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सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी, धर्म परायण, दानवीर कर्ण
महाभारत के महानायक कर्ण, सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी।
सामाजिक लज्जा के कारण, छोड़ी कर्ण को महतारी।
दानवीर की गाथाओं में, प्रथम कर्ण का नाम आता।
गंगा स्नान कर आते कर्ण, याचक मांगा स्वर्ण पा जाता।
यदुवंशी सूर्य सेन के राजमहल में, दुर्वासा ऋषि ने निवास किया।
कुंती की सेवा सुश्रुषा से खुश हो, ऋषीवर ने वरदान दिया।
दिव्य दृष्टि से ऋषिश्रेष्ठ ने, भारत भविष्य भाँप लिया।
शापित पाण्डव के सन्तान न होगी, देव आह्वान का कुन्ती को मंत्र दिया।
जिस देव का जाप करेगी, वहीं समक्ष प्रकट होगा।
आह्वान कर बुलाया देवता, खाली हाथ ना लौटेगा।
उत्सुकतावश वरदान जाँचने, कुंती ने सूर्य देव का आह्वान किया।
तत्काल प्रकट हुए प्रभाकर, कुंती ने गर्भाधान किया।
कवच-कुण्डल धारी पुत्र रत्न को, कुन्ती माँ ने जन्म दिया।
लोक लाजवश कुँवारी कन्या ने, गंगा में पुत्र बहा दिया।
गंगा की बहती धारा, कर्ण को ले चली उस पार।
माँ कुन्ती को धैर्य नहीं, आँखों से बह रही अश्रु धार।
सूत पुत्र अधीरथ कर्ण को, ले आया खुशी-खुशी निजधाम।
सन्तान पा खुश हुए दम्पति, वासुसेन रख दिया नाम।
धृतराष्ट्र का सारथी अधिरथ, पत्नी का था राधा नाम।
कौन्तेय कहलाए राधेय, दानवीर कर्ण बना उपनाम।
रथ चलाना नहीं चाहता कर्ण, युद्ध कला में होना था निपुण।
द्रोणाचार्य के शिष्य बने, धनुष चलाना सीखे पुत्र अरुण।
कौरव-पाण्डव संग कर्ण ने, द्रोणाचार्य आश्रम शिक्षा पाई।
प्रतिद्वंदी मानते अर्जुन को, अर्जुन से कर्ण की रुसवाई।
अर्जुन से श्रेष्ठ बनने का, अनुचित निर्णय लिया है कर्ण।
ब्रह्मास्त्र शिक्षा की मांग से, नाराज हो गए गुरु द्रोण।
द्रोणाचार्य से रुष्ट होकर, गुरु परशुराम के शिष्य बने हैं कर्ण।
गुरुवर आग्रह मान कर्ण का, धनुर्विद्या, युद्ध कला में किए निपुण।
कौरव-पांडव बालको संग, कर्ण ने शिक्षा पाई।
अर्जुन कर्ण परस्पर विरोधी, समझ सके ना गुरु भाई।
कौरव-पांडव शिक्षा पूर्ण कर, हस्तिनापुर में आ गए।
रंगभूमि प्रतियोगिता में अर्जुन, श्रेष्ठ धनुर्धारी पद पा गए।
राधेय आया रंगभूमि में, सूत पुत्र कह गुरु ने किया निष्कासित।
अर्जुन जीत गया खिताब, बिन द्वन्द्व युद्ध कर्ण हुआ पराजित।
दुर्योधन ने कर्ण को, अंग देश का राजा किया घोषित।
सुदृढ़ संबंध बने दोनों बीच, मित्रता हुई स्थापित।
माना शकुनी मामा की कटु चाल, कर्ण को नही सुहाती थी।
दुर्योधन की दोस्ती आगे, नतमस्तक हो जाती थी।
लाक्षागृह,द्रौपदी चीर हरण, द्युतक्रीडा में, रहा कर्ण दुर्योधन साथ।
मन से कर्ण यह नहीं चाहता, तन से निभाया मित्र का साथ।
शक्तिशालियों में सूर्यपुत्र कर्ण, पाँचो पाण्डवों से कम नहीं था।
दानवीर,श्रेष्ठ धनुर्धर वासुसेन सम, दूजा कोई पाँडव नहीं था।
द्रौपदी स्वयंवर रचा द्रुपद ने, कर्ण ने मत्स्यवेधन किया।
सूत पुत्र कह वैकर्तन को, द्रौपदी ने अस्वीकार किया।
श्रेष्ठ धनुर्धर अर्जुन ने, मत्स्यभेदन कर स्वयंवर जीत लिया।
द्रौपदी ने पहनाई वरमाला, कुंती माँ की आज्ञा,पाँचो पांडवों का वरण किया।
वेदव्यास द्वारा रचित महाभारत, कर्ण अर्जुन पर आधारित।
धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन का, कर्ण बन गया सच्चा मीत।
पांडवों को नहीं पता, कर्ण उनका अग्रज भ्रात।
कुन्ती मन में दर्द छुपा था, मजबूर लाचार थी मात।
महाभारत युद्ध से पहले कृष्ण, गए शांति दूत बनकर।
पाँच गांव पाण्डवों को दे दो, रक्त बहेगा न भूमि पर।
दुर्योधन बोला बड़े गर्व से, सूई की नोक जितनी भूमि ना देंगे।
महाभारत युद्ध होगा, जीतेंगे या हारेंगे।
कृष्ण को बन्दी बनाने, चला मूर्ख दुर्योधन।
दूत को बंदी नहीं बनाते, समझाया मूर्ख को है कर्ण।
कर्ण कृष्ण से मिलने, चले आए विदुर के घर।
प्रभु मेरे घर पधारो, विराजो मेरे रथ पर।
सारथि बन कृष्ण को, ले आया कर्ण निज द्वार।
दूत कहीं नहीं रुकते, कहे कृष्ण मैं हूँ लाचार।
कृष्ण उतर गये रथ से, निज रथ पर हुए आरूढ।
माफी मांगा दुर्योधन करणी की, मित्र मेरा बड़ा है मूढ।
प्रथम बार कर्ण को रथ पर बिठा, कृष्ण कहने लगे हे भ्रात!
भुवा कुंती के प्रथम पुत्र हो, पाण्डव के तुम हो तात!
दुर्योधन का संग छोड़ दो, पाँडव भाई तुम्हारे है कर्ण।
बोला कर्ण, "बहुत देर हो गई", मित्रता निभाना मेरा धर्म।
राज पाट का मुझे मोह नहीं, आक्रांत हूँ सुन जीवन वृतांत।
राधेय सूत पुत्र ही रहेगा, कौन्तेय न होगा हे राधाकान्त!
महाभारत की युद्ध घोषणा सुन, कुंती हो गई व्यथित।
भाई-भाई युद्ध करेंगे, माता मन में थी चिंतित।
सामाजिक रीति से बंधी कुंती ने, आज
कर्ण जन्म का वृत्तांत बोला।
महाभारत युद्ध के पहले, मन में छिपा बंधन खोला।
प्रथम पुत्र तुम हो मेरे, मैं सच बतलाने आई हूँ।
जो कर न सकी अब तक, पुत्र को गले लगाने आई हूँ।
सूर्य द्वारा प्रदत्त पुत्र तुम मेरे, कवच-कुण्डल धारी कर्ण।
सामाजिक डर से प्रवाहित किया, हर पल दुखता मेरा मन।
पाँचो पाँडव अनुज तुम्हारे,हे कर्ण! अग्रज हो तुम।
क्षमादान दे दो समझ लाचारी, राधेय नहीं कौन्तेय हो तुम।
नहीं चाहती कोई पुत्र मेरा, युद्ध भूमि में पाए वीरगति।
राज सिंहासन तुम्हारा होगा, हस्तिनापुर के तुम अधिपति।
तुम्हारी कोख से ले जन्म भी, मैं जीवन भर कहलाया सूत पुत्र।
अधिरथ पिता, राधा माता, मैं रहूँगा उनका ही पुत्र।
दुर्योधन ने साथ दिया मेरा, जब जरूरत थी नितान्त।
छोड़ मित्र को कृतघ्न ना बनू, चाहे हो जाए मेरा देहान्त।
वचन एक देता हूँ माता, पुत्र रहेंगे आपके पाँच।
अर्जुन को मारूँगा या मरूँगा, दूसरों को आएगी ना आँच।
अर्जुन संग कृष्ण है माता, जीत है अर्जुन के साथ।
चाहे हार दुर्योधन की सामने, मैं छोडूँगा ना मित्र का हाथ।
अधर्म पर न चला कर्ण, अधर्मी का साथ निभाया।
मित्रता के आगे कर्ण ने, अपना जीवन न्यौछावर किया।
अर्जुन का वध करने कर्ण ने, इन्द्र से प्राप्त की दिव्य शक्ति।
कृष्ण ने बचाने अर्जुन को, समाप्त कराई अमोघ शक्ति।
भीम पुत्र महाबली घटोत्कच, कर्ण संग में युद्ध हुआ।
इंद्र द्वारा प्रदत्त अमोघास्त्र से, घटोत्कच का वध हुआ।
श्री कृष्ण की थी यह मर्जी, दिव्यास्त्र से अर्जुन बच जाए।
राक्षसी प्रवृत्ति घटोत्कच की, वीरगति प्रभु दिलवाए।
सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु को, चक्रव्यूह में फँसा कर वध किया।
सात योद्धाओं से लड़ा अकेला, वीरगति को प्राप्त हुआ।
कर्ण मन में द्रवित दु:खी, मरते अभिमन्यु को गले लगा बोला।
"कर्ण अर्जुन नाम के धनुर्धारी, तुम हो वीर साहसी"बोला।
अंग देश के राजा कर्ण, वैशाली, पद्मावती के पति।
भीष्म के अनन्तर राधेय, कौरवों के बने सेनापति।
भीष्म पितामह नहीं चाहते, अधर्मियों का कर्ण दे साथ।
सूर्यपुत्र कौन्तेय है कर्ण, पितामह को था यह ज्ञात।
पुत्र अर्जुन की हो विजय, याचक बन इंद्र उपस्थित हुए।
पल में कवच-कुण्डल दान कर कर्ण, दानवीर लहूलुहान हुए।
कृष्ण आज्ञा से अर्जुन ने, रथविहीन कर्ण को वेध दिया।
हे कृष्णा! गलती क्या मेरी? कर्ण ने प्रभु से प्रश्न किया?
अभिमन्यु शूरवीर अकेला, तुम सब सातों महारथी।
रक्षा क्यों न करी वीर की? कहाँ चली तुम्हारी मति?
कर्ण को घायल कर अर्जुन, हो रहा मन में अति गर्वित।
कवच-कुण्डल दान न करता कर्ण, होता ना अर्जुन विजित।
गर्व तोड़ने प्रथा पुत्र का, प्रभु आए धर ब्राह्मण भेष।
भिक्षा मांगी कर्ण से, प्रण तुम्हारा रह जाए न शेष।
पत्थर ले घायल कर्ण ने, तोड़े सोने के दो दाँत।
स्वर्ण दान करता आया हूँ, नहीं टलेगी मेरी बात।
झूठे दाँत ब्राह्मण को देकर, ना करो अपराध कर्ण।
गंगा स्मरण कर बाण गंगा से, धोया कर्ण ने स्वर्ण।
कर्ण की दान वीरता देख, देवों ने पुष्प बरसाए।
ब्राह्मण वेश छोड़ कृष्णा ने, चतुर्भुज रूप कर्ण को दिखलाए।
विस्मित कर्ण स्तुति करें कृष्ण की, धन्य हो गया कर दर्शन।
कहे कृष्ण इस धरा पर, नाम रहेगा तुम्हारा "दानवीर कर्ण "।
तुम्हारी धर्म परायणता का, त्रिलोकी करेगी गुणगान।
"बाणगंगा" बहती रहेगी, जब तक रहेंगे सूर्य और चाँद।
कर्ण की अंतिम इच्छा, कृष्ण करेंगे मेरा शव दाह।
बाई हथेली पर चिता जला कृष्ण ने, कर्ण अस्थयों को किया संगम में प्रवाह।
विविध शाप मिले कर्ण को, जीवन शापित बन गया।
धर्म पिता पाँडव, माँ कुंती, सूत पुत्र कर्ण बन गया।
एक दिवस गुरु परशुराम, कर्ण जंघा पर किए विश्राम।
दूसरी जाँघ काटा वृश्चिक, डंक सह, गुरु को दिया आराम।
तन्द्रा टूटी जब गुरुजी की, रक्त देख अचम्भित हुए।
कर्ण के लक्षण क्षत्रिय जैसे, बिन सोचे गुरु शाप दिए।
सर्वाधिक अवसर पर तुम, शिक्षा को बिसराओगे।
जैसी करनी वैसी भरनी, फल वैसा ही पाओगे।
परशुराम क्षत्रिय वर्ण को, धनुर्विद्या ना सिखाते थे।
ब्राह्मण वर्ण शिष्य ही, युद्ध कला में निपुणता पाते थे।
कर्ण को निज वर्ण का, पूर्ण रूप से नहीं था ज्ञान।
"विजय" नामक धनुष दे गुरु ने, कर्ण का किया सम्मान।
गुरुद्वारा प्राप्त विजय अस्त्र, कर्ण के पास था विशेष।
अर्जुन का वध करने रखा संभाल, सभी बाण बच गए शेष।
घायल रक्त रंजित कर्ण को, शिवजी देने आए दर्शन।
विजय धनुष सौंपा कर्णने, महादेव का था वह धन।
वनीय पशु समझ बछड़े पर, शब्द भेदी बाण चलाया कर्ण ने।
असहाय जीव हत्या हेतु, शाप दिया कर्ण को ब्राह्मण ने।
अस्त्र विहीन, रथ विहीन धरा पर, असहाय मारा जाएगा।
धनुर्विद्या, युद्ध कला, तेरे काम कुछ ना आएगा।
निष्पाप कर्ण को माँ धरा ने, शाप दे शापित किया।
मृतिका सहित घृत उठाया कर्ण ने, एक कन्या का सहयोग किया।
मुट्ठी से घी निचोड़ मिट्टी से, घट में कर्ण भरने लगा।
पीड़ित धरा बोली, "पकड़ निचोडूँगी तुझे, "निर्णायक युद्ध जब होगा।
कुरुक्षेत्र के निर्णायक युद्ध वेला में, कर्ण हुआ बहुत विदीर्ण।
निज विद्या सब भूल गया, शाप हुए ऐसे संपूर्ण।
आज भी कर्ण को याद करके, मन में हूँक उठती है।
कुंती करती नहीं वह गलती, जो कर्ण ने भुगति है।
पूर्वजन्म में दुरदम्भा नामक राक्षस, सूर्य उपासक था कर्ण।
नर नारायण रूप में कर तपस्या, धरा पर आए कृष्ण अर्जुन।
हजार रक्षा कवच प्राप्त कर, दुर्दंंभ बन गया ताकतवर।
हजार वर्ष तपस्या कर ही, तोड़ सकता एक कवच ऐसा था वर।
कवच तोड़ता वह मर जाता, कभी नारायण और कभी नर।
हजार वर्ष तपस्या करता, कभी नारायण और कभी नर।
नौ सौ निन्यानवें कवच तोड़ चुके, नारायण और मिलकर नर।
अंतिम कवच तोड़ने आए, नर नारायण अर्जुन कृष्ण रूप धर।
प्रतिकूल परिस्थितियों से लड़ा सूरमा, मित्र धर्म में था पारित।
प्रथम पाँडव था कर्ण, दुर्भाग्य से हुआ निष्कासित।
कर्ण जीवन की कथा, हर मन को देती है व्यथा।
हस्तिनापुर सिंहासन का अधिकारी, भुगता सामाजिक प्रथा।