गांव के घर के
अंत:पुर की बार चौखट
टिकुली सटने के लिए सहजन के पेड़ से चुराए गए एक बूंद का यह वह
वह सीमा
जिसके भीतर आने से पहले खास कराना पड़ता था बुजुर्गों को
खड़ाऊ खटवानी पढ़ती थी खबरदार की
और प्रायः तो इसके उधर ही रुकना पड़ता था
एक अदृश्य पर्दे के पार से पुकारना पडता था
किसी को बगैर नाम लिए
जिसक तर्जनी की नोक धारण किए रहती थी सारे काम
सहज
शंख के चिन्ह की तरह
गांव के घर की तरह
उस चौखट के बगल में
गैरोली पीड़ित पर दूध डूबे हुए थे
अंगूठे के उठाना दूध लाने वाले बुधे गवाल दादा के
हमारे बचपन के बाल पर दूध तिलक
महीने के अंत में गिने जाते एक-एक कर
गांव का वह घर
अपना गांव खो चुका है
पंचायती राज में जैसे खो गए पंच परमेश्वर
बिजली बत्ती आ गई कब की ,बनी रहने से अधिक गई रहने वाली
अब के बिटवा के दहेज में टीवी भी
लांटर्न है अभी दिन भर आलो में कलैंडर से ढकी
रात उजाले से अधिक अंधेरा गलती
अंधेरे में छोड़ दिए जाने के भाव से भर्ती
जब की चकाचौंध रोशनी में मदमस्त ऑर्केस्ट्रा बज रहा है कहीं बहुत दूर
पत्रिकाए की आवाज भी नहीं आती यहां तक आवाज की रोशनी रोशनी की आवाज
होरी चैती बिरहा आल्हा गूंगे
लोकगीतों की जन्मभूमि में भटकता है 1 साल गीत गाया अनसुना
आकाश और अंधेरे को काटते
10 कोस दूर शहर से आने वाला सर्कस का प्रकाश बुलावा
तो कब का मर चुका है
कि जैसे गिर गया होगा जंतु को गांव आकर
कोई हाथी रहते गए उनका तो की जरासी धवल धूल पर
भेज रहे जंगल में ले लेने वाले
मुंह खोले शहर में बुलाते हैं बस गांव के घर की रेट जुड़ जाती है।