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हे यशोधरे! मेरे मन की दुविधा
कैसे बयान करूं तुमसे
मैं तेरी नजर का अपराधी हूं
पर जीवन लक्ष्य का प्यासी हूं

कल रात जब तुम चैन से सोई थी
बेचैन,व्यथित मेरा हृदय था
कैसे बिछडूंगा तुमसे ,लल्ला से
मन में मेरे बड़ा भय था

रात्रि जैसे अंधकार करती
भोर ने कर दिया उजाला
मेरे मन ने एक अटल निश्चय को
जीवन में उतार डाला

मैं निकल पड़ा महल से
विचलित मन लिए रजनी
खोज मेरी जीत गई
प्यार हार गया सजनी!

बता देता अगर मैं तुमको
मेरे मन की व्यथा
हो सकता है ,हे यशोधरे तुम!
सुन लेती मेरी कथा

तुम यश की धारा हो
धारा मार्ग रोकती नहीं
पर मेरा मन सोच रहा
प्यार बन जाए बाधा न कहीं

जब मंगल बेला आएगी
सब मंगल आरती गाएंगे
तुम्हारे जीवन में नव मंगल
शुद्धोधन वत्स ही ला पाएंगे

तुम देवी हो!
महान हो!
मैं बना सिद्धार्थ अगर तो
तुम भी यशोधरा कहीं कम न हो!

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