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‘इनका कुछ कल्याण करें हम,
इन पर कुछ अभिमान करें हम,
ये सब आगे बढ़ पाएं,
ऐसा कुछ निदान करें हम।‘

किस-किस से कहूं, किस-किस को कहूं,
ये निर्धनता की निर्ममता,
ये भूखे पेट ही सो जाते जो,
उनकी है यह व्यथा कथा ।
जो कही नहीं, वो कहता हूँ,
मैं आज तुम्हें समझाता हूँ,
ये उन लोगों की निर्बलता,
जिनके तन नंगे, मन है भूखा,
जो सुबह-शाम खटते रहते,
उनको दुनिया के रंग से क्या?
किस-किस से कहूँ, किस-किस को कहूं|
ये स्वेदबिंदु बहाते ही रहते,
सपनों को ही बुनते रहते,
उघड़े-उघड़े ही बतियाते,
पर व्यथा कभी नहीं दिखलाते,
किस-किस से कहूं, किस-किस को कहूं,
इन दीवानों को लेना क्या,
कुछ पाना ना, कुछ खोना ना,
नाजुक बचपन- कुछ बोला ना,
इनके कंधों पर बोझा है,
क्या तुमने कभी ये सोचा है?
आखिर तो ये भी इंसां हैं,
इक आँख में इनके अश्रु हैं,
इक आँख में इनके सपने हैं,
रोते- रोते ही सो जाते, अवलंब ना इनका दूजा है,
इक दिन तो ऐसा आएगा,
सब कुछ ही बदल ये जाएगा,
हम तुम तो देखेंगे ही,
सम्पूर्ण समाज दोहराएगा,
किस-किस से कहूं, किस-किस को कहूं,
खेल-खिलौने इनके छूटे,
इनको कुदाल ही पकड़ा दी,
ओ! मूढ़ इंसानों तुमने,
पतवार इन्हीं से तुड़वा दी,
ये हैं अनाथ, ये बेचारे,
दुनिया के थपेड़ों से हारे,
इनका ना कोई साथी है,
इनको ना किसी से रंजिश है,
है इनपे लगी बंदिशें हज़ार,
इनकी ना कहीं कोई मंज़िल है,
इक बात तू मेरी अज़मा ले,
ये निर्धन हैं, पर सक्षम हैं,
घोर अँधेरा छा जाए जब,
कठिन परीक्षा आ जाए तब,
कर निश्चय और बढ़ता जा तू,
कठिनाइओं से ना घबरा तू
किस-किस से कहूं, किस-किस को कहूं,
किस-किस से कहूं, किस-किस को कहूं ।

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