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‘मेरे मन की आत्मध्वनि मैं,
मेरे अपनों की मर्मस्थली मैं,
हूँ अपनी ही अनुकृति मैं ।‘

जब भी थोड़ा थक जाती हूँ, सुस्ताती हूँ, रुक जाती हूँ,
पर मेरी यह आदत है कि रुक-रुक कर भी चल देती हूँ,
कभी-कभी रिश्तों की गरमी कम-कम सी होने लगती है,
कभी-कभी गुनगुनी धूप में मद्धम-मद्धम चल देती हूँ,
अपने मन को सहलाकर, छू-छूकर और अकुलाकर,
कुछ-कुछ थोड़ा सुन लेती हूँ।
कुछ-कुछ मैं भी बदल गई हूँ, समय के संग-संग चल भी रही हूँ,
कुछ-कुछ पीछे छूट गया है, बीता वक्त भी रूठ गया है,
भीषण क्रोधाग्नि भरी हुई है,
पर अब सब कुछ बदल रहा है,
धीरे-धीरे पलट रहा है,
जख्म देने वालों से भी दोस्ती निभाना अच्छा लग रहा है,
फितरत किसी की भले ही कैसी भी हो,
हर हाल में मुस्कुराना अब अच्छा लग रहा है।
ज़िंदगी से कुछ भी शिकवा-शिकायतें अब नहीं हैं,
हर हाल में आगे बढ़ना, संघर्ष करते हुए जीना ही अब एकमात्र लक्ष्य बन गया है,
मैं जब भी थोड़ा थक जाती हूँ, रुक जाती हूँ, सुस्ताती हूँ,
कभी-कभी अपने गम देते, कभी-कभी तो रुला ही देते,
पर मैं अपने आत्मभाव को अश्रुधारा से धो लेती हूँ,
कभी-कभी जब व्यथित हूँ होती,
छिप-छिप अश्रु बहा लेती हूँ,
कभी-कभी ये मन करता है,
कभी-कभी ये मन डरता है,
क्यों ना अपना दुःख-सुख बांटे,
इक दूजे के संग मिल बांटे
कुछ भी अद्भुत हो सकता है,
जब भी थोड़ा थक जाती हूँ, सुस्ताती हूँ, रुक जाती हूँ,
निपट एकांत में बैठे-बैठे,
कभी-कभी सोचा करती हूँ,
क्या है जीवन? क्यों है जीवन?
प्रतिपल, प्रतिक्षण परिवर्तित है,
जो है आज, वो कल ना होगा,
जो था कल, वह आज नहीं है,
आने वाले कल में क्या है,
हमको ये भी पता नहीं है,
जब भी थोड़ा थक जाती हूँ, सुस्ताती हूँ, रुक जाती हूँ,
जब भी थोड़ा थक जाती हूँ, सुस्ताती हूँ, रुक जाती हूँ।

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