

कँडा कोट ऋषि की तपोस्थली, कैमूर पर्वत शीर्ष पर स्थित।
बहुआर गाँव की पहाड़ी पर, कण्व ऋषि की प्रतिमा स्थापित।

पहाड़ी पर दो गुफाओं भीतर, हजारों वर्ष पुराने भित्तिचित्र।
प्राचीन सभ्यता संस्कृति का, उजागर करते चरित्र।

सोनभद्र की बंजर भूमि को, उर्वर बनाये कर साधना।
ऋग्वेद के आठवें मंडल में, मंत्रो की, किए रचना।

हेमकूट मणीकूट पर्वत गोद में, मालिनी नदी तट पर स्थित।
ऐतिहासिक पुरातात्विक पर्यटक स्थल, "कण्वाश्रम" है स्थापित।

चक्रवर्ती सम्राट भरत की, है यह पावन जन्मस्थली।
कालिदास के "अभिज्ञान शाकुंतलम्" रचना की, साक्षी है यह स्थली।

कण्व ने की एक स्मृति की रचना, "कण्व स्मृति" है नाम।
अंगीरसों में एक अंगिरस, कर्णेश ऋषि का है उपनाम।

ऋषि विश्वामित्र मेनका स॔योग से, शकुन्तला का हुआ जन्म।
लालन-पालन किये महर्षि, दूध मुँही कन्या लाये आश्रम।

ब्रह्मचारी पोषक पिता, पुत्री वत्सलता वश सोम तीर्थ जाते।
सूर्यवंशी राजा दुष्यंत कुटिया मे, शकुंतला संग गंधर्व विवाह रचाते।

पुत्री के प्रतिकूल देव शांत कर, आश्रम आए जब ऋषि।
पुत्री की मनो स्थिति, भाँप गए त्रिकालदर्शी।

शकुन्तला कोख से सूर्यवंशी, राजा भरत का हुआ जन्म।
"भारत वर्ष" नाम देने वाले राजा का, पालन किये ऋषि कण्व।

तपस्वियों के गुरु, सिद्धाश्रम के कुलपति कण्व ऋषि।
दस हजार ऋषि-मुनियों का, अध्यापन व पोषण करते महर्षि।

आज भी कँडाकोट पहाड़ी पर, गूंजते हैं कण्व ऋषि के मंत्र।
वैदिक काल का इतिहास, व्यापक हुआ यहाँ सर्वत्र।

ऋषि भारद्वाज
महाभारत में भारद्वाज ऋषि की, सप्त ऋषियों में की गई गणना।
परमार्थ मार्ग के पथिक तपस्वी, जितेंद्रिय, दयालु नि:स्वार्थी अन्ना।

ब्राह्मण ग्रँथ- पुराणों में, भारद्वाज ऋषि की महिमा प्रतिपादित।
सतयुग, त्रेता, द्वापर युग में, तीन पीढियों के पुरोहित।

वैदिक ऋषियों में महर्षि का, है सर्वोच्चतम स्थान।
इंद्र ने पढ़ाया मुनिवर को, आयुर्वेद और व्याकरण का ज्ञान।

"भारद्वाज स्मृति", "भारद्वाज संहिता" के, ऋषि भारद्वाज रचनाकार।
"यंत्र-सर्वस्व" वृहद ग्रंथ में लिखा, विमान ज्ञान बना सृष्टि आधार।

ऋग्वेद के छठे मण्डल के, ऋषि रूप में है विख्यात।
उत्तर दिशा के प्रमुख ऋषि, अस्त्र विज्ञानवेत्ता नाम से प्रख्यात।

रामायण काल और महाभारत में, छाया है महर्षि का प्रभाव।
प्रयागराज के प्रथम निवासी, बसाया "तीर्थों का राजा" प्रयाग।

धरती पर प्रथम बड़े गुरुकुल की, प्रयाग में की गई स्थापना।
भगवान शिव जी की कृपा से, भगवान माधव की, की गई परिक्रमा।

प्रयागराज में भारद्वाज ऋषि ने, परिक्रमा का किया विधान।
बिना परिक्रमा फल ना मिलता, चाहे करो कोई अनुष्ठान।

भगवान राम भी गुरु भारद्वाज को, झुककर शीश नवाते।
दीर्घायु,त्रिकालदर्शी की अनुमति से, चित्रकूट में आश्रम बनाते।

भरत मिलने गए राम से, प्रथम भारद्वाज से किये भेंट।
रावण मार राम जब आए, सीता संग कुटी में किया प्रवेश।

संगम नगरी में गंगा किनारे, मशहूर है भारद्वाज मुनि का आश्रम।
ऋषि समाज के पद प्रदर्शक, चौराहा पर बनी मूर्ति अनुपम।

अत्रि ऋषि
सत, रज और तम गुण से दूर, अत्री नाम जाना जाता।
ऋग्वेद का पँचम मण्डल, "अत्री मण्डल" कहलाता।

ब्राह्मणों में श्रेष्ठतम मुनि का, मुख्य काम था तप और शिक्षण।
धरती की उर्वरता का विकास कर, खगोल शास्त्र में बताएं, कैसे होता ग्रहण।

इंद्र, वरुण, अग्नि देवों हेतु, ऋचाओं की किए अत्री रचना।
त्रिकालदर्शी शक्ति से, धार्मिक ग्रंथो की किए संरचना।

सनातन संस्कृति परम्परा में, अत्रि ऋषि लिखे हैं भजन।
"अत्री संहिता" "अत्रि स्मृति" वास्तु शास्त्र पर लिखे हैं ग्रंथ।

आयुर्वेद में योगों का, अत्रि ऋषि ने किया निर्माण।
परोपकारी दयालु ऋषि को, वेद शास्त्रों का गहन था ज्ञान।

मीठा सागर सोंख लिये ऋषि, अंजलि में जल भरकर।
कर कृपा पशु, पक्षी, जंतु पर, मूत्र मार्ग से मुक्त किया खारा सागर।

मन्त्र शक्ति के ज्ञाता ऋषि, करते उचित धर्म आचरण।
बौद्धिक मानसिक ज्ञान चर्चा में, अत्रि ऋषि का करते स्मरण।

अश्विनी कुमारो ने ऋषि को, दिया यौवन प्राप्ति का वरदान।
नव यौवन प्राप्त हो कैसे? दिया इस विधि का ज्ञान।

पतिव्रत धर्म की आदि ज्ञाता, ऋषि अत्रि की पत्नी अनसूया।
वनवास यात्रा में माँ सीता को, पत्नी धर्म का ज्ञान दिया।

तपोबल से तीनो देवों को, अबोध बाल रूप में किया परिवर्तित ।
ध्यान और धर्म की देवी सती, सोलह सती में एक, पुराणों में वर्णित।

ब्रह्मा,विष्णु,महेश त्रिदेवों ने, माता से प्राप्त किया वरदान।
पुत्र रूप धर गर्भ में आए, अत्री अनसूया की बन सन्तान।

विष्णु के अवतार दत्तात्रेय, शिवजी ने दुर्वासा रूप धारा।
ब्रह्मा आए चँद्र देव बन, रूप एक से एक न्यारा।

गौतम ऋषि
न्याय दर्शन के प्रणेता, वैदिक काल के महर्षि।
सप्त ऋषियों में एक, मन्त्र दृष्टा गौतम ऋषि।

ब्रह्मा जी की मानस कन्या अहिल्या, ब्याह हुआ ऋषि गौतम स॔ग।
हनुमान जी की माता अंजनी का, पुत्री रूप में हुआ जन्म।

गौ हत्या पाप लगाया ऋषियों ने, ईर्ष्य वश किया छल।
नासिक का त्रंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग, ऋषि की तपस्या का फल।

शिव संग गंगा धरा पर लाये, गोदावरी रूप में हुई प्रगट।
गौतमी, गोमती, गोदावरी, हरती भक्तों के पाप-संकट।

ऋषि पत्नी अहिल्या, अनुपम सुंदरता की खान।
इंद्र हो गए थे मोहित, सुन रूप का बखान।

कामदेव के हो वश इन्द्र,ऋषि रूप धर कुटिया में किया प्रवेश।
अहिल्या समझ नही पाई, छद्मरूप में इंद्र का भेष।

नित्य नियम स्नान करने, गौतम गए गोदावरी तट।
सम्बंध बनाया गौतम नारी से, निकला कुटिया से झटपट।

त्रिकालदर्शी गौतम ने, दिया
अहिल्या व इंद्र को श्राप।
योनियाँ उभरी इन्द्र अंग, पाषाण अहिल्या,जघन्य था पाप।

क्षमा याचना से हो द्रवित, इंद्र की योनियाँ बनाई आँख।
नारायण त्रेता में राम बनेंगे, छूने से मिटेगा अहिल्या का शाप।

बाण विद्या में निपुण, गौतम ऋषि चलाते जब बाण।
प्रदर्शन देखती अहिल्या, बाण उठा देते चुभते त्राण।

ज्येष्ठ की धूप में ऋषि नारी के, चरण हो गए थे तप्त।
ब्राह्मण वेश धर सूर्य देव ने, दिए पादत्राण और छत्र।

उष्णता निवारक छाता-जूता का, तब से हुआ है प्रचलन।
धनुर्वेद पर ग्रंथ की रचना,लिखे हैं ऋषि गौतम।

जमदग्नि ऋषि
प्राचीन गोत्र कार,आयुर्वेदिक ऋषि, सप्त ऋषियों में जिनकी गणना।
ऋग्वेद में मंत्रो की, जमदग्नि ऋषि किये रचना।

आयुर्वेद,चिकित्सा शास्त्र में, जन्मदग्नि थे विद्वान।
गोवंश के पालन पोषण का, सोलह मन्त्रों में दिए हैं ज्ञान।

जमदग्नि के जन्म की, कथा है बड़ी विचित्र।
पिता ऋचिक ने दो चरु बनाये, विचार उनके बङे पवित्र।

पहला चरू पत्नी सत्यवती का, दूजा सत्यवती की माँ को खाना।
अदला-बदली हो गई चरू की, माँ ने की हरकत बचकाना।

ब्रह्मनिष्ठ जमदग्नि ऋषि ऋचीक पुत्र, सासु के विश्वामित्र क्षत्री बलशाली।
प्रसेनजीत पुत्री रेणुका से, जमदग्नि के पाँच पुत्र हुए शक्तिशाली।

पतिव्रता आज्ञाकारी पत्नी से, जमदग्नि हो गए रुष्ट।
पानी भरने गई नदी पर, क्रीड़ा करते देखा गन्धर्व।

चित्ररथ गन्धर्व को देख, रेणुका हो गई आसक्त।
मर्यादा विरोध कार्य जान, पत्नी को किए परित्यक्त।

पाँचों पुत्रों को बोले ऋषि, माँ का कर दो वध।
चार पुत्रों ने मानी ना आज्ञा, बात थी नीति विरुद्ध।

पँचम पुत्र विष्णु अवतारी, परशुराम ने काटा शीश।
प्रसन्न पिता से माँगा वर, जीवित हो माँ! दो आशीष।

हैहयवंश का राजा कार्तिकेय अर्जुन, था बड़ा अत्याचारी।
गौरस भँडार वैभव ऋषि का देख, कामधेनु छीनना चाहा श्वेच्छाचारी।

ऋषि ने जब मना किया, सहस्रार्जुन ने किया ऋषि का वध।
कुपित परशुराम उठा फरसा, राजा को दिया मृत्युदण्ड।

कामधेनु ले आए आश्रम, क्षत्रिय विहीन पृथ्वी का लिया प्रण।
इक्कीस बार संहार किये क्षत्रियों का, ऐसे कर्मनिष्ठ ब्राह्मण।

हरियाणा के जाजनापुरा गाँव में, जमदग्नि ऋषि का है आश्रम।
शुक्ल दशमी को लगता मेला, दर्शन करने आते भक्तजन।

वैदिक धर्म के संरक्षक, योग में सर्वोपरि सप्तर्षि।
ज्ञान विज्ञान धर्म ज्योतिष का, बोध कराये सप्तर्षि।

पृथ्वी के उत्तरी गोलार्द्ध में, तारामंडल रूप में सप्तर्षि।
चार चौकोर,तीन तिरछे तारे, प्रश्न चिन्ह रूप में सप्तर्षि।

फाल्गुन-चैत्र,सावन-भादो में, दर्शन देते सप्तर्षि ।
पाप कर्म नष्ट हो जाते, नाम जपते जब सप्तर्षि।

ब्रह्मा जी के मानस पुत्र सात, कहलाते हैं सप्त ऋर्षि।
आकाश के तारामंडल में बिठा, कृतज्ञ हुए भारतवासी।

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