किसी भी वक़्त में जाकर,जो लम्हे छान लाए,वो कवित्त है
घनेरे तम में भी,उम्मीद का जो भान लाए,वो कवित्त है
पड़ी एक पंखुड़ी पर,ओंस को कागज उकेरे
भले हो शब्द चाहे कम,लगे वो भी बहुतेरे
निराशा के मरू में आशा की,बरखा कवित्त है
धरा पर हर गिरी एक बूंद की,खुशबू कवित्त है
पशु पैरों की उड़ती धूल को गोधुलि कर दे
खड़े एक ठूंठ जैसे पेड़,पर लिख प्राण भर दे
लघु लगती,गुरु पर मायनों में,वो कवित्त है
खत्म एक सोच के,आगे शुरू हो,वो कवित्त है
बदलते दौर में,बदलाव की चाहत समेटे
चुनिन्दा शब्दों के शृंगार की चुनरी लपेटे
लरजती आँख की पलके,कवित्त है
कलश से जल कहीं छलके,कवित्त है
मन में छुपे हर भाव को प्रत्यक्ष कर दे
नचिकेत खातिर स्वयं को ही यक्ष कर दे
स्वयं को ढूँढता, रस्ता कवित्त है
उमड़ते प्रश्नों का बस्ता कवित्त है
जो शोषक वर्ग पर जा,प्रश्नों की बौछार कर दे
जो शोषित वर्ग की पीड़ा में,घुल कर चैन भर दे
दमन के प्रस्तरों पर चोट मारे,वो कवित्त है
समेटे शब्दों में ही व्योम सारे,वो कवित्त है ॥