मैं गर्भगृह में पलूँ बढूँ,संसार में आना ना चाहूँ।
बाहर आकर निर्भया,उषा,रेणू,रचना न बनना चाहूँ।
मैं आदि शक्ति धर रूप काली का,रक्तबीज भस्म करना चाहूँ।
मैं मातृशक्ति,पुरुष प्रधान देश में,निज को सुरक्षित रखना चाहूँ।
बाहर से उज्जवल दिखने वाली,कलुषितता को मिटाना चाहूँ।
मैं प्रेम-सलिल से द्वेष का सारा,मैल साफ करना चाहूँ।
दहेज की खातिर बहू जलाए,उनका मुँह काला करना चाहूँ।
समाज में सुरक्षित सामाजिकता का, राजपाट फैलाना चाहूँ।
माता-पिता को वृद्धाश्रम भेजें,ऐसी सन्तानों से पूछना चाहूँ।
उनको भूत,वर्तमान,भविष्य का,दर्पण मैं दिखाना चाहूँ।
"जैसा करेगा वैसा भरेगा",बात यह समझाना चाहूँ।
जीवन आगे हो सुरक्षित,पाठ ये पढ़ाना चाहूँ।
कोरोना महामारी थी लाचारी,आपसी युद्ध रोकना चाहूँ।
राग-द्वेष रूपी रावण को,जड़ से खोदना चाहूँ।
भाई-भाई मैं बैर बढ़ रहा,सच्चेमन से मिटाना चाहूँ।
मानवता जो क्षीण हो रही,सुरक्षित मैं करना चाहूँ।
अनैतिकता का बोलबाला,नैतिकता में बदलना चाहूँ।
बेतार के तारों की सुविधा से,प्रेम भाव बढ़ाना चाहूँ।
"सोने की चिड़िया"देश हमारा फिर से कहलाये,ये चाहूँ।
परिवार,समाज,राज्य,राष्ट्र को,सुरक्षित देखना चाहूँ। 

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