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सतयुग गया, त्रेता डूबी,
द्वापर की सांझ भी छूटी।

धरती पर अधर्म की छाया,
आया कलयुग, ले अंधियारा भाया।मनुज का मन लोभ में डोला,
सत्य, तप, त्याग का मोल खोला।
भाई-भाई में बैर बढ़ाया,
धर्म का मारग धूल में लाया।नदियाँ सुखीं, वन जल गए,
पशु-पक्षी भी दुख में पड़ गए।
हरियाली छिन, पत्थर बिछे,
मानव के हाथों कुदरत सिसके।काम, क्रोध, मद, माया जागी,
हर दिल में स्वार्थ की आग लागी।
न्याय बिका, सत्य हारा,
कलयुग ने सब कुछ उजारा।फिर भी आशा एक किरण बाकी,
मानव मन में सत्य की राखी।
जब जागे प्रेम, करुणा, विश्वास,
कलयुग हारे, आए सतयुग का प्रकाश।

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