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रंगीले राजस्थान के कई रंग हैंण् कहीं रेगिस्तानी बालू पसरी हुई है तो कही अरावली की पर्वत श्रंखलायें अपना सर ऊँचा कर के ख ड़ी हुई है ण्इस प्रदेश में शोर्य और बलिदान ही नहीं साहित्य और कला की भी अजस्र धारा बहती हैण्चित्र कलाओं ने भी मानव की चिंतन शैली को विकसित व् प्रभावित किया है ण्संस्कृति व् लोक संस्कृति के लिहाज़ से राजस्थान वैभवशाली प्रदेश हैंण्राजस्थान में साहित्य एसंस्कृति कला की त्रिवेणी बहती हैंए जीवन कठिन होने के कारण इन कलाओं ने मानव को जिन्दगी से लड़ने का होसला दिया हैण् यहीं पर महाराणा प्रताप हुएण्संत कवयित्री मीराएकलाप्रेमी कुम्भाए चतरसिंह जी बावजीएभरथरीए बिहारी और अन्य सैकड़ों नाम हैंण् पद्मश्री कोमल कोठारी ए विजय दान देथा ए देवीलाल सामर आदि ने राजस्थानी संस्कृति को सहेजने व् एकत्रित करने में बड़ा योग दान दियाण्बोरुन्दा के रूपायन संसथान ए व् उदय पुर के भारतीय लोक कला मंडल में काफी का म किया गयाण् देवेन्द्र सत्यार्थी ने जो काम उत्तर प्रदेशएबिहार व् अन्य जगहों पर किया वहीँ काम विजय दान देथा ने किया ए वाता री फुलवारी में हजारो कथाएं संकलित हैंण्

भोगोलिक कारणों से संस्कृति पर प्रभाव पड़ा हैण्प्राचीन प्रस्तर युग से चल कर सभ्यता संस्कृति आज के दौर में पहुंची हैण् आयड नदी की सभ्यता भी बहुत प्राचीन हैण्गणगौरएतीजए होली दशहराएदिवाली मेले ठेलेए कुश्ती दंगल ए शोर्य पराक्रम सब इसी धरती पर हैंण्यहाँ की रंग बिरंगी पोशाके आज भी धूम मचा रही है ण्आभू षण ए केश विन्यास एभोजन ए भजन सब अनोखा हैण्अलग अलग धर्म एजाती के लोग सभी की संस्कृति को अपनाते हैंण्

साहित्य में संसकृत ए प्राकृतएराजस्थानीए बागड़ीए मेवाड़ीएब्रज एहाडोती एढूढाडीए सभी भाषाओँ में विपुल् साहित्य हैण्

यहाँ की स्थापत्यकला एमूर्तिकला एनारी अंकनएमंदिर कलाए चित्रकला एकठपुतली कला ए मांडना कला ए लोक संस्कृति बहुत अनोखी व् समृद्ध हैण्यहाँ के किलेण् मंदिर विश्व प्रसिद्द हैंण्लोक नाट्यों की एक लम्बी परम्परा हैंण्रम्मत एख्याल एगवरीएगैर ए गरबा एलोक वाध्य ए लोक कथा एलोक गीत आदि की भी विशाल परम्परा हैण्लोक नाट्यों में ऐतिहासिकएश्रंगारिक धार्मिक नाटकों के मंचन होते थेण् ढोल मारू का नाटक बहत प्रसिद्ध थाण्राम लीलाएएकृष्ण लीला भी बहु त होती थीण्

आइये ए इस परम्परा का एक नज़ारा ले...

राजस्थान में चित्रकला

राजस्थान में चित्र कला का प्रारंभ लगभग चार शताब्दी पहले हुआ। मुगलकाल में चित्र कला उन्नत हुई, लेकिन औरंगजेब ने कलाकारों से राज्याश्रय छीन लिया और कलाकार इधर उधर भगने लगे। ऐसी स्थिति में राजपूतानों के रजवाडों और रावरों में इन कलाकारों को प्रश्रय मिला और चित्रकला राजस्थान में परवान चढ़ने लगी।

राजस्थान में चित्र कला के प्रारंम्भिक काल में जैन शैली बहुत लोकप्रिय थी। गुजरात में भी उन दिनों जैन शैली का प्रभाव था, गुजरात से लगे होने के कारण मेवाड़ में जिस चित्र कला का विकास हुआ, वह जैन शैली से पूर्णतः प्रभावित थी।

अलग अलग भौगोलिक परिस्थितियों, विभिन्न परिवेशों के कारण जैन और मुगल शैली योग से राजस्थान में बिलकुल अलग किस्म की चित्रकला विकसित हुई। ये चित्र शैलियां जैन और मुगल शैली से प्रभावित होते हुए भी बिलकुल अलग ओर अनूठी थी। वास्तव में राजस्थान के चित्रकारों ने एक एसी चित्र धारा बहा दी कि विश्व आश्चर्य चकित रह गया।

प्रसिद्ध इतिहासकार अबुलफजल के अनुसार राजस्थानी चित्रकला वस्तुओं के बारें में हमारे ज्ञान से बहुत आगे हैं। हिन्दू धर्म के त्याग, तपस्या, सन्यास, कोमलता, श्रंृगार, पवित्रता, वियोग, शिकार, क्रोध, हास्य, आदि सभी का प्रतिनिधित्व इन चित्रों में हुआ है। राजस्थानी कलाकारों ने जीवन में धर्म और श्रंृगार दोनों को बराबर महत्व देते हुए चित्र बनाये। अजन्ता के चित्रों में जो आदर्श है ए वे राजस्थानी चित्र शैलियों में भी है।

राजस्थान की अलग अलग रियासतों में अलग अलग कलाकारों ने पीढ़ी दर पीढ़ी चित्र बनाएं और चित्रकला की नवीन शैलियां विकसित की। बराबर राज्याश्रय मिलने के कारण ये चित्र शैलियां प्रसिद्धि के शिखर तक पहुंची। अति महत्वपूर्ण शैलियांे में निम्न चित्र शैलियां प्रमुख है- नाथद्वारा चित्र शैली, जैन चित्र शैली, मारवाड़ चित्र शैली, बंूदी चित्र शैली, जयपुर चित्र शैली, अलवर चित्र शैली, कोटा चित्र शैली, बीकानेर चित्र शैली, जैसलमेर चित्र शैली, मेवाड़ चित्र शैली किशनगढ़ चित्र शैली

आदि।

राजस्थान की जैन चित्रकला भी काफी अच्छी रही हैंए जैन उपासरों व् साधुओं के सानिंध्य मे इसका विकास हुआण्कपडे पर बन् ने वाली फड चित्र कारी भी काफी प्रसिद्ध हुईए भीलवाडा के फड चित्र कार विश्व प्रसिद्द हुएण् श्री नाथजी के कपडे पर बने चित्र भी बहुत लोकप्रिय हैए इसे पिछवाई कला कहते हैण् मोलेला की टेरा कोटा कला ने भी खूब नाम कमाया हैण्किशन गढ़ की बनी ठनी चित्रों का महत्व भी बहुत हैण् मारवाड़ी चित्रकला एबूंदी कला ए भी बहुत प्रसिद्द हैंण्

कठ पुतली कला

कठपुतलियों को देश और विदेश में लोकप्रियता और प्रसिद्धि दिलाने हेतु स्व.देवीलाल सामर ने बहुत काम किया। उदयपुर का भारतीय लोक कला मण्डल परम्परागत और नवीन कठपुतलियां तथा उनके समाजशास्त्रीय अध्ययन पर काफी काम कर रहा है। पुतलियां चाहे पुरातन हों अथवा नवीन, सैद्धान्तिक दृष्टि से एक ही नियम में बंधी हैं, और किन्हीं वास्तविक प्राणियों की नकल नहीं हो सकती। न्यूनतम अंग भंगिमाओं से अधिकतम भंगिमाओं का भ्रम उत्पन्न करना पारम्परिक एवं आधुनिक पुतलियांें का परम धर्म है।

पुतली सिद्धान्त की दृष्टि से पुरातन पुतलियां जितनी आधुनिक हैं, उतनी आधुनिक पुतलियां नहीं। चित्रकला की तरह भारतीय पुतलियां अनुकृति मूलकता से हटकर आभासिक रही है। आन्ध्र, राजस्थान एवं उड़ीसा की पुतलियां इसी क्रम में आती हैं।

आधुनिक पुतलियां पारम्परिक पुतलियांे का ही परिष्कृत रूप है। इन पुतलियांे को पारम्परिक पुतली सिद्धान्त से ही जोड़ा जा सकता है। पारम्परिक पुतलियां अपने नियमों से बंधी होने के कारण विकास नहीं पा सकीं। राजस्थान के पारम्परिक पुतलीकार अमरसिंह राठौर या राणा प्रताप के ख्,ोल से आगे नहीं बढ़ना चाहते। उड़ीसा के पुतलीकार गोपीकृष्ण के कथानक को नहीं छोडते। आन्ध्र के छाया कठपुतलीकार रामायण एवं महाभारत के ही खेल करते है। यही कारण है कि यह परम्परा अब मृतप्रायः सी हो चुकी है। लेकिन पुतली कला के विषय अब प्रमुख रूप से शिक्षा, मनोरंजन, सामाजिक विंसंगतियों आदि से सम्बन्धित होते हैं। वसीला नामक कठपुतली नाटक ने भारत व सोवियत समाज को नजदीक लाने में मदद की।

मूर्ति कला

सफेद और काले हल्के पीले और गुलाबी, रंगीन और सादे, पारदर्शी या इन्द्रधनुषी, अनगिनत रंगों में कलात्मक मूर्तियां पत्थरों की। जयपुर मूर्ति उद्योग विश्व-विख्यात हैं। हजारों लाखों की संख्या में ये मूर्तियां प्रतिवर्ष देश विदेश के हजारों मंदिरों में प्रतिष्ठित होकर श्रद्धा से पूजी जाती है। इनकी अर्चना की जाती है। मन्नतें मानी जाती है।

मूर्ति बनाने के आरंभ से ही मनुष्य के मुख्यतः दो उद्देश्य रहे है। एक तो किसी स्मृति को या अतीत को जीवित बनाये रखना, दूसरे अमूर्त को मूर्त रूप देकर व्यक्त कर अपना भाव प्रकट करना। यदि पूरे संसार की काल प्रतिमाओं का विवेचन करे तो यही तथ्य दृष्टिगोचर होता है। प्रारम्भ में मनुष्य ने जानवारों, वनस्पतियों और उन पर मानव की विजय का अंकन मूर्तियों पर किया फिर देवी देवताओं और प्राकृतिक कोप से बचने के लिए मूर्तियों का पूजन अर्चन प्रारंभ हुआ। मूर्तिकला में ऐतिहासिक मूर्तियां एक सिरे पर है और धार्मिक और कलात्मक मूर्तियां दूसरे सिरे पर है। आध्यात्मिक भावना में उपासना में, पूजा, अर्चना में जो सुख है, वह भौतिकवाद में नहीं है और भारतीय मूर्तिकला ने अपना ध्यान इसी पारलोकिक सुख की ओर केन्द्रित किया हैं। वास्तव में मूर्ति, चित्र, कविता संगीत का और सौन्दर्य का एक ऐसा मिला जुला रूप है कि बरबस वह मानव को आकर्षित कर उसके अवचेतन मस्तिष्क में देवता की या ईश्वर की एक छवि बना देती है। भारतीय मूर्तिकला ने भौतिक रूप का निर्देशन न करके तात्विक रूप निर्देशन किया है और इसी कारण यह सर्वत्र ग्राहय है। पूज्य हैं।

भारत की प्राचीन मूर्तियां सिंध, मोहनजोदड़ों और हड़प्पा में मिली है। बाद में नंदकाल, मोर्यकाल, शुंगकाल, कुषाण-सातवाहन काल, मथुरा शैली, गुप्तकाल, उत्तर-मध्यकाल, खुजराहो, तंजोर, दक्षिण भारत तथा आधुनिक काल में भी भारतीय मूर्तिकाला की परम्परा रही है। वास्तव में कलाकृति में कलाकार की अनुभूति की ही अभिव्यक्ति रहती है। और सृजन का सुख कलाकार को बराबर मिलता रहा हैंण्

राजस्थान में कई प्रसिद्ध मंदिर हैंए श्री नाथजी क मंदिरएगोविन्द देवजी का मंदिरएसावंरा जी का मंदिर महावीरजी का जैन मंदिरएशिला देवी का मंदिरण्इन मंदिरों की कला भी लुभावनी हैण्देलवाडा के जैन मंदिर एअजमेर की दरगाहए रनक पुर के मंदिर एकई गुरूद्वारे व् चर्च भी दर्शनीय है व् खुबसुरत हैण् मेवाड़ के चार धाम भी प्रसिद्द हैण्श्रीनाथजी व् सावरिया जी का मंदिर सर् कार के टेम्पल बोर्ड से संचालित होते हैंण्अन्य मंदिरों के ट्रस्ट हैंण् अजमेर की दरगाह पर भी हर साल लाखों जायरीन आतें हैंण्

नाथद्वारा के कीर्तन और कीर्तनकार, मीनाकारी और चित्रकारी, साड़ियां या आभूषण, सभी कुछ अनोखे हैं और आज भी ब्रज के चौरासी कोसों से बहुत दूर वहां द्वापर युग की संस्कृति जीवित है, शायद आपको वह कहानी अवश्य याद होगी, जिसमे भगवान कृष्ण ने इंद्र की पूजा-अर्चना करने से गोपवासियों को मना कर दिया था, क्रोधित इंद्र ने गोपजनों और उनके सर्वस्व को तहस-नहस करने का निर्णय ले लिया काले घनघोर बादलों से बारिश की झड़ी लग गयी, गर्जन-तर्जन और बिजली की फुफकार से भागे-भाागे गोपवासी परेशान हो गये. जलप्रलय का दृश्य उपस्थित हो गया था।

ऐसे समय में ग्वाल बाल कृष्ण की शरण में आये. कृष्ण ने अपनी अंगुली पर गिरिराज पर्वत को उठाकर संपूर्ण गोपजनों को इंद्र के क्रोध से बचाया.। आधुनिक संदर्भो में भी यह घटना महत्वपूर्ण है, किसी बलशाली बाह्नय शक्ति की पूजा-अर्चना करने के बजाय अपनी ही भूमि की पूजा-अर्चना उचित है, है न एक क्रांतिकारी दर्शन।

पिछवाई-कला

श्रीनाथ जी के चित्रों के अलावा जो सबसे महत्वपूर्ण है-वह है पिछवाई। वास्तव में श्रीनाथ जी की प्रतिमा के पीछे दीवारों को सजाने के लिए कपडें पर मंदिर के आकार के अनुसार चित्र बनाये जाते है। ये पर्दो का काम करते है। यह नाथ द्वारा की अपनी मौलिकता हैं जो अन्य किसी शैली में नजर नहीं आती। पिछवाई का आकार कुछ भी हो सकता है, और मूल्य पांच सौ रू से लगातार 20,000 रू तक। इन पिछवाईयों में अधिकतर विभिन्न उत्सवों से सम्बन्धित होती है।

इन पिछवाईयों पर प्राकृतिक दृश्यों का चित्रण भी काफी किया जाता है। गिरिराज पर्वत, गोपालन, रासलीलाएं, माखन खाते कृष्ण आदि इस शैली के आम विषय ब्रश बनाते है। प्रधान पर्वों की झाकियों के चित्र कई आकारों में बनते है। मंगला, ग्वाल, श्रृंगार, राज भोग आदि झाकियों के चित्रों की सर्वाधिक मांग रहती है।

1 मीटर गुणा 1.5 मीटर कपड़े े पर श्रीनाथ जी का चित्रण काफी होता है। यह स्वरूप कहलाता है। इसके अलावा चितेरे, महत्वपूर्ण अवसरों यथा शादी, ब्याह, जनेऊ आदि अवसरों पर भित्ती चित्र भी बनाते है। इस चित्र शैली में सर्वप्रथम कागज या कपडें़ पर कोयले से रेखकृति अंकित की जाती है। सुनहरे भाग को सोने या मृगान से बनाया जाता है। इसके बाद सफेद काम करके लाल व काला काम करते है। रंग लगाने के बाद कपडें़ या कागज को चिकने पत्थरों पर घोटकर उसका भुरभुरापन दूर किया जाता है। कपड़ें की घुटाई ज्यादा महत्वपूर्ण है और कपड़े पर रंग भी ज्यादा पक्के लगाये जाते है।

आभूषण के चित्रण के मामले में कर्णफूल, कुण्डल, दुगदुनी, कन्दोरा कड़े, बंगडी, हथपान, हार, कांटा, लोंग, नथ, बोर, भुजबंद, अंगुठी, डोरा, गुटियां, झोला, आदि प्राथमिकता पाते है। हीरे भी बनाये जाते है। पुरूषों के मामले में मेवाडी पगडी अंगरखी, धोती, जूते, खडाऊ, आदि प्रमुखता से अंकित किये जाते है।

महिलाओं के लिए साड़ी, कांचली, घाघरा, आदि प्रमुखता से अंकित किये जाते है। फूलों का श्रृंगार भी लोकप्रिय है। राधा को बनाते समय कुछ लोग नवीन वस्त्र व आभूषण भी प्रयूक्त कर देते है। जानवरों में बैल, तोता, सारस, मछलियां, सर्ज, बगुला आदि का चित्रण होता है। फूलों में कमल, गुलाब, कदम्ब, आम मोलश्री आदि प्रमुूखता पाते है।

पिछवाई कला में दो सौ वर्ष पूर्व रामचन्द्र बाबा चित्रकार हुए। बाद में विट्ठल व चम्पालाल हुए। इस कला में खेमराज जी भी प्रसिद्ध थे।

मरवन मंडे मांडना निरखे चतुर सुजान

राजस्थान हो या गुजरात। मालवा या दक्षिण भारत लगभग हर घर में द्वार, चौखट को पूजने की समृद्ध परंपरा है। त्यौहार हो या कोई शुभ अवसर। घर की स्त्रियां आंगन और मख्य द्वार पर अल्पना अवश्य अंकित करती है। दीपावली तो तौहारों का तौहार है। मां लक्ष्मी की अनुकम्पा कौन नहीं चाहता। लक्ष्मी आए घर द्वार उसके स्वागत में अल्पना का अंकन आवश्यक है।

लोक संस्कृति की समृद्ध सास्कृतिक विरासत का एक उज्जवल पक्ष है माण्डणा। वास्तव में माण्डणा कला-कलात्मक सौन्दर्य की सार्थक अभिव्यक्ति है। माण्डणे स्थान की शोभावृद्धि करती है। वे उमंग, उत्साह, उल्लास का सुजन भी करते है और वातावरण को रस से भर देते हैं।

माण्डणों की प्राचीनता स्वयंसिद्ध है। वेदों पुराणों में हवनों और यज्ञों में वेदी और आसपास की भूमि पा हल्दी, कुमकुम आदि से विभिन्न आकृतियां बनाई जाती थी। भगवान राम को अयोध्या आगमन पर अयोध्यावासियों ने अपने घरों को माण्डणों से सजाया था। प्राचीन समय में घर-आंगन सजाने का एकमात्र साधन यही था। ग्रमीण अंचलों में आज भी इस विधा का बहुत महत्व है।

सांझी कला

श्राद्धों के दिनों में घर के बाहर सांझी बनाई जाती है ए यह कला उत्तर प्रदेश से आईए अंतिम दिन कोट बनाया जाता हैए कुवारीं लड़कियों का यह त्यौहार अब धीरे धीरे ख़तम हो रहा हैण् मेले ठेले भी समय के साथ बिछड़ने लगे हैंण्महिलाओं के वस्त्रों में भी भारी परिवर्तन दिख रहा हैं आभषनो में भी परिवर्तन आ रहा हैण्

स्थापत्य कला

हवा महल
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राजस्थान के किले मंदिर स्थापत्य की द्रष्टि से बेजोड़ हैण्चित्तोड का किला विश्व में प्रसिद्ध हैएकिर्तिस्थम्भ ए विजिय स्तंभ ए जैसलमेर का किला एकुम्भलगढ़ का किला व् इसकी दिवार जो चीन की दिवार के बाद सबसे बड़ी हैण्जयपुर का जन्तर मन्तर व् हवा महल तो बेजोड़ है हीण्किलो के अंदर युद्ध करने ए बचने ए व् सुरक्षा के लिए सभी व्यवस्थाएं होती थीण्नगरों की रचना के लिहाज़ से जयपुर दर्शनीय हैण्

लोक जीवन में खेल परम्परा

राजस्थान की सभ्यता और संस्कृति ने हमेशा से ही व्यायाम, खेलकूद, कसरत आदि को पूरा महत्व दिया है। शरीर को स्वस्थ रखने के लिए आयुर्वेद में व्यायाम तथा खेलों के अलावा योगाभ्यास पर भी बल दिया गया है। वास्तव में प्राचीन भारत में कई ऐसे खेल प्रचलित थे, जिनसे मानव का बौद्धिक एवं शारीरिक विकास होता था, लेकिन देखते-देखते हमारे ये खेल पश्चिमी संस्कृति की चकाचौंध में नष्ट हो गए।

वेदों, उपनिषदों तथा पुराणों मेें कुछ खेलों का वर्णन किया गया है। राजप्रासादों मेें राजकुमार तथा गुरूकुलों में सामान्य बालक इन खेलों से शरीर का विकास करतेे थे। कौटिल्य के अर्थ शास्त्र में व्यायाम, कुश्ती, जलविहार, तैराकी, शस्त्र प्रतियोगिता आदि का विस्तृत वर्णन किया गया हैै। काम सूत्र की 64 कलाओं में भी विभिन्न प्रकार की कलाओं का वर्णन करते समय खेलों का वर्णन किया गया है।

प्रत्येक राजा के राज्य में रहने वाले नागरिक अपने आमोद-प्रमोद तथा मनोरंजन के लिए इन खेलों मेें भाग लेते थे या फिर दर्शक के रूप में जाते थे। राजा की ओर से उत्सव की सूचना डोंडी या शंख बजाकर दी जाती थी। प्रत्येक नागरिक दोपहर से पहले अपना व्यवसाय करता था। दोपहर के बाद मनोविनोद करता था। दिल बहलाव के लिए नागरिक पक्षियों से खेलते थे। सायंकाल वाटिका, उद्यान में भ्रमण हेतु जाते थे। झूले झूलते थे या जल क्रीड़ा करते थे। सांयकाल से रात्रि तक नृत्य, थियेटर वाद्यों से अपना मनोरंजन करते थे। इस नित्य कर्म के अलावा नागरिक लम्बी यात्राओं पर जाते थे। मेलों-उत्सवों में भाग लेते थे। कुछ नागरिक वन विहार हेतु घोड़े पर सवार होकर निकल जाते थे। वे बाग में मुर्गे की लड़ाई, जुआ या नाच-गाने का क्रार्यकम देखते थे। सच पूछा जाये तो हमारी खेल परम्परा बहुत ही समृद्ध रही है।

कुछ प्राचीन खेल इस प्रकार है १.कुश्ती २.कबडडी ३.गदा ४.जोड़ी ५.मलखम्भ ५.शतरंज ६.तलवार बाजी ७.धनुर्विद्ध्या ७.गिल्ली डंडाए८.मार दडी आदि ण्

कबूतरबाजी, तीतरबाजी, बटेरबाजी, मुर्गे लड़ाना आदि खेलों का मुगल काल में काफी विकास हुआ। महिलाएं भी इस लड़ाई का आनन्द लेती थीं। मुर्गों की लड़ाई का वर्णन कई जगहों पर मिलता है। नवाबों के काल में यह मनोरंजन का एक आम साधन था। मुर्गे उछल उछलकर एक दूसरे पर वार करते थे। अक्सर कमजोर मुर्गा भग जाता था और जीतने वाले मुर्गे के मालिक को सम्मान और ईनाम मिलता था।

पक्षियों की तरह ही पशुओं से सम्बन्धित खेल भी खेले जाते थे। हाथियों की लड़ाई भैसों, बकरों, साड़ों, ऊंटों की लड़ाई भी काफी प्रसिद्ध थी। नाथद्वारा में साण्डों की लड़ाई होती थी। वहां अभी भी दीपावली के दूसरे दिन गायों को खिलाया जाता है, जिसे खेंखरा कहा जाता है। गायों के अलावा ऊंट दौड़, हाथी दौड़, हाथी पोलो, पोलो तथा घुड़दौड़ भी प्राचीन पशु खेल था। पोलो तथा घुड़दौड़ तो आज भी बहुत ज्यादा लोकप्रिय हैं। इसी प्रकार बैलगाड़ी की दौड़ भी काफी प्रसिद्ध खेल था। घुड़दौड़ के अलावा अन्य जानवरों की दौड़ों का इन्तजाम भी नागरिकों के मनोरंजन के लिए किया जाता था। रथदौड़ भी प्रिय थीण्

संक्षेप में यह कहा जासकता है की राज् स्थान की संस्कृतिए साहित्य ए कला अनोखी है ए इस को सरकारी सरक्षण की जरूरत हैण्इस धरोहर को आम आदमी तक पहुचानें की जरूरत हैण् बहुत सारी चीजें या तो नष्ट हो गई है या नष्ट होने के कगार पर हैण् किले खंडहर हो गए है एहवामहल तक की मरम्मत नहीं हो पा रही हैण् इसी प्रकार साहित्य व् कलाओं को भी बचाने की सक्त जरूरत हैण् आशा है सरकार व् व्यवस्था ध्यान देगीं ण्

लोक कथाओं का अनोखा संसार

राजस्थान की लोककथाओं का भंडार भरा हुआ हैण्विजय दान देथा की वाता री फुलवारी इस का जबरदस्त प्रमाण हैण्यहाँ पर लोक कथाओं को समय काटने केलिए सुनाया जाता थाण् एकएक कथा कई घंटो तक चलती हैण् दस बीस कोस की कथा सुनाने वाले होते थेण्फ़ौज में नगाडो एबात में हुंकारों यह एक सर्व सम्मत शुरुआत थीण्हुंकारा भरना जरूरी होता थाए आज भी गांवों में किस्से क्कहने वाले है लेकिन अब कौन सुनता हैघ्लोक कथाएं मानव मन के अनुभवों की प्रतीक होती हैण्लोक कथाएं कई युगों तक सत्य को अपने में समाहित कर के रखती हैण्लोक कथाओं में कटू यथार्थ होता हैण्वे जीवन के गूढ़ रहस्यों को खोलती हैए उनसे खेलती है और श्रोता को एक स्पष्ट सन्देश देती है यूँ ही कोई कहानी लोक कथा नहीं बन जाती एक पूरे काल खंड तक कथा को परखा जाता हैं जांचा जाता है तब जाकर एक मुक्कमिल लोक कथा बनती हैण्

दो लोक कथाएं प्रस्तुत है जो बदलते समय को पहचानती हैए व्यक्तिएसमाज व् सत्ता में आने वाले परिवर्तनों को रेखांकित करती है ण्

धन का मालिक कौन घ्

पुराने समय में एक राजा था । बहुत ही उदार, न्यायप्रिय और प्रजा का ध्यान रखनेवाला । उसके राज्य में लोग सुखी थे । कोई भी अपराधी बिना सजा पाए नहीं रह सकता था । कुछ समय बाद राजा के मन में घमंड आ गया । वह सोचने लगा-‘मैं कितना बुद्धिमान हूँ । प्रजा का कितनी अच्छी परह से पालन कर रहा हूँ । दूर-दूर तक मेरी ख्याति है ।’ कुछ दिनों तक तो राजा ने यह बात किसी से नहीं कहीं, लेकिन एक दिन राजा के मन में अपने दरबारियों के मुँह से अपनी प्रशंसा सुनने की लालसा जागी । राजा ने अपने दरबारियों से पूछा-‘‘ मेरा राजकाज कैसा चल रहा है ? पड़ोसी राजा मेरे बारे में क्या सोचते हैं ?’’

प्रधानमंत्री ने जवाब दिया-‘‘महाराज, आपके राज्य में सर्वत्र अमन-चैन है । सारी प्रजा आपकी जय-जयकार कर रही है ।’’

यह सुनकर राजा खुश हो गया । उसने दूसरा प्रश्न पूछा-‘‘मेरे पितामह और मेरे पिताजी के जमाने में राज्य कैसा था ?’’

प्रधानमंत्री ने जवाब दिया-‘‘महाराज, शायद ही कोई व्यक्ति जीवित हो, जो आपके पिता या पितामह के राजकाज के बारे में कुछ बता सके । पास के जंगल में एक महात्मा रहते हैं, उनकी आयु काफी है; शायद वे कुछ बता सकें ।’’

राजा ने कहा-‘‘उन्हें बुलाया जाए ।’’

राजा के आदेश पर प्रधानमंत्री ने महात्मा को दरबार में बुलवाया । राजा ने उनसे वही प्रश्न किया ।

महात्मा ने कहा-‘‘आपको एक घटना सुनाता हूँ । इसका संबंध आपके पिता तथा पितामह के राज से है । आप सब समझ जाएँगे कि किसका राज कितना अच्छा था?’’ इतना कह, महात्मा बताने लगे-

‘‘राजन्, आपके दादा के राज्य में एक किसान के पास कुछ जमीन थी । उसके घर में खेती में मदद करनेवाला दूसरा कोई आदमी नहीं था । इसीलिए किसान ने अपनी जमीन दूसरे किसान को बिना किसी लिखा-पढ़ी के खेती करने के लिए दे रखी थी । फिर भी जमीन जोतने वाला किसान ईमानदारी से उसका हिस्सा बिना कहे दे देता था ।

एक दिन की बात है, दूसरा किसान जमीन जोत रहा था । तभी हल की नोक किसी सख्त चीज से टकराई । बैल रोक कर उसने जमीन का थोड़ा-सा खोदा, तो अशर्फियों से भरा हुआ एक कलश निकला । उस कलश को लेकर वह जमीन के मालिक के पास गया और बोला-‘तुम्हारी जमीन में से यह कलश निकला है । मैं इसे तुम्हें सौंपनें आया हूँ।’

पहले किसान ने कहा-‘तुम भी कैसी भेली-भाली बातें करते हो । मैं जमीन तुम्हें दे चुका हूँ । जमीन में जो कुछ निकले, वह तुम्हारा है-चाहे अनाज हो, चाहे अशर्फी । मुझे तो सिर्फ फसल का ही हिस्सा चाहिए ।’

इस बात को लेकर दोनों में काफी देर तक बहस हुई पर कोई भी उस कलश को लेने के लिए तैयार नहीं हुआ । आखिरकार उन्हांेने फैसला किया कि राजा के पास चलकर यह कलश उन्हें सौंप देना चाहिए ।

दोनेां किसान आपकें पितामह के पास आए और बोले-‘महाराज, यह कलश राज्य की भूमि से निकला है । राज्य आपका है, इसीलिए इसे आप रखें ।’

राजा ने कहा-‘तुम दोनों नासमझ हों । जमीन हम तुम्हें दे चुके हैं । अब उसमें से जो कुछ निकले, वह किसान का । राज्य का उसपर कोई हक नहीं । तुम दोनों में से जिसका भी हक हो, वह उसे रख ले ।’

दोनों किसान निराश होकर लौट आए । आखिर तय हुआ कि जिस जगह यह निकला है, वहीं वापस गाड़ दिया जाए । दोनों किसानों ने ऐसा ही किया ।

महात्मा से बीती घटना सुनकर राजा बोला-’’महात्मन् ऐसा क्यों किया गया ? धन का सदुपयोग हो सकता था । पाठशाला खुलवाई जा सकती थी । अस्पताल बनवाए जा सकते थे । गरीब लोगों को जीवन निर्वाह के लिए मदद दी जा सकती थी ।’’

महात्मा मुसकराए । बोले-‘‘राजन्, उन दिनों विद्या या चिकित्सा मोल नहीं मिलती थी । दान लेना भी बुरा समझा जाता था । सभी अपने-अपने परिश्रम की कमाई खाते थे ।’’

सुनकर राजा चुप हो गया ।

महात्मा ने कथा फिर आगे बढ़ाई-‘‘समय की गति को कौन रोक सकता है । एक दिन आपके पितामह का देहांत हो गया । आपके पिता गद्दी पर बैठे । साथ ही वे दोनेां किसान भी स्वर्ग सिधार गए ।’’ दोनों किसानों के लड़के बड़े हुए । इस बीच आदमी में भी थोड़ा-थोड़ा अंतर आ गया । जो किसान जमीन का मालिक था, उसके लड़के ने मन में सोचा-‘पिताजी को जो कलश देने के लिए किसान आया था, वह ठीक ही आया था । जमीन उसे खेती करने के लिए दी गई थी । जमीन के भीतर का धन तो पिताजी का ही था । पिताजी ने वह धन लेने से इनकार करके बड़ी भूल की । ’

यह सोचकर वह खेती करनेवाले किसान के पुत्र के पास गया । बोला-‘‘भैया, जो कलश तुम्हारे पिताजी, मेरे पिताजी को देने आए थे, वह बात ठीक ही थी । जमीन तो तुम्हें खेती करने के लिए दी गई थी । अतः मेरे पिताजी ने बेकार ही उस धन को लेने से इनकार कर भूल की । आज मैं उस भूल को सुधारने आया हूँ ।’

खेती करनेवाले किसान के लड़के के मन में भी लोभ आ चुका था । बोला-‘मेरे पिता कितने नासमझ थे । खेत में निकला हुआ धन दूसरे को देने गए थे । जब जमीन को वह जोतते थे, तो उसमें चाहे जो निकले वह उनका ही हुआ । अगर कलश की जगह साँप निकलता और मेरे पिता को काट लेता तो मृत्यु उनकी ही होती । भूल तुम्हारे पिता ने नहीं, मेरे पिता ने की ।’

दूसरे किसान का लड़का अशर्फियों का वह कलश चुपचाप जमीन में से निकाल लाया । कुछ धन उसने गाँव के बड़े लोगों को बाँटकर अपनी ओर मिला लिया । फिर सुख से रहने लगा ।

कुछ देर रुककर महात्मा ने कहा-‘‘राजन्, वह तो हुई दो किसानों की बात । इधर आपके पिता के मन में भी लोभ समाया । सोचने लगे कि जमीन के भीतर का धन तो राज्य का ही होता है, वह किसान का कैसे हुआ ? यह सोचकर आपके पिताजी ने सिपाही भेजकर किसान के पुत्र से कलश मँगवाया । किसान ने साफ मना कर दिया । कहा-‘राजा तो जमीन दे चुका है । उसमें जो कुछ निकले, वह जमीन जोतनेवाले का है । राजाजी चाहें, तो मैं दस-बीस आदमियों को लेकर हाजिर हो सकता हूँ । वे मेरी बात का समर्थन कर देंगे ।’ ये आदमी वे ही थे, जिन्हें वह धन देकर अपने पक्ष में कर चुका था । सिपाही ने वापस आकर राजा को सारी बात कही, तो वह भी चुप हो गए ।

समय बीतता गया । समय आने पर आपके पिताजी स्वर्गवासी हो गए और उन दोनों किसान के बेटे भी ।

अब आया आपका राज्य । हर बात के कायदे-कानून बन गए । अदालतें और पुलिस थाने खड़े हो गए । मुकदमा लड़ने के लिए वकील -बैरिस्टर भी पढ़-लिखकर तैयार हो गए । उन दानों किसानों के बेटों में भी उस स्वर्ण-कलश को लेकर वाद-विवाद खड़ा हो गया । अदालत में मामला गया, तो दोनों किसानों को सजा हो गई । कलश राज्य की (यानी आपकी) संपति बन गया । पिछले वर्ष ही यह फैसला किया है, आपकी अदालत ने ।

अब राजन् ! हालत यह है कि वह अशर्फियोंवाला कलश तो आपके खजाने में है और वे दोनों किसान आपकी जेल में । क्योंकि आप जैसे न्यायप्रिय राजा के राज्य में कोई अपराध करके सजा से कैसे बच सकता है ? घटना मैंने सुना दी । अब आप स्वयं फैसला कर लें, राज किसका अच्छा था ।’’

सुनकर राजा का सिर नीचा हो गया।

कोई नीं देखे पण राम देखे

एक बार एक साधू के पास दो युवक शिष्य बन् ने के लिए आयेण्साधू ने शिष्य बनाने के पूर्व उनकी परीक्षा लेनी चाही ण्महात्मा ने दोनों को एक दृएक कबूतर देकर कहा ए.इस कबूतर को ऐसे स्थान पर ले जाकर मारोण्जहाँ पर कोई न देखेण्

दोनों अलग अलग दिशाओं में अपना अपना कबूतर लेकर चल पड़ेण्पहले युवक ने एक सुनसान निर्जन स्थान देख कर कबूतर को मार डालाएलेकिन दूसरा युवक जीवित कबूतर लेकर पुनरू साधू के आश्रम में पहुंचाण्

पहले युवक ने साधू से कहा.एक निर्जन स्थल देख कर मैंने कबूतर को मार डाला हैण् मुझे शिष्य बनाइये ण्

दू सरे ने कहा दृमहाराज मुझे क्षमा करेंण्मुझे लगा की कोई स्थान निर्जन नहीं है ए राम सब देख रहा है ण्इसलिए मैं कबूतर को नहीं मार सकाण्

ये बातें सुनकर साधू ने पहले युवक से कहा.तुम शिष्य बनने के योग्य नहीं हो जाओएअपने घर जाओ ण्

फिर दूसरे युवक से कहा दृतुम तो स्वयम ज्ञानी हो यतुम्हे किसी का शिष्य बनने की आवश्यकता नहीं हैण्

तभी से कहा जाने लगा दृकोई नीं देखे पण राम देखे ण्

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सन्दर्भ रू:

१.राजस्थान की सांस्कृतिक परम्परा दृजय सिंह नीरज

२.राजस्थान का सांस्कृतिक इतिहास दृगोपी नाथ शर्मा

३.राजस्थान वैभव.त्रिलोकी नाथ चतुर्वेदी

४.बनसजनतंस ीमतपजंहम व िेीतमम दंजीकूंतं.लंेीूंदज ज्ञवजींतप

५ दृकठपुतली कला दृदेवीलाल सामर

६.वाता री फुलवारी.विजय दान देथा

७.मूर्ति कला दृराय कृष्ण दास

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